थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर मार्च के महीने में 14.55 रही और इसी अवधि में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर यानी खुदरा महंगाई दर 6.95 फीसदी रही। थोक महंगाई दर पिछले पूरे एक साल से दो अंकों में है और खुदरा महंगाई दर पिछले तीन महीने से रिजर्व बैंक की तय की गई अधिकतम सीमा से ऊपर है। किसी को यह आंकड़ा न भी पता हो तब भी उसको पता है कि महंगाई बहुत बढ़ गई है। जीवन की जरूरत की छोटी से छोटी चीज भी महंगी हो गई है।
ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी से माल ढुलाई महंगा हुआ है और इसका असर हर चीज पर दिख रहा है। खाने-पीने की चीजें बेतहाशा महंगी हुई हैं। विनिर्मित वस्तुओं की कीमत में बेहिसाब बढ़ोतरी हुई है। यात्रा करना बहुत खर्च का काम हो गया है तो कपड़े खरीदना भी लोगों की पहुंच से दूर हो रहा है। सिर्फ इस महीने में सीमेंट की कीमत में 70 रुपए बोरी की बढ़ोतरी हुई है और स्टील की कीमत पिछले एक साल में दोगुनी होकर 80 हजार रुपए टन तक पहुंच गई है।
महंगाई को लेकर चिंता की बात यह है कि यह इतने पर रूकने वाली नहीं है। पेट्रोल लगभग पूरे देश में सौ रुपए लीटर से ज्यादा कीमत पर बिक रहा है और डीजल की कीमत भी सौ रुपए लीटर हो गई है। सीएनजी की कीमत में पिछले एक महीने में 10 रुपए किलो से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है और दिल्ली में इसकी कीमत 72 रुपए किलो तक पहुंच गई है। रसोई गैस के घरेलू सिलेंडर की कीमत एक हजार और कॉमर्शियल सिलेंडर की कीमत दो हजार से ऊपर हो गई है। थोड़े दिन पहले तक इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लेकिन यह बस नहीं है। कीमतें इतने पर भी रूकी रहेंगी इसकी गारंटी नहीं है। ऊपर से कंगाली में आटा गीला यह होना है कि जीएसटी कौंसिल वस्तु व सेवा कर की दरों में बदलाव करने जा रही है। एक कमेटी ने इसकी सिफारिश की है, जिसके मुताबिक पांच फीसदी का कर स्लैब समाप्त कर दिया जाएगा। इसकी कुछ वस्तुओं के लिए तीन फीसदी का एक स्लैब बनेगा और बाकी सारी वस्तुएं आठ फीसदी के स्लैब में डाल दी जाएंगी।
केंद्रीय वित्त मंत्री की अध्यक्षता वाली जीएसटी कौंसिल की मई में होने वाली बैठक में इस फैसले पर मुहर लगने की संभावना है। अगर यह बदलाव होता है तो अब तक जिन वस्तुओं को नागरिकों के रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाली जरूरत की वस्तु माना जाता था और पांच फीसदी टैक्स लगता था, उनमें से ज्यादातर वस्तुओं पर आठ फीसदी टैक्स लगेगा। इस तरह इन वस्तुओं की कीमत में तीन फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी। कर के ढांचे में बदलाव करने वाली कमेटी का अनुमान है कि इन वस्तुओं के टैक्स में तीन फीसदी का इजाफा करने से सरकारों को डेढ़ लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त राजस्व मिलेगा। ]\
सोचें, यह डेढ़ लाख करोड़ रुपया किन लोगों की जेब से निकलेगा? जीएसटी यानी अप्रत्यक्ष कर वह कर है, जिसे हर आम और खास नागरिक को चुकाना होता है। इसका मतलब है कि डेढ़ लाख करोड़ रुपया आम लोगों की जेब से निकलेगा। ध्यान रहे पहले से लोग अप्रत्यक्ष कर के रूप में जीएसटी से हर साल लगभग 14 लाख करोड़ रुपए चुका रहे हैं। ऊपर से यह डेढ़ लाख करोड़ रुपया और उनकी जेब से निकलेगा। प्रत्यक्ष कर के तौर पर करीब 13 लाख करोड़ रुपए मिलते हैं और पेट्रोल-डीजल, आबकारी आदि पर लगने वाले टैक्स से लाखों करोड़ रुपए अलग से मिलते हैं।
