बेबाक विचार

‘उत्तम खेती’ होगी चाकरी में कन्वर्ट!

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‘उत्तम खेती’ होगी चाकरी में कन्वर्ट!
किसान बनाम मोदी-अडानी-अंबानी-4: किसान मौत का वारंट लटका बूझ रहा है तो मोदी सरकार किसानों के उड़ने की ‘एक नई आजादी’ के सपने में है। कौन सही-कौन गलत? पहले सरकार की दलीलों पर गौर करें। ‘कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020’  नाम के बिल में किसानों को मंडी से बाहर सीधे फसल बेचने की छूट है। इससे मार्केटिंग और ट्रांसपोर्टेशन खर्च घटेगा, इलेक्ट्रोनिक व्यापार का ढांचा मिलेगा। दूसरे बिल का नाम है- कृषक (सशक्‍तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्‍वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020। इससे किसान को कृषि व्यापार करने वाली फर्मों, प्रोसेसर्स, थोक व्यापारी, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं से करार याकि कांट्रेक्ट, दाम तय कर फसल पैदा कर बेचने का प्रोत्साहन-रास्ता है। दलील है कि अनुबंधित किसानों को कंपनियों से अच्छे बीज, तकनीकी मदद, फसल की देखरेख, कर्ज, फसल बीमा आदि की सहूलियत सुलभ होगी। किसान कंपनी के लिए खेती करेंगे और किसान दाम सहित चिंताओं से मुक्ति पाएगा। तीसरा कानून है- आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून 2020। इससे सरकार ने अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्‍याज और आलू जैसी पैदावार को आवश्‍यक वस्‍तुओं की सूची से हटा दिया है ताकि निजी कंपनियों को मनचाही तादाद में जिंस को गोदामों में रखने का, जमा करने का हक है। सरकार के अनुसार इससे कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ेगा याकि कोल्ड स्टोरेज और फूड सप्लाई चेन का आधुनिकीकरण होगा! कुल मिला कर सरकार कंपनियों के ठेके से किसानों की खेती चाहती है ताकि खेती का आधुनिकीकरण, बाजारीकरण, पूंजीकरण हो। किसान दाम आदि तय करा कर अंबानी-अडानी के लिए काम करें। उनको उनके टारगेट अनुसार पैदावर करके दें और बदले में तयशुदा दाम लें। मैं सुधारों का, खुले बाजार का समर्थक रहा हूं। मैं मानता हूं कि समाजवादी जुमलेबाजी के कानूनों में किसान लूटा गया है तो लूट की उस प्रक्रिया में अफसरों-नौकरशाही ने जनता का अथाह पैसा खाया। किसान साहूकारों, आढ़तियों, सरकारी कर्मचारियों से आजाद होना चाहिए। कृषि उपजों की लागत की एक न्यूनतम रेट रहे और उससे चाहे जो फसल खरीदे। देश में वह चाहे जहां बेचे और पेप्सी कंपनी हो या आईटीसी कंपनी उससे गेंहू खरीदे या आलू, टमाटर पैदा करके, अपना स्टॉक बनाए, प्रोसेस करे तो उसमें कोई गलत नहीं है। इस सबका पंजाब से ले कर मध्य प्रदेश के किसानों में पहले से अनुभव है। तो मोदी सरकार के तीन कानूनों से क्या हर्ज है? ये कैसे किसान के लिए मौत का वारंट हैं? वजह खेती को बंधुआई चाकरी-नौकरी की ओर धकेलते हुए कानूनी जकड़न बनाना है। किसान का साहूकारों, आढ़तियों, सरकारी कर्मचारियों से लूटा और ठगा जाना चिल्लर पैमाने का था, जबकि भविष्य में करार-कांट्रेक्ट के कानूनी दस्तावेजों से किसान बुंधआ बनेगा। नई व्यवस्था में यदि किसान व कंपनी में विवाद हुआ तो बतौर पंच तहसील में, एसडीएम के यहां, याकि सरकारी दफ्तर में फैसला होगा कि किसान सही है या अंबानी-अडानी सही? मोदी सरकार की हिम्मत देखिए कि पहले तो कानून बना कर खेती में कारपोरेट-अंबानी-अंडानी के लिए अवसर बनवाया और उस अवसर के साथ कानून में सुनिश्चित किया कि करार-कांट्रेक्ट में झगड़ा, विवाद हो तो सरकारी बाबू बतौर जज फैसला दे। नए कृषि कानून अनुसार न्याय व्यवस्था-याकि अदालत की जगह तहसील में एसडीएम फैसला करेंगे कि अंबानी-अडानी की कंपनी सही बोल रही है या किसान सही है। अपनी