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हिंदी पत्रकारिता के वैदिक युग का अवसान

डॉक्टर वैदिक ने अपने लेखन से कई मिथक तोड़े। हिंदी के बारे में यह आम धारणा रही है कि वह साहित्य की भाषा है या हिंदी भाषा में देश की गोबर पट्टी की राजनीति के बारे में ही लिखा जा सकता है। वैदिक जी ने इस धारणा को तोड़ा। उन्होंने जिस सहज भाव से वैदेशिक मामलों पर हिंदी में लिखा उसकी दूसरी मिसाल नहीं है।

हिंदी की मुख्यधारा की पत्रकारिता के स्वर्ण काल का प्रतिनिधित्व करने वाली मध्य प्रदेश की त्रयी की आखिरी कड़ी भी टूट गई। प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर के साथ साथ और उनके बाद भी हिंदी को समृद्ध करने, उसे शक्तिशाली बनाने, उसे शिक्षा व विमर्श की माध्यम भाषा बनाने और हिंदी को हर क्षेत्र में विचार की मौलिक भाषा बनाने के प्रयास में ताजिंदगी लगे रहे डॉक्टर वेदप्रताप वैदिक का निधन हो गया। उनका जाना एक युग का अवसान है- यह सिर्फ कहने की बात नहीं है। इस बात को शब्दशः लिया जा सकता है। वास्तव में उनके निधन से हिंदी की बेहतरीन पत्रकारिता और विचारशीलता के एक गौरवशाली अध्याय का पटाक्षेप हो गया है। उनका जाना एक ऐसे सार्वजनिक बुद्धिजीवी का जाना है, जिसमें सत्ता से आंख मिला कर उसकी आलोचना करने की हिम्मत थी। इस समय उनकी बहुत जरूरत थी।

डॉक्टर वैदिक ने अपने लेखन से कई मिथक तोड़े। हिंदी के बारे में यह आम धारणा रही है कि वह साहित्य की भाषा है या हिंदी भाषा में देश की गोबर पट्टी की राजनीति के बारे में ही लिखा जा सकता है। वैदिक जी ने इस धारणा को तोड़ा। उन्होंने जिस सहज भाव से वैदेशिक मामलों पर हिंदी में लिखा उसकी दूसरी मिसाल नहीं है। कूटनीति और सामरिक नीति को अंग्रेजी का विषय माना जाता था। लेकिन वैदिक जी ने कूटनीति और सामरिक नीति की गूढ़ गंभीर बातों को बेहद सहज हिंदी में लिखा और कई पीढ़ियों का ज्ञानवर्धन किया। वे जितने सहज तरीके से राजनीति और समाज के बारे में लिखते थे वैसी ही सहजता से उन्होंने कूटनीति और अर्थशास्त्र जैसे संश्लिष्ट विषयों पर भी लिखा। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति और पत्रकारिता पर गहन शोधात्मक किताबें हिंदी में लिखीं।

उन्होंने उस दौर में पत्रकारिता शुरू की थी, जब इसके साथ किसी तरह का ग्लैमर नहीं जुड़ा था। जब यह समाज और देश के प्रति जिम्मेदारी वाला काम समझा जाता था तब से लेकर अब तक वे उसी भाव से इस जिम्मेदारी को निभाते रहे। देश और दुनिया की तमाम बड़ी हस्तियों के साथ निजी संबंधों के बावजूद डॉक्टर वैदिक सादगी और ईमानदारी के अपने बनाए रास्ते पर चलते रहे। आधुनिक पत्रकारिता की चकाचौंध में नहीं फंसे। दुनिया भर के नेताओं से अपनी पहचान, उनसे अपने संबंधों और अपनी उपलब्धियों के वर्णन में कई बार अतिरेक सुनने को मिलता था लेकिन वह सहज भोलेपन के भाव वाला था। उसका मकसद किसी तरह के लाभ हासिल करने का नहीं था। आज अगर किसी पत्रकार को प्रधानमंत्री कार्यालय के चपरासी से दोस्ती हो जाए तो वह अपने धन्य समझता है लेकिन डॉक्टर वैदिक एक प्रधानमंत्री को हिंदी सिखाने जाते थे और देश के एक दर्जन प्रधानमंत्रियों से उनके निजी संबंध थे। उन्होंने इन संबंधों का जिक्र तो जरूर किया लेकिन कभी इनका कोई निजी फायदा उठाने का प्रयास किया हो, इसकी मिसाल नहीं है।

डॉक्टर वैदिक ने देश, समाज और व्यक्तियों को देखने की अपनी एक अनोखी दृष्टि विकसित की थी, जिसे उनके हर तरह के लेखन में स्पष्ट देखा जा सकता है। उनकी एक खासियत यह थी कि उनके विचार और लेखन में कभी भिन्नता नहीं रही। वे जो सोचते थे, बोलते थे वही लिखते थे। दूसरी खास बात यह कि समाजवाद के प्रति अपने तमाम आग्रह के बावजूद विचारों वे बेहद लचीले रहे। उन्होंने अपने को वैचारिक रूप से रूढ़ नहीं होने दिया। जिस तरह से वे शारीरिक रूप से अंतिम समय तक गतिमान रहे वैसे ही उन्होंने बदलते समय के हिसाब से अपने विचारों को भी गतिमान बनाए रखा।

हिंदी उनकी प्रेरणा रही और जीवन का संकल्प भी। वैदिकजी ने अपने छात्र जीवन से हिंदी के लिए संघर्ष शुरू किया था। जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में उन्होंने अपनी थीसिस हिंदी में लिखने की जिद ठानी। अपना करियर दांव पर लगाया और अंततः जेएनयू में अंग्रेजी के वर्चस्व को सफलतापूर्वक चुनौती दी। वे जेएनयू के पहले छात्र बने, जिनका शोध ग्रंथ हिंदी में स्वीकार किया गया और उनको पीएचडी की उपाधि मिली। कह सकते हैं कि उन्होंने भारत के दूर दराज के उन तमाम छात्रों के लिए जेएनयू के दरवाजे खोल दिए, जिनके लिए भाषा एक बाधा बनती थी। उन्होंने उच्च शिक्षा में शोध के लिए भारतीय भाषाओं को मान्यता दिलाई। वैदिकजी ने शिक्षा की माध्यम भाषा के रूप में अंग्रेजी के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए सिर्फ लेखन का रास्ता नहीं चुना, बल्कि सड़कों पर उतर कर संघर्ष किया। उन्होंने अंग्रेजी हटाओ का अहिंसक आंदोलन किया। डॉक्टर वैदिक ने अपने आंदोलन में आम लोगों को जोड़ने का भी प्रयास किया। अंग्रेजी हटाओ के अपने अभियान में उन्होंने दुकानों के नाम हिंदी में लिखने के लिए लोगों को प्रेरित करने का प्रयास किया।

यह बड़ा विरोधाभास था कि उनके विमर्श का मुख्य विषय कूटनीति और सामरिक नीति थी लेकिन विमर्श की भाषा हिंदी थी। वे जीवन भर अंतरराष्ट्रीय राजनीति और दुनिया के देशों की जटिल कूटनीति को हिंदी में समझते और समझाते रहे। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने और समझाने के लिए नए शब्द और नई भाषा गढ़ी। संवाद की शैली में लिखने का अद्भुत तरीका विकसित किया, जिसे पढ़ते हुए ऐसा लगता था कि आप उनसे बात कर रहे हैं। उनकी भाषा का जैसा प्रवाह था वैसा ही लेखन का था। उनकी जानकारी का दायरा इतना विस्तृत था कि वे किसी भी विषय पर धाराप्रवाह बोल सकते थे और धाराप्रवाह लिख सकते थे। जटिल से जटिल विषय को वे इतना आसान बना कर लिखते थे कि किसी के लिए भी उन्हें पढ़ कर समझना दुरूह नहीं था। यही वजह थी कि उनके पाठकों का दायरा भी बहुत बड़ा था। खूब पढ़े लिखे विद्वानों के साथ साथ हिंदी की मामूली समझ रखने वाला भी उनका पाठक था। राजधानी के सबसे एलिट क्लब आईआईसी और सप्रू हाउस से लेकर दूर दराज के गांवों तक में उनके पाठक थे। उन्होंने समकालीन राजनीति और कूटनीति के मामले में कई पीढ़ियों को जानकार बनाया। एक पत्रकार और विचारक के नाते यह उनकी बड़ी सफलता थी।

डॉक्टर वैदिक सिर्फ एक पत्रकार नहीं थी, जिसने इंदौर में ‘नई दुनिया’ से लेकर दिल्ली में ‘नवभारत टाइम्स’ तक काम किया फिर न्यूज एजेंसी ‘पीटीआई’ की हिंदी सेवा ‘भाषा’ के संस्थापक संपादक बने और बाद में देश के हर छोटे बड़े अखबार के लिए धुआंधार लेखन किया। वे विचारक थे, दार्शनिक थे, समाजवादी थे, आर्य समाज के आदर्शों को मानने वाले थे और सबसे ऊपर हिंदी को उसका गौरवशाली स्थान दिलाने के लिए संघर्ष करने वाले योद्धा थे। अपनी सोच को बेबाक तरीके से अभिव्यक्त करने वाले व्यक्ति थे। अपने आचरण से उन्होंने एक आदर्श स्थापित किया। वे एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे, जिनके जाने से सिर्फ लेखन और पत्रकारिता की दुनिया में खालीपन नहीं आया है, बल्कि इस मुश्किल दौर में सार्वजनिक विमर्श की दुनिया में भी रिक्तता आई है। बौने लोगों के समय का एक विराट व्यक्तित्व चला गया। एक आदमकद व्यक्ति!

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