अमेरिका में इस वक्त एक चर्चा यह भी है कि डोनाल्ड ट्रंप की जीत विदेशों में कौन चाहता है। विश्लेषकों का कहना है कि मिस्र से लेकर सऊदी अरब तक के तानाशाह ट्रंप पर अपना दांव लगाए हुए हैं। इसकी वजह है कि ट्रंप की विदेश नीति में लोकतंत्र और मानवाधिकारों के लिए कोई जगह नहीं रही है। दरअसल, ट्रंप जिस तरह के नेताओं को पसंद करते हैं उनके कार्यकाल में मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले बढ़े हैं। खास कर ऐसा मिस्र और सऊदी अरब जैसे देशों में हुआ है। ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि मिस्र के अल-सीसी जैसे नेता यह देख कर बहुत खुश होते हैं कि अमेरिका जैसी वैश्विक महाशक्ति का नेतृत्व एक ऐसा राष्ट्रपति कर रहा है जो प्रेस पर खुले आम हमले बोलता है, मानवाधिकारों की अनदेखी करता है और पॉपुलिस्ट एजेंडा चलता है। अगर ट्रंप फिर से जीतते हैं तो ह्वाइट हाउस में मिस्र का समर्थक बना रहेगा।
ट्रंप से पहले राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2013 में मिस्र में हुए सत्तापलट की कोशिश के बाद मिस्र के लिए आर्थिक और सीधी सैन्य सहायता रोक दी थी। जबकि ट्रंप ने मदद को कहीं ज्यादा बढ़ा दिया है- ठीक ऐसे वक्त में जब मिस्र में राजनीतिक- सामाजिक कार्यकर्ताओं और आलोचकों को देश की सुरक्षा एजेंसियां लगातार निशाना बना रही हैं। बहरहाल, मिस्र एकलौता अरब देश नहीं है जिसे ह्वाइट हाउस में मौजूद ‘अमेरिकी मित्र’ से बेहिसाब समर्थन मिला है। सऊदी अरब से संबंधों के लिहाज से ट्रंप का शासनकाल ओबामा-काल से अलग रहा है। 2016 में राष्ट्रपति बनते ही ट्रंप ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए सऊदी अरब को चुना था। सऊदी अरब के र क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को ट्रंप से खुला सहयोग हासिल है। 2018 में अमेरिका में रहने वाले सऊदी मूल के पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या के सिलसिले में अमेरिका में उठी जांच की मांगों से ट्रंप प्रशासन ने क्राउन प्रिंस को खूब बचाया। जब बाकी सब यमन युद्ध में सऊदी अरब के युद्ध करने पर आपत्तियां उठा रहे थे, तब भी ट्रंप प्रशासन ने आगे बढ़ कर सऊदी के साथ आठ अरब डॉलर के हथियार बेचने का सौदा किया। ईरान के साथ हुए वैश्विक परमाणु समझौते से ट्रंप ने अमेरिका को बाहर निकाल लिया। इससे भी सऊदी अरब को खुशी हुई। तो जाहिर है, ऐसे तानाशाह ट्रंप की वापसी चाहते हैं।
तानाशाहों की उम्मीद-ट्रंप
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