बेबाक विचार

बाइडेन में है दम, मोदी सुधरें और लपकें मौका

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बाइडेन में है दम, मोदी सुधरें और लपकें मौका
यह शीर्षक अपने डॉ. वेदप्रताप वैदिक की थीसिस के विपरीत है। वैदिकजी भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया केक्वाड यानी‘क्वाड्रीलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग’ अर्थात चीन विरोधी मोर्चे परइस अखबार में लिख चुके हैं कि भारत क्यों किसी का मोहरा बने? हम अमेरिका की खातिर चीन से दुश्मनी नहीं बांधेंगे।अपनी राय में यह रियलिटी को नकारती, भविष्य को असुरक्षित और 138 करोड़ लोगों के देश और हिंदू सभ्यता को कुंद, मंद, भयाकुल, असुरक्षित बनवाए रखने वाली थीसिस है। सवाल है भारत का चीन बड़ा दुश्मन है या अमेरिका का?  अमेरिका के लिए चीन बड़ा खतरा है या भारत के लिए? तो बतौर नंबर एक तथ्य जान लें कि चीन और पाकिस्तान वे दो देश हैं, जिनसे भारत को सभ्यतागत, इतिहासजन्य, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिकी के सभी पहलूओं में स्थायी लड़ाई झेलनी है।हां, आर्यावर्त या हम भाई-भाई का पाखंड आत्मघाती है। चीन और पाकिस्तान से भाईचारा, दोस्ती तो दूर सामान्य रिश्ते भी नहीं रह सकते। भारत के अस्तित्व पर स्थायी राहु-केतु उसका भूगोल है, जिससे लड़ सकना भारत के अकेले बस में इसलिए नहीं है क्योंकि ये दोनों दुश्मन देश सभ्यतागत संघर्ष में वे वैश्विक झंडाबरदार हैं, जिसके आगे हिंदू बहुल भारत अपने को सुरक्षित नहीं रख सकता। भारत को पश्चिमी सभ्यता, ईसाई-यहूदी धुरी के लोकतांत्रिक देशों से सुरक्षा ढाल, सुरक्षा छाता लेना होगा। भविष्य के अंदरूनी और बाहरी सुरक्षा दोनों के सिनेरियो में उसे पश्चिमी-लिबरल देशों का भरोसा-समर्थन चाहिए। यही भविष्य का सर्वकालिक सत्य है, जिसकी भारत ने यदि अनदेखी की, किंतु, परंतु की दुविधा, झूठी शान-मुगालतों में टाइमपास किया तो भविष्य भयावह असुरक्षित बनेगा। नंबर दो। हमेशा नोट रखें भारत और भारत के हिंदू हजार साल के गुलाम, भयाकुल जीवन से इस्लाम और चीन की हॉन सभ्यता के कट्टरवाद, जुनूनी-अनुशासित महत्वाकांक्षा से मुकाबला नहीं कर सकते। पाकिस्तान-चीन का साझा जितना घना होगा और भारत यदि अकेले दोनों से लड़ सकने के मुगालतों में रहा तो वहीं होगा जो खैबर पार से इतिहास में होता रहा है। इतिहास से ज्यादा भविष्य हिमालय पार का चीनी खतरा लिए हुए है। अरूणाचल से लेकर लद्दाख के नए रास्ते खुले हुए हैं। नंबर तीन! अमेरिका, पश्चिमी देश याकि ईसाई-यहूदी सभ्यता और उदार-लोकतांत्रिक आदर्शों-मानवीय मूल्यों, इंसानी गरिमा को महत्व देते हुए पृथ्वी पर जितने भी देश और कौम हैं उनके साथ हिंदू धर्म-संस्कृति का उदारवाद, जीवन जीने का तरीका राम मिलाई जोड़ी है। हिंदू अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, जापान, यूरोपीय