जगह यह बात है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट हो या किसी तहसील का एसडीएम ऑफिस सब जगह जब अडानी-अंबानी की ही चलनी है तो क्या फर्क पड़ता है कि विवाद को बाबू सुलटाए या जज। दिक्कत यह है कि किसान तहसील, सरकारी तंत्र के अनुभव ज्यादा लिए हुए है तो पंजाब के किसानों ने इस बात को ज्यादा पकड़ा कि अंबानी-अडानी की दादागिरी के आगे हम एसडीएम आफिस में भला कैसे जीत सकते हैं। हमें अपनी जमीन कंपनियों की दादागिरी में येन-केन प्रकारेण गंवानी पड़ेगी। यह बंधुआ-मोहताज बनाने, ठगने के सुधार है। जैसे पेप्सी कंपनी ने पहले किसानों से आलू, टमाटर पैदा कराने की बड़ी-बड़ी बातें करके भारत में धंधे की अनुमति ली लेकिन दो-तीन साल की शोशेबाजी के बाद उसने किसानों को नकारा बता फसल को खारिज करना शुरू किया तो किसान अपने को तब भी सच्चा और पेप्सी को झूठा साबित नहीं कर पाया था। अब नए कानून में तो सब कुछ कलमबद्ध (अंग्रेजी या हिंदी की क्लिष्ट कानूनी भाषा में जिनकी शर्तों-कायदों को पढ़े-लिखे भी समझ नहीं पाते) दस्तावेजों पर किसान से दस्तखत करवा कर खेती करवाई जाएगी तो उस दशा में किसान या किसान संगठनों की अंबानी-अडानी-कारपोरेट की वकील टीमों के आगे क्या औकात होगी? कह सकते हैं जरूरी नहीं है कि किसान अंबानी-अडानी से करार करके खेती करें? किसान अभी जैसे खेती कर रहा है वैसे स्वतंत्र करता रहे। ठीक बात है यह। लेकिन जब सरकार ने खेती को आजाद कर दिया है। मंडी व्यवस्था को खत्म करने, सभी फसलों पर न्यूनतम एमएसपी रेट और सरकारी खरीद की गारंटी नहीं का रोडमैप बना दिया तो किसान के लिए आगे विकल्प क्या होगा? अनाज की खुली आवाजाही, फसल खरीदने-गोदामों में संग्रहण के अधिकार की जमाखोरी और जिंस दामों को ऊपर-नीचे करने की ताकत जब अंबानी-अडानी-कारपोरेट वैधानिक तौर पर लिए हुए हो गए हैं तो किसान अंततः दो-चार साल के विरोध के बाद सेठों के लिए खेती करने, करार करने को क्या मजबूर नहीं होगा? इस बात को बारीकी से समझें कि ‘कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020’ और ‘कृषक (सशक्‍तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्‍वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020’ तथा ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून 2020’ के तीनों नए कानून उपज को सरकारी संरक्षण (एमएसपी, सरकारी खरीद, मंडियों) से मुक्त बना उसकी जगह प्राइवेट कारपोरेट क्षेत्र को फसल कीमत, उसके कांट्रेक्ट और फसल के भंडारण की वैधानिक गारंटी दिलाने वाले कानून हैं। जब ऐसा है तो अंबानी-अडानी को वह गारंटी मिल गई है कि कुछ सालों में वह ऐसा धंधा, ऐसा जाल बना लें कि सरकारी खरीद-एमएसपी रेट-मंडी अपने आप वैसी ही दुर्दशा में चले जाएगें जैसे सरकारी बीएसएनएल, सरकारी अस्पताल गए है। शुरुआत के सालों में हर तहसील-हर गांव में अंबानी की जियो डिजिटल मंडी में फटाफट पेमेंट, फटाफट फसल कलेक्शन का वैसा ही तानाबाना बनेगा जैसे जियो फोन के सस्ते-आकर्षक पैकेज से लोगों को दूसरी संचार कंपनियों से तोड़ कर अंबानी ने अपनी और आकर्षित किया था। ऐसे ही शुरू में झांसा, सब अच्छा मगर धीरे-धीरे वक्त के साथ सरकारी खरीद-मंडिया-एमएसपी सब बेमतलब। तब किसानों के आगे अंबानी-अडानी के दरवाजे जा कर करार करने की मजबूरी का आप्शन बचेगा। कंपनियां दो टूक अंदाज में किसानों से कहेगी कि जो कांट्रेक्ट खेती करेगा उसी से अनाज खरीदेंगे। वह तब ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किसानों से वैसे ही नील की खेती करवाना होगा जैसे बिहार के चंपारण में कभी हुआ करता था। तब जैसे जूट-कपास याकि कच्चा माल पैदा करवाने के बिजनेस प्लान में ईस्टइंडिया कंपनी के गोरों ने किसानों को बंधुआ बनाया वैसे अंबानी-अडानी