बेबाक विचार

परिवारवाद या अवसर की असमानता?

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परिवारवाद या अवसर की असमानता?
भारतीय जनता पार्टी के सामने देश की वामपंथी पार्टियों की चुनौती नहीं है और न नई राजनीति शुरू करने के नाम पर दो राज्यों में सरकार बना चुकी आम आदमी पार्टी की है। भाजपा का मुकाबला कांग्रेस और ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों से है, जिनकी कमान ऐसे नेता के हाथ में है, जो अपने परिवार की दूसरी पीढ़ी के नेता है या अगर पहली पीढ़ी के नेता हैं तो उनकी दूसरी पीढ़ी सक्रिय हो गई है और उसका स्थान लेने को तैयार है। कांग्रेस और ऐसी पार्टियों को प्रधानमंत्री परिवारवादी बताते हैं और देश के लोगों से उनके प्रति नफरत का भाव पैदा करने की अपील कर रहे हैं। कांग्रेस के अलावा ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों में राष्ट्रीय जनता दल, डीएमके, जेएमएम, तृणमूल कांग्रेस, शिव सेना, अकाली दल, वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्र समिति आदि का नाम लिया जा सकता है। ये बड़ी पार्टियां हैं और इनमें से ज्यादातर ऐसी पार्टियां हैं, जिनको तमाम प्रयास के बावजूद भाजपा नहीं हरा पाई है। प्रधानमंत्री मोदी की दो-दो बार की चुनावी सुनामी में भी इनमें से ज्यादातर पार्टियां अपना अस्तित्व बचाए रखने में कामयाब रहीं और जाहिर है वह जनता के समर्थन से ही हुआ। तभी इनके प्रति नफरत का भाव पैदा करने की बात की जा रही है। परिवारवाद के खिलाफ बनाए जा रहे विमर्श का यह एक हिस्सा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आजादी के 75 साल पूरे होने के मौके पर लाल किले से अपने भाषण में कहा कि वे जब परिवारवाद की बात करते हैं तो इसे अनिवार्य रूप से राजनीति से जोड़ा जाता है लेकिन ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा कि देश की सारी संस्थाएं इस बुराई की चपेट में आ गई हैं। उन्होंने संस्थाओं का नाम लिए बना कहा- मैं देशवासियों से खुले मन से कहना चाहता हूं कि हिंदुस्तान की राजनीति, संस्थाओं के शुद्धिकरण के लिए हमें देश को इस परिवारवादी मानसिकता से मुक्ति दिला कर योग्यता के आधार पर देश को आगे ले जाने की ओर बढ़ना होगा। यह अनिवार्यता है वरना हर किसी का मन कुंठित रहता है कि मैं इसके लिए योग्य था लेकिन वहां मेरा कोई चाचा-नाना-पिता-नानी नहीं था को मैं नहीं पा सका। यह मनःस्थिति किसी भी देश के लिए अच्छी नहीं है। सुनने में यह बात बहुत अच्छी लग रही है। लेकिन सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी के आठ साल के शासन के बाद किस संस्था में चाचा-चाची-नाना-नानी या पिता की वजह से नियुक्ति हो रही है? क्या देश की सारी संस्थाएं प्रतिभा के दम पर नियुक्ति नहीं कर रही हैं? क्या संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी के जरिए होने वाली नियुक्तियां प्रतिभा के अलावा किसी अन्य योग्यता के आधार पर हो रही हैं? क्या सेना में या सेना के अनुसंधान से जुड़ी संस्थाओं में, इसरो में या एटॉमिक एनर्जी के क्षेत्र में या सार्वजनिक उपक्रमों में नियुक्ति का पैमाना वंशवाद है? क्या संस्थाओं, आयोगों आदि के प्रमुख वंशवाद के आधार पर नियुक्त हो रहे हैं? क्या विश्वविद्यालयों में नियुक्तियां परिवारवाद के आधार पर हो रही हैं? कहां ऐसा हो रहा है? क्या ऐसा नहीं है कि खुद मोदी सरकार रिटायर ‘बाबुओं’ को संस्थाओं में नियुक्त कर रही है? क्या मोदी सरकार सेवा विस्तार देकर चुनिंदा अधिकारियों के सहारे सरकार नहीं चला रही है? क्या इससे योग्य व प्रतिभावान अधिकारी कुंठित नहीं हो रहे होंगे? क्या मोदी सरकार ने लैटरल एंट्री से सीधे संयुक्त सचिव बनाना नहीं शुरू किया है और क्या उसमें नियुक्तियां सिर्फ प्रतिभा के दम पर हुई हैं? क्या विश्वविद्यालयों और तकनीक व प्रबंधन के अन्य शैक्षिक संस्थाओं में खास वैचारिक प्रतिबद्धता के दम पर नियुक्तियां नहीं हो रही हैं? असलियत यह है कि देश में अच्छी नौकरी और