अब सवाल है कि इस पर काबू करना, किसकी जिम्मेदारी है? क्या सिर्फ केंद्र सरकार इस महंगाई के लिए जिम्मेदार है और उसके कंट्रोल करने से कीमतें कम हो जाएंगी? इसमें कोई संदेह नहीं है कि बड़ी भूमिका केंद्र सरकार की है क्योंकि ईंधन पर लगने वाले टैक्स का बड़ा हिस्सा केंद्र के खाते में जाता है। लेकिन राज्यों की सरकारें भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। मिसाल के तौर पर एक लीटर पेट्रोल पर भारत सरकार इस समय करीब 28 रुपए उत्पाद शुल्क लेती है। यह बिना टैक्स के एक लीटर पेट्रोल की कीमत के 50 फीसदी के बराबर है। इसी तरह राज्य सरकारें भी 30 से 50 फीसदी तक शुल्क एक लीटर पेट्रोल पर लेती हैं। अलग अलग राज्यों में इसकी दर अलग अलग है। महाराष्ट्र में एक लीटर पेट्रोल पर राज्य सरकार 30 रुपया टैक्स लेती है। आंध्र प्रदेश में 29 रुपए तो मध्य प्रदेश में करीब 27 रुपए लीटर टैक्स लिया जाता है। यानी केंद्र और राज्यों की सरकारें मिल कर पेट्रोल की कीमत के बराबर या उससे ज्यादा टैक्स लेती हैं। सो, अगर इसमें प्रभावी रूप से कमी करनी है ताकि आम लोगों को इसका स्पष्ट फायदा मिले तो केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को अपने अपने टैक्स में बड़ी कमी करनी होगी। सिर्फ एक-दूसरे पर आरोप लगाने से आम जनता को राहत नहीं मिलने वाली है।
इसी तरह जीएसटी में भी अकेले केंद्र सरकार का हिस्सा नहीं है। 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों के मुताबिक कुल जीएसटी में राज्यों को 41 फीसदी हिस्सा दिया जाना है। यानी सौ रुपए जीएसटी के मद में वसूले जा रहे हैं तो उसका 41 रुपया राज्यों के खाते में जाता है। अब अगर जीएसटी कौंसिल कर के ढांचे में बदलाव करना चाहती है और पांच फीसदी के स्लैब वाली ज्यादातर वस्तुओं को आठ फीसदी के स्लैब में डालना चाहती है तो उसमें सभी राज्यों की भी सहमति होगी। असल में राज्य सरकारें जीएसटी राजस्व को लेकर परेशान हैं। इस साल जून में मुआवजे का प्रावधान खत्म हो रहा है। जीएसटी लागू होने के बाद पांच साल तक यह प्रावधान था कि अगर कर की वसूली कम होती है या 14 फीसदी सालाना की दर से नहीं बढ़ती है तो उसकी भरपाई केंद्र सरकार करेगी। अब जीएसटी के पांच साल पूरे हो रहे हैं और यह प्रावधान खत्म हो रहा है। इसलिए राज्य सरकारें राजस्व की कमी को लेकर चिंतित है और चाहती हैं कि राजस्व बढ़ाने के लिए कर का स्लैब बदला जाए।
महंगाई के जो दो मुख्य फैक्टर हैं- ईंधन की कीमत और अप्रत्यक्ष कर उसमें राज्यों की हिस्सेदारी भी शामिल हैं। अगर राज्य ईमानदारी से चाहते हैं कि आम लोगों को राहत मिले तो उन्हें खुद भी टैक्स कटौती करनी होगी और केंद्र पर भी टैक्स कटौती का दबाव बनाना होगा। अगर विपक्षी पार्टियां चाहें तो जीएसटी की दर बढ़ाने का फैसला टल सकता है और ईंधन की कीमतें भी कम हो सकती हैं। इसलिए छिटपुट बयान देने या केंद्र पर निशाना साधने से कीमतें कम नहीं होंगी।