वह काम करेंगे । खेती कारपोरेट मुनाफे के हिसाब में होगी। सोचे अंबानी-अडानी खेती के सपने में सन् 2013 में भी पेप्सी कंपनी की तरह कांट्रेक्ट खेती कर सकते थे। इन्होंने छिटपुट इधर-उधर की भी है लेकिन कारपोरेट मिशन, फोकस में सुधारों का ये इंतजार क्यों करते रहे? इसलिए ताकि किसानों को बांधने-फुसलाने वाले चाक-चौबंद वैधानिक कानून पहले बने। जमाखोरी व दामों को ऊपर-नीचे कराना वैधानिक सुरक्षा से हो। किसान से अनुबंधित नौकरी-चाकरी कराने का पहले कानून बन जाए। कोई कह सकता है कि इसमें बुरा क्या है? जब पैसा अच्छा तो नौकरी-चाकरी में क्या हर्ज? एक कारण हिंदू मनोविज्ञान का भी है। सोचें जमीन के प्रति हमारे यहां क्यों अधिक मोह है? इसलिए कि उससे सुरक्षा, स्वतंत्रता बनती है। फसल भले जैसे तैसे जीवन गुजरने की पैदा होती हो लेकिन भारत का गांव, और गांव का समाज सदियों से इस मनोभाव में जीवन जीता आया है कि ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान!’ हां खेती में किसान को जमीन के स्वामित्व से मनमर्जी, स्वतंत्रता का क्योंकि भान, सुख होता है तो उससे वह सहज जीवन जीते हुए होता है। शायद यह भी वजह है जो किसान की गांव जीवन की सहजता, संतोष उसके मनोभाव में खुद्दारी, स्वतंत्रता, बहादुरी बनती है। तभी दुनिया के दूसरे देशों से भी प्रमाणित है कि किसान के बेटे फौज में भरे होते हैं और यह भारत का भी सत्य है। उस नाते किसान की स्वतंत्रता, उसका संतोष राष्ट्र-राज्य, कौम के अस्तित्व के लिए एक अनिवार्यता है। तभी समझदार कौम, देश (जैसे अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया) उसे धंधे, चाकरी व भीख में नहीं ढालते। सरकारे खाते में सीधे भले खूब सब्सिडी पहुंचा दें लेकिन किसानी अपने आप में आजाद। जबकि भारत के समाजवादियों, प्रगतिशीलों की गलती थी जो आजादी के बाद किसानों को माई-बाप सरकार का सरंक्षित बनाया। जमीन किसान की स्वतंत्रता का खूटा है। उसकी स्वतंत्र खेती ही सामंती प्रथा, गुलामी, शोषण, साहूकारी से आजादी है। कंपनियों (ईस्टइंडिया कंपनी से अडानी-अंबानी की कॉरपोरेट दुनिया) के यहां जमीन को गिरवी या करार में बांधना किसान के लिए जमीन का स्वामित्व-स्वतंत्रता गंवाना इसलिए है क्योंकि वह फिर हमेशा चाकरी की चिंता में रहेगा। फिलहाल जमीन के मालिकाना से वह सेठ, जमींदार सा जीवन जीता हुआ है। कृषि सुधारों के बाद उसकी जमीन पर कंपनी की मनमानी होगी। कंपनी जमीन पर ट्यूबवैल, सिंचाई, गोदाम का इंफ्रास्ट्रक्चर बनाए या पूंजीगत निवेश करें तो किसान मन में दस तरह की चिंताएं लिए हुए होगा। वह भूस्वामी तब बंधुआ-चाकर के नाते चिंता में या तो घूलता रहेगा या कॉरपोरेट को जमीन बेच जंजाल से मुक्ति पाएगां। भारत की साठ प्रतिशत खेतीहर आबादी बीस-तीस सालों में या तो जमीन को कॉरपोरेट के सुपुर्द कर महानगरों में मजूदरी करने पहुंचेगा या पंजाब का किसान भी बिहार के खेतीहर मजूदरों की तरह अंबानी-अड़ानी के मजदूर होंगे। सो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दरबारी सेठों, अंबानी-अडानी आदि से किसानों को चाकर बनवाने का राष्ट्र मिशन बना हिंदू दर्शन की सर्वकालिक कहावत ‘उत्तम खेती’ को कारपोरेट धंधे की चाकरी में कन्वर्ट कराने का संकल्प लिया हैं। किसान को मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान की और धकेल दिया है। वह भी इस दलील पर कि इससे किसानों में एक नई आजादी बनेगी!  कोई पूछे कि कारपोरेट, कंपनियों की ठेकेदारी करना आजादी होगी या गुलामी? वह ‘उत्तम खेती’ वाली आजादी की उड़ान होगी या सेठ की चाकरी? तभी सोचें भारत में सुधार व पूंजीवाद भी भ्रष्टता, मूर्खता और बरबादी के कैसे विकृत रूप में हैं!
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