रोजगार के अवसर समाप्त हो रहे हैं। खुद सरकार ने संसद के पिछले सत्र में बताया कि पिछले आठ साल में केंद्र सरकार की नौकरियों के लिए 22 करोड़ लोगों ने आवेदन किया, जिसमें से सिर्फ 7.22 लाख लोगों को नौकरी मिली यानी 21 करोड़ 92 लाख 78 हजार नौजवानों को निराश होना पड़ा। क्या इससे उनके मन में कुंठा पैदा नहीं हो रही होगी? सेना में बहाली के लिए कई साल की तैयारियों के बाद जब वैकेंसी नहीं निकले तब युवाओं के मन में कुंठा पैदा होती है। लिखित और शारीरिक परीक्षा पास कर लेने के बाद भी सेना में नौकरी का नियुक्ति पत्र नहीं मिले तब कुंठा पैदा होती है। 14 साल की जगह बिना पेंशन के चार साल की नौकरी मिले तब कुंठा पैदा होती है। हर साल नौकरियों की संख्या घटती जाए तब कुंठा पैदा होती है। अच्छे संस्थान से पढ़ाई और ऊंची नौकरी करने वालों को सीधे भारत सरकार में संयुक्त सचिव बना दिया जाए तब कुंठा पैदा होती है। असल में अवसर की असमानता को ढकने के लिए उसके ऊपर परिवारवाद का आवरण डाला जा रहा है। परिवारवाद के कारण कुछ जगह हो सकता है कि कुछ लोगों की नियुक्ति हुई हो लेकिन उनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है, जबकि कुंठित नौजवानों की संख्या करोड़ों में है। अपने गढ़े गए विमर्श को स्थापित करने में प्रधानमंत्री इतना आगे बढ़ गए कि वे खेल-कूद को भी इसमें घसीट लाए। उन्होंने कहा- हमने देखा पिछले दिनों खेलों में। ऐसा तो नहीं था कि पहले देश में खेल प्रतिभाएं नहीं थीं। लेकिन सेलेक्शन भाई-भतीजावाद के आधार पर होता था। जब पारदर्शिता आई, सामर्थ्य का सम्मान होने लगा तो देखिए आज दुनिया में खेल के मैदान में तिरंगा लहराता है। सोचें, यह कितनी अधूरी बात है? सिर्फ पिछले दिनों हुए कॉमनवेल्थ गेम्स की बात करें तो भारत को 22 स्वर्ण के साथ 61 पदक मिले और भारत चौथे स्थान पर रहा। लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से चार साल पहले 2010 में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में भारत ने 39 स्वर्ण के साथ 101 पदक जीते थे और दूसरे स्थान पर रहा था। यहां तक कि उससे भी चार साल पहले 2006 में भी भारत को 22 स्वर्ण मिले थे, जितने इस साल मिले हैं। सोचें, जितने पदक भारत को पहले मिले थे, उतने ही या उससे कम मिले तो क्या तरक्की हुई? असल में अपने राजनीतिक लाभ के लिए प्रधानमंत्री ने जबरदस्ती खेलों को इसमें घसीट लिया। उनको शायद ध्यान नहीं है कि नीरज चोपड़ा से बहुत पहले ओलंपिक में भारत का पहला इंडिविजुएल गोल्ड मेडल अभिनव बिंद्रा को मिला था, जो जाने-माने खेल प्रशासक आईएस बिंद्रा के बेटे थे। वे शायद यह भी भूल गए कि महावीर फोगाट की तीन बेटियों और परिवार की दूसरी लड़कियों ने इस देश को पदक दिलाया है। वे यह भी भूल गए कि चंदगी राम और सतपाल की बेटियों और दामादों ने भारत के लिए पदक जीता है। वे यह भी भूल गए कि मेजर ध्यानचंद और उनके भाई मेजर रूप सिंह ने इस देश को ओलंपिक खेलों में हॉकी का गोल्ड दिलाया था। मेजर ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार ने भी हॉकी के खेल में भारत का मान बढ़ाया है। महान एथलीट मिल्खा सिंह के बेटे जीव मिल्खा सिंह ने भी खेलों में भारत का नाम ऊंचा किया है। जहां तक राजनीति का सवाल है तो वहां भी योग्य और प्रतिभाशाली लोगों का अवसर सिर्फ इसलिए नहीं मारा जा रहा है कि किसी एक परिवार का व्यक्ति लंबे समय तक शीर्ष पर बैठा है। अगर एक व्यक्ति 20-25 साल तक मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री रहता है तब भी योग्य लोगों का अवसर मारा जाता है। अगर एक व्यक्ति के 20-25 साल तक सीएम, पीएम रहने को इस आधार पर सही ठहराया जाएगा कि उस व्यक्ति के करिश्मे से पार्टी जीत रही है तो यह बात परिवारों पर भी लागू होगी। उनके करिश्मे से अगर पार्टी जीत रही है तभी तक वे शीर्ष पर हैं या उनकी पार्टी बची हुई है और तभी तक नेता-कार्यकर्ता उनके साथ जुड़े रहते हैं।
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