मौजूदा किसान आंदोलन को इस बात का श्रेय देना होगा कि उसके नेतृत्व ने कुछ अद्भुत राजनीतिक समझ दिखाई है। मसलन, पहले उसने अपने आक्रोश को महज सरकार तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन उद्योग घरानों की इस मामले में खुल कर चर्चा की, जिन्हें इन कानूनों से सीधा लाभ पहुंचेगा। इस तरह मौजूदा पोलिटकल इकॉनोमी की नब्ज पर उसने सीधे हाथ रखी। इसी तरह उसने न्यायपालिका की संवैधानिक भूमिका और आज के माहौल में उसकी बन गई भूमिका पर भी बड़ी स्पष्ट समझ दिखाई है। इसलिए कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र से जुड़े इस मसले पर न्यायपालिका की पनाह लेने से वह बचा। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का आगे आकर कृषि कानूनों के मामले में सक्रियता दिखाना अजीब सा लगा है। इसको लेकर पहले चर्चा चल रही थी। अब सुप्रीम कोर्ट कोर्ट ने इन कानूनों पर संवाद बनाने के लिए जो कमेटी बनाई है, उसने इससे जुड़ प्रश्नों को और गंभीर बना दिया है।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने तीनों नए कृषि कानूनों के अमल पर फिलहाल रोक लग दी है। इसके साथ ही तीनों कानूनों और उन्हें लेकर किसानों की मांगों की समीक्षा के लिए विशेषज्ञों की एक समिति बनाने का भी आदेश भी उसने दिया है। मगर समिति में शामिल किए गए सदस्यों के नाम और इस मामले में उनका रुख इतना चर्चित है कि इस समिति का विवादास्पद बन जाना अस्वाभाविक नहीं है। चीफ जस्टिस ने कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, भारतीय किसान यूनियन के एक धड़े के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान, साउथ एशिया इंटरनेशनल फूड पॉलिसी संस्था के निदेशक प्रमोद कुमार जोशी और शेतकारी संघठना के अनिल घनवत को समिति के सदस्यों के रूप में मनोनीत किया। किसान संगठनों अपने पहले के रुख की पुष्टि करते हुए इस कमेटी से संवाद करने से इनकार कर दिया है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप गतिरोध को अंत करने में कितना सहायक सिद्ध होगा। किसानों का कहना है कि उनकी मांग तीनों कानूनों को रद्द करने की है। सिर्फ रोक लगाए जाने से वे संतुष्ट नहीं हैं। गौरतलब है कि सुनवाई में किसानों की तरफ से शामिल होने वाले दुष्यंत दवे, कॉलिन गोंसाल्विस, एचएस फूल्का जैसे कई वकील मंगलवार की सुनवाई में शामिल भी नहीं हुए, जब कोर्ट ने समिति बनाने का एलान किया। तो कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप ने उम्मीद जगाने के बजाय खुद कोर्ट की भूमिका पर बहस खड़ी कर दी है।
सुप्रीम हस्तक्षेप के बावजूद
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