देशों की खुली हवा, आजादी में जैसे ‘अद्भुत’ बनता है, नासा में कंधे से कंधा मिलाकरजैसा कमाल दिखाता है, बाइडेन प्रशासन में जैसा योगदान है वैसा रूस, चीन, सऊदी अरब याकि तानाशाह, बर्बर मिजाजी लोगों के बीच में हिंदू खुल-खिल नहीं सकता है। यह हकीकत स्थायी तौर पर अब राष्ट्र-राज्य, कौम की रीति-नीति में मूल मंत्र की तरह प्रतिस्थापित होनी चाहिए। नंबर चार तथ्य। अमेरिका और ब्रिटेन में भारत की आजादी के वक्त से ही चाहना थी कि लोकतांत्रिक भारत सफलता-सुरक्षा की मिसाल बने। लेकिन नेहरू-इंदिरा से लेकर नरेंद्र मोदी तक की यह गलती स्थायी है जो गरीब-कंगली तीसरी दुनिया की नेतागिरी में निर्गुट आंदोलन, समाजवाद-साम्यवाद की रूमानियत और तटस्थ-बैलेंस की खामोख्याली में भारत ने सोवियत संघ से दोस्ती में अपने को तब भी भटकाए रखा और अब भी नरेंद्र मोदी रूस से मिसाइल खरीदते हुए पश्चिमी जमात में शक-संदेह-निराशा बनवाए हुए हैं। नंबर पांच तथ्य। जाहिर है चीन, पाकिस्तान से अपने बूते न स्थायी सुरक्षा संभव है और न रूस के कबाड़ हथियारों, तानाशाह शासकों से दोस्ती मेंभारत का भला होना है या इनसे दोस्ती का विशेष मतलब है। नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग की जितनी लल्लोचप्पो की और पुतिन को जितना भी पटाया उससे कभी संजीदगी से यह जाहिर नहीं हुआ कि इनकी धंधे के अलावा भारत से कोई रागात्मकता है। सबसे बड़ी बात अमेरिका में हथियार, सैनिक-खुफियाई क्षमताओं का जो तकनीकी कौशल है उससे रूस, चीन कभी पार पा नहीं सकते। तो नाता- एलायंस नंबर एकअमेरिकी देश से होना चाहिए न कि नकल करके या कॉपीराइट चुरा कर हथियार बनाने वालों से! नंबर छह तथ्य। अमेरिका की दोनों पार्टियां, बुश हों या ओबामा या डोनाल्ड ट्रंप या बाइडेन सब भारत पक्षधर थे और हैं।पिछले ही सप्ताह लंदन की ‘द इकॉनोमिस्ट’ पत्रिका ने याद कराया कि जब रिपब्लिकन पार्टी के जार्ज डब्लु बुश राष्ट्रपति थे तबबाइडेन वैश्विक संबंधों की सीनेट कमेटी के अध्यक्ष थे। उनका तब‘सपना’ था कि सन् 2020 में दुनिया के दो सर्वाधिक परस्पर करीबी देश भारत और अमेरिका होंगे। सोचें,रिपब्लिकन राष्ट्रपति बुश तब भारत के एटमी छूआछूत को खत्म कराने की कोशिश में थे। गनीमत थी जो डॉ. मनमोहनसिंह तब प्रधानमंत्री थे। उन्होंने अपनी लेफ्ट समर्थक सरकार को दांव पर लगा कर अमेरिका से साथ एटमी करार किया। वह शुरुआत थी अमेरिका से भारत के सामरिक रिश्तों का रास्ता खुलने की। चीन के भविष्य में खतरे के आगे भारत को साझेदार बनाने की। सो, बुश से बाइडेन तक याकि अमेरिका पूरी संजीदगी, गंभीरता, दीर्धकालीन रणनीति में भारत से सामरिक रिश्ते चाहता है। क्यों? इसलिए कि इस पृथ्वी पर लोकतंत्र का, उदारवाद का सबसे बड़ा प्रयोगकर्ता है भारत। ठीक विपरीत चीन, रूस इस पृथ्वी पर तानाशाही, इंसान को गुलामी में रख कर जीने के रोल मॉडल हैं। मतलब पूंजीवाद की सफलताओं से खिली-बनी पश्चिमी सभ्यता, अमेरिका-यूरोप के देशों के लिए भारत वह उदाहरण है, जिससे शेष दुनिया की गरीब, कई तरह की जंजीरों, पिंजरों में रहने वाली आबादी को बताया जा सके, समझाया जा सके कि भारत में लोग भले गरीब हों लेकिन वे मानवीय, इंसानी आजादी, संस्कारों के साथ खाते-पीते-संपन्न होते हुए हैं तो मानवता के लिए चीन आदर्श या भारत? निश्चित ही अमेरिका, यूरोपीय देशों, जापान, ऑस्ट्रेलिया के लिए 138 करोड़ लोगों का बाजार, पढ़ी-लिखी श्रमशक्ति जैसे कारणों का अलग महत्व है। अन्य शब्दों में भारत और पश्चिमी सभ्यता असंख्य वास्तविकताओं से राम-मिलाई जोड़ी है! लेकिन भारत राष्ट्र-राज्य के नेताओं और अपने डॉ. वैदिक जैसे विचारकों की निर्गुटकालीन रूमानियत ने संकोच, डर, घबराहट बनवाए रखी है। जैसे अरबपति के साथ खड़ा सामान्य करोबारी सपना भले अरबपति बनने का देखे लेकिन वह हीन भावना, चिंता में करार करने, साझेदार बनने से घबराता है, सोचता है कि कहीं बड़ा आदमी खा न जाए। उसके धंधे को न निगल ले वैसे ही भारत डरा रहा। अपना आत्मविश्वास नहीं बना पाया।ऐसा चालीस साल पहले अमेरिकी पूंजी से साझेदारी बनाते हुए चीनियों का व्यवहार नहीं था। चीन ने मौका लपका और पश्चिमी सभ्यता के ज्ञान-विज्ञान से अपने को आर्थिक महाशक्ति बना लिया। लेकिन कुंद,मंद, गुलाम हिंदू मनोविज्ञान में न हिम्मत थी, न यह साहस जो अमेरिकी-जर्मनी- जापान की कंपनियों का सैलाब बनवा कर संकल्प सोचा कि उसे यदि विश्व का निर्यातक बनना है तो हाकिमशाही, लालफीताशाही, क्रोनी पूंजीवाद, भ्रष्टाचार को खत्म कर देशी-विदेशी उद्यमी को वह हर आजादी दी जाए, जिससे उत्पादकता, कंपीटिशन बनता हैऔर असली पूंजीवाद खिलता है। सचमुच भारत न बुश, ओबामा के वक्त समझदार था और न मोदी के मौजूदा राज में है। हालांकि नरेंद्र मोदी के वक्त में बुश के समय ही आए एक प्रस्ताव मतलब सैनिक-खुफियाई साझेदारी के महत्व का एक करार हुआ है। उसी की बदौलत के इस तथ्य को नोट रखें कि हाल के महीनों में भारत-चीन सीमा पर सैनिकों का जो आमना-सामना हुआ तो उसमें भारत को अमेरिकी सेटेलाइटों की खुफियागिरी सेचीनी मूवमेंट की जानकारी लगातार मिली रही। यही नहीं अमेरिका ने भारतीय सैनिकों को बर्फीले मौसम की पोशाकें भी दीं। हां, दिल्ली में अमेरिकी रक्षा मंत्री ऑस्टिन ने यदि कहा है कि अमेरिका जानता था चीन और भारत में लड़ाई नहीं होगी तो वजह पेंटागन द्वारा सीमा की इंच-इंच पर निगरानी रही होगी। वह भारत को भी उपलब्ध होती रही और चीन डरता रहा होगा कि अमेरिका की नजरें हैं और वह भारत के साथ है! इसके संकेत देते हुए ‘द इकॉनोमिस्ट’ का पिछले सप्ताह सचमुच यह विश्लेषण था कि अमेरिका इतना मेहरबान कम ही सहयोगियों पर रहा है! जब ऐसा है तो चीन को रोकने के लिए अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत के चौगुट को क्यों न एशियाई नाटो सैनिक संधि में कन्वर्ट कर लेना चाहिए! यह न केवल भारत के हित में होगा, बल्कि चीन को रोकने का स्थायी बंदोबस्त बनेगा। और चीन पर यदि चेकमेट लगता है तो पाकिस्तान भी फिर हिम्मत नहीं करेगा कश्मीर पर जंग करने की! लेकिन इस सबमें नई दिक्कत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अंदरूनी राजनीति, अलोकतांत्रिक हरकतों व लोकतंत्र को आंशिक लोकतंत्र बनवा देने की है। मोदी की हिंदूशाही आज अमेरिका सहित पूरी लिबरल दुनिया में कलंकित है। विश्व जब चीन के शिनझिंयांग प्रांत में अल्पसंख्यक समूहों के खिलाफ नरसंहार और मानवता के विरुद्ध अपराध की रूदाली लिए हुए है तो बाइडेन प्रशासन, ब्रिटेन की बोरिस सरकार अपनी संसद, वैश्विक रपटों की इस पुकार को कैसे अनसुना कर सकते हैं कि मोदी सरकार तानाशाह है! चीन के शी जिनफिंग की तरह यदि नरेंद्र मोदी भी तानाशाह करार दिए जाते रहे तो अमेरिकी रक्षा मंत्री को भी भारत आकर मंत्रियों से कहना होगा कि भारत अपना मानवाधिकार रिकार्ड सुधारे, वह पुरानी प्रेस-मीडिया आजादी, एनजीओ और संस्थाओं की सच्ची लोकतांत्रिक व्यवस्था लौटे। नरेंद्र मोदी इस सलाह को कैसे लेंगे?वे भड़केंगे या समझेंगे?वे अपने राज का ट्रैक रिकार्ड सुधारेंगे या पुतिन और शी जिनफिंग के गले लगेंगे? यदि ऐसा किया तो भारत और मोदी सरकार कई मुश्किलों में फसेंगी। क्यों? इसलिए कि राष्ट्रपति बाइडेन ने दो महीनों में दुनिया को जतला दिया है कि उनका राज लोकतंत्र, मानवाधिकारों को बढ़वाने का मिशन लिए हुए है। उन्होंने रूस के पुतिन को सार्वजनिक तौर पर हत्यारा बताया। उनके राजदूत ने संयुक्त राष्ट्र में, विदेश मंत्री ने अलास्का में सार्वजनिक तौर पर चीन को लताडा है। संयुक्त राष्ट्र मेंअमेरिकी राजदूत का कहना था- चीनी सरकार ने शिनझियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के खिलाफ नरसंहार और मानवता के विरुद्ध अपराध किए हैं। फिर अलास्का में हुई आमने-सामने की बैठक में अमेरिकी विदेश मंत्री टोनी ब्लिंकेन ने आला चीनी राजनयिकों से सख्त शब्दों में कहा कि बीजिंग की हरकतों से कानून आधारित व्यवस्था और वैश्विक स्थिरता के लिए खतरा पैदा हो गया है। जवाब में चीनी राष्ट्रपति के खास, पोलितब्यूरो सदस्य यांग जीची ने कहा अमेरिका चीन के अंदरूनी मामलों में दखल कर रहा है, अश्वेत अमेरिकियों की हत्याएं कर रहा है। जाहिर है अमेरिका में दोनों पार्टियों, उसके नीति-निर्धारकों, संसद और जनमानस ने चीन के खिलाफ वैसी ही ठान ली गई है, जैसे शीतयुद्ध काल में सोवियत संघ के खिलाफ ठानी थी।तो यह भारत के लिए मौका है या नहीं?मौका है बशर्ते मोदी की गंवार हिंदूशाही समझे और अपने को मानवीय, लोकतांत्रिक, उदार, समझदार बनाए। दुनिