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बड़े चुनाव सुधारों की जरूरत

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बड़े चुनाव सुधारों की जरूरत
बड़े चुनाव सुधारों की जरूरत : वैसे तो इस समय अनेक चुनाव सुधारों की जरूरत है। खुद चुनाव आयोग में कई तरह के सुधार जरूरी हैं। आयोग ने पिछले कुछ समय में जैसे जैसे फैसले किए हैं और इन फैसलों की वजह से उसकी जैसी छवि बनी है उसे देखते हुए यह जरूरी है कि इस संवैधानिक संस्था के पूरे ढांचे में आमूलचूल बदलाव किया जाए।

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सबसे पहला बदलाव तो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में करने की जरूरत है, जिसकी विसंगतियों की ओर पिछले कई सालों से ध्यान दिलाया जा रहा है। अभी केंद्र सरकार की मर्जी से चुनाव आयुक्त नियुक्त होते हैं। आमतौर पर रिटायर हो चुके या रिटायर होने की कगार पर पहुंचे अधिकारियों की अनुकंपा नियुक्ति चुनाव आयोग में होती है। जैसे उत्तर प्रदेश के एक रिटायर अधिकारी को हाल में चुनाव आयुक्त बनाया गया है। उनकी नियुक्ति के साथ ही तीनों आयुक्त एक ही राज्य- उत्तर प्रदेश के हो गए हैं। संवैधानिक रूप से इसमें कोई खामी नहीं है लेकिन नैतिक रूप से यह फैसला सवालों के घेरे में है। भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखना संवैधानिक व्यवस्था की अहम जरूरत होती है। अगर तीसरे चुनाव आयुक्त के रूप में अनूप चंद्र पांडेय को नियुक्त करने की कोई संवैधानिक मजबूरी होती या वरिष्ठता के हिसाब से उनकी नियुक्ति अनिवार्य होती तब बात समझ में भी आती लेकिन ऐसी किसी अनिवार्यता के बावजूद सरकार ने उनको नियुक्त किया।

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सरकार ने इस बात का भी ख्याल नहीं रखा कि अगले साल उत्तर प्रदेश के चुनाव हैं और उससे पहले तीनों चुनाव आयुक्तों का उसी राज्य से होने का संयोग सवाल खड़े करेगा। पश्चिम बंगाल में आठ चरण में विधानसभा चुनाव कराने का चुनाव आयोग का फैसला भी आयुक्तों की तटस्थ, निष्पक्ष और मेरिट आधारित नियुक्ति की जरूरत को रेखांकित करता है। बहरहाल, चुनाव आयोग में सुधारों के साथ साथ अभी एक अहम जरूरत दलबदल कानून में सुधार की है। भारत में पहली बार दलबदल कानून 1985 में बना था और फिर उसमें 2003 में संशोधन किया गया। दोनों बार तात्कालिक स्थितियों को ध्यान में रख कर इस कानून का स्वरूप तय किया गया। कानून बनाने वालों ने कई संभावित पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया या उसकी कल्पना नहीं की। जैसे पहले कानून में किसी भी सदन के लिए चुने हुए सदस्य की अयोग्यता की शर्तें तय करते हुए सिर्फ इतना कहा गया कि उक्त सदस्य बचे हुए कार्यकाल में मंत्री पद या लाभ का कोई भी दूसरा राजनीतिक पद हासिल करने के अयोग्य होगा।

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लेकिन इस बारे में कोई प्रावधान नहीं किया गया कि अगर कोई सदस्य अपने पद से इस्तीफा देता है और दूसरी पार्टी से दोबारा चुन कर आ जाता है तो क्या होगा? ध्यान रहे पार्टियों में टूट और दूसरी पार्टी में विलय की प्रक्रिया को बहुत जटिल बना दिया गया है। इस वजह से कम से कम बड़ी पार्टियों में सीधे विभाजन की आशंका लगभग खत्म हो गई है। लेकिन बड़ी पार्टियों से भी इस्तीफा देने और दोबारा चुनाव जीत कर या चुनाव जीते बगैर कहीं मनोनीत होकर लाभ का पद हासिल करने की छूट मिली हुई है। अगर इसे ठीक नहीं किया जाता है तो दलबदल कानून का पूरा मकसद विफल हो जाएगा।

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चाहे वाईबी चव्हाण की अध्यक्षता में 1967 में बनी कमेटी हो या 2003 में प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में बनी कमेटी हो, जब भी दलबदल के बारे में चर्चा हुई तब बड़े राजनीतिक और संवैधानिक सवाल भी उठाए गए। दलबदल की वजह से सरकारों के अस्थिर होने के मसले पर गंभीरता से विचार किया गया तो यह भी माना गया कि दलबदल जनादेश के साथ विश्वासघात है और मतदाताओं का अपमान है। आखिर मतदाता सिर्फ किसी उम्मीदवार के व्यक्तित्व पर मतदान नहीं करते हैं। वे राजनीतिक दल, उस दल के वैचारिक रूझान और नीतियों आदि का भी ख्याल रखते हुए मतदान करते हैं। बड़े चुनाव सुधारों की जरूरत के तहत इन दोनों कमेटियों ने नेताओं की निजी वैचारिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी के पहलुओं पर भी विचार किया, जिसके आधार पर आज तक दलबदल को जायज ठहराया जाता है। किसी समय यह क्रांतिकारी विचार था कि अगर कोई सांसद या विधायक अपनी पार्टी की नीतियों से सहमत नहीं है तो वह पार्टी के साथ साथ सदन की सदस्यता से इस्तीफा देकर अलग हो सकता है। लेकिन अब यही क्रांतिकारी विचार एक प्रतिगामी या प्रतिक्रियावादी विचार में तब्दील हो गया है।

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भारतीय राजनीति ऐसी अनेक घटनाओं की गवाह रही है, जब एक पार्टी के चुने हुए प्रतिनिधियों ने पार्टी छोड़ दी और दूसरी पार्टी की टिकट से चुनाव जीत कर वापस उसी सदन में आ गए और मंत्री भी बन गए। जो नहीं जीत सके उन्हें लाभ के किसी दूसरे राजनीतिक पद पर नियुक्त कर दिया गया। और इस तरह दलबदल के पूरे कानून को मजाक बना दिया गया। कर्नाटक में 2019 में इसी तरह से कांग्रेस और जेडीएस के 17 विधायकों से इस्तीफा करा कर सरकार गिराई गई थी और 2020 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस के 22 विधायकों से इस्तीफा करा कर कांग्रेस की सरकार गिराई गई। बाद में इस्तीफा देने वाले विधायक भाजपा की टिकट पर चुनाव जीते, जिनमें से कई लोग मंत्री भी बने। राजनीति से पूरी तरह अनभिज्ञ व्यक्ति भी बता सकता है कि इसके पीछे कोई वैचारिक कारण नहीं था, बल्कि नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा की वजह से यह दलबदल हुआ। यह प्रक्रिया अलग तरह से पश्चिम बंगाल में दोहराई जा रही है। भाजपा के विधायक सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस में जा रहे हैं।

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थोड़े से अपवादों को छोड़ दें तो आमतौर पर इस तरह का दलबदल हमेशा सत्तारूढ़ दल को फायदा पहुंचाने के लिए होता है। अरुणाचल प्रदेश से लेकर कर्नाटक और मध्य प्रदेश तक दलबदल का फायदा केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को मिला। इन राज्यों से अलग भी दलबदल का फायदा आमतौर पर भाजपा को ही मिला है। किसी जमाने में यह फायदा कांग्रेस को मिला करता था, जब केंद्र में उसकी मजबूत सरकार होती थी। इसका सीधा मतलब है कि दलबदल वैचारिक प्रतिबद्धता से ज्यादा निजी लाभ से जुड़ा है, जो हमेशा सत्तारूढ़ दल से ही हासिल हो सकता है। तभी इसे रोकने के लिए बने कानून में सुधार बहुत जरूरी है।

बड़े चुनाव सुधारों की जरूरत

कायदे से यह सुधार विधायिका द्वारा किया जाना चाहिए लेकिन इसकी संभावना कम है कि दलबदल कानून के लूप होल्स का सबसे ज्यादा फायदा उठा रही सत्तारूढ़ पार्टी इसमें किसी तरह का बदलाव करेगी। इसलिए चुनाव आयोग को पहल करनी चाहिए या फिर सर्वोच्च न्यायपालिका स्वतः संज्ञान लेकर इसकी पहल करे। किसी भी पार्टी के चुने हुए विधायक या सांसद को अगर दलबदल के बाद कोई निजी लाभ हासिल करने से रोक दिया जाए तो दलबदल पर काफी हद तक अंकुश लग जाएगा। इसलिए सिर्फ यह प्रावधान करने की जरूरत है कि अगर कोई भी चुना हुआ प्रतिनिधि पार्टी छोड़ता है तो कम से कम उस कार्यकाल के लिए उसके और उसके नजदीकी परिजन के चुनाव लड़ने पर रोक लगे। उसे किसी संवैधानिक पद पर मनोनीत होने से रोका जाए और लाभ का कोई दूसरा राजनीतिक पद हासिल करने से भी रोका जाए। दलबदल के साथ साथ गठबंधन बदल भी मौजूदा समय की एक बड़ी परिघटना है, जो जनादेश के मायने को पूरी तरह से बदल दे रही है। यह आम होने लगा है कि एक गठबंधन में रह कर चुनाव लड़ने वाली पार्टी चुनाव के बाद सत्ता के लालच में दूसरे ऐसे गठबंधन के साथ चली जाती है, जिसका चुनाव में उसने विरोध किया होता है। महाराष्ट्र की मौजूदा सरकार इसकी मिसाल है। दलबदल की तरह इसे भी रोकना जरूरी है। बड़े चुनाव सुधारों की जरूरत है. अगर तत्काल व्यापक चुनाव सुधार नहीं हो सकते हैं तो कम से कम दलबदल और गठबंधन बदल को रोकने वाला कानून बनना चाहिए ताकि जनादेश और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुचिता और उसमें लोगों के भरोसे को टूटने से बचाया जा सके।
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