इन दिनों पूरी दुनिया की निगाहें 55 लाख की जनसंख्या वाले फिनलैंड पर हैं। यह यूरोपीय देश हाल में नाटो में शामिल हुआ है। कई दशकों से तटस्थता की नीति पर चलने वाले फिनलैंड का नाटों में शामिल होने का फैसला मामूली नहीं है। दरअसलरूस के यूक्रेन पर हमले से वैश्विक समीकरणों में जो उथलपुथल हैं उसका यह परिणाम है।
फिनलैंड सदियों से अपने हितों के साथ-साथ अपने भीमकाय पड़ोसी – पहले जार-शासित रूस, उसके बाद सोवियत संघ और अब व्लादिमिर पुतिन के रूस – का भी ख्याल रखने पर मजबूर रहा है। शीत युद्ध के काल में सोवियत संघ ने फ़िनलैंड और स्वीडन दोनों पर एक समझौता लाद दिया था, जिसे ‘फिनलेंडीजेशन’ कहा जाता था। तटस्थता के इस मॉडल के अंतर्गत दोनों देशों को अपनी-अपनी घरेलू नीति एवं आर्थिक प्रणाली लागू करने की स्वतंत्रता थी जब तक कि वह सोवियत संघ के खिलाफ न हो। पिछले वर्ष जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तब भी फिनलैंड ने समझदारी से चुप्पी साधे रखी और ‘तटस्थता’ की अपनी नीति पर वह टिका रहा।
लेकिन फ़िनलैंड की जनता हमेशा से इस मॉडल के खिलाफ थी। और जब यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद देश की सुरक्षा सुनिश्चित करने और इसके लिए नाटो में शामिल होने का मुद्दा राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आया तो फिनलैंड की राष्ट्रीय ब्राडकास्टिंग एजेंसी वायएलई के सर्वेक्षण में चौकाने वाला नतीजा था। जहाँ सन् 2018 में केवल एक-तिहाई नागरिक फिनलैंड के नाटो में शामिल होने के हामी थे वहीं सन् 2022 में ऐसे लोगों का प्रतिशत लगभग 80 हो गया।
पिछले साल मई में फिनलैंड और स्वीडन दोनों ने नाटो में शामिल होने के लिए एक ही दिन आवेदन दिया था। उन्हें उम्मीद थी कि दोनों आवेदन एक साथ स्वीकार होंगे। परन्तु तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब इरदुगान के विरोध के चलते ऐसा नहीं हो सका। फिर पिछले माह फिनलैंड के राष्ट्रपति सौली नीनिस्टो, इरदुगान से मिले, जिसके बाद फिनलैंड को स्वीडन के बिना ही नाटो में शामिल कर लिया गया।
इस घटनाक्रम भू-राजनैतिक निहितार्थ क्या हैं?
फ़िनलैंड को अब नाटो के सदस्य होने के सभी फायदे मिलेंगे। नाटो के अनुच्छेद 5 के अंतर्गत अब फ़िनलैंड पर बाहरी हमले के स्थिति में गठंधन के अन्य सदस्य देश उसकी रक्षा में आगे आएंगे। इससे पुतिन की नव-साम्राज्यवादी योजना पटरी से उतर सकती है। फ़िनलैंड के नाटो का 31वां सदस्य बनने पर रूस की प्रतिक्रिया रोषपूर्ण थी और उसने जवाबी कार्यवाही करने की धमकी दी। क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने मंगलवार को कहा कि फ़िनलैंड को सदस्यता देने का नाटो का निर्णय “रूस की सुरक्षा और उसके राष्ट्रीय हितों पर हमला है।” उन्होंने यह भी कहा कि फ़िनलैंड में नाटो के सैन्यबलों की तैनाती पर मास्को की नज़र रहेगी।
पिछले कुछ वर्षों में फिनलैंड ने एक विशाल, सुप्रशिक्षित सेना तैयार कर ली है। इस सेना को किसी भी स्थिति से निपटने के लिए तैयार रखा जाता है। फ़िनलैंड अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत सेना पर खर्च करता है और सैन्य सेवा वहां अनिवार्य है। फ़िनलैंड के कुल रिज़र्व सैनिकों की संख्या लगभग 9 लाख है। जाहिर है कि ये सैनिक, नार्डिक क्षेत्र में नाटो को उपलब्ध सैन्यबल में वृद्धि करेंगे। नाटो देशों और रूस के बीच सीमा की लम्बाई और आकार पहले से दोगुना हो गया है। स्वीडन के नाटो की सदस्यता लेने के बाद, बाल्टिक सागर, नाटो का ‘अपना तालाब’ बन जायेगा, जिससे गठबंधन के लिए बाल्टिक क्षेत्र का सैन्यीकरण करना आसान हो जायेगा।
परन्तु क्या स्वीडन, नाटो में प्रवेश पा सकेगा। नाटो के सदस्य देशों की मंशा है कि जुलाई में गठबंधन की लिथुआनिया में आयोजित शिखर बैठक के पूर्व स्वीडन नाटो का सदस्य बन जाए। परन्तु ऐसा हो सकेगा या नहीं यह काफी हद तक इरदुगान पर निर्भर करेगा। इरदुगान का कहना है कि वे स्वीडन के प्रवेश को तब तक हरी झंडी नहीं दिखाएंगे जब तक कि वह वहां सक्रिय कुर्द समूहों के खिलाफ कार्यवाही नहीं करता और कुरान की प्रतियाँ जलाने जैसी इस्लाम-विरोधी हरकतों पर रोक नहीं लगाता। सम्भावना यही है कि इरदुगान स्वीडन के प्रवेश में अड़ंगा लगाते रहेंगे। इरदुगान को मई में चुनाव का सामना करना है और वे इसका इस्तेमाल उनके देश में उनकी छवि को चमकाने और अपने आपको एक मज़बूत नेता के रूप में प्रस्तुत करने के लिए करना चाहेंगे।
कुछ छोटे देश इस दुविधा में हैं कि दुनिया में उभर रही नई खेमेबाज़ी – पश्चिम और अन्य बनाम रूस और चीन – में से वे किस तरफ जाएँ। जाहिर है कि उन्हें अभी और इंतज़ार करना होगा। जॉर्जिया और यूक्रेन भी नाटो का हिस्सा बनने के लिए आतुर हैं परन्तु उनकी राह में कई बाधाएं हैं। स्विट्ज़रलैंड सहित कुछ अन्य देश, दो खेमों में तेजी से बंट रही दुनिया में गुटनिरपेक्षता की नीति की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठा रहे हैं। पूर्वी यूरोप के ‘नाटोफिकेशन’ को जाने-अनजाने पुतिन ने ही गति दी है। इसका नतीजा यह है कि रूस के पड़ोसियों पर उसका खौफ कम हो जायेगा।
जहाँ तक दुनिया का सवाल है, खाईयां गहरी हो रही हैं और अमरीका, उसके मित्र देशों और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के रूल्स-बेस्ड इंटरनेशनल आर्डर (द्वितीय विश्वयुद्द के बाद लागू की गई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था जो बहुदेशीय संस्थाओं और कुछ सिद्धांतों पर आधारित है) को नित नई चुनौतियाँ मिल रही हैं। शक्ति के क्षेत्रीय केंद्र उभर रहे हैं। ग्लोबल गवर्नेंस के लिए ये अच्छे दिन नहीं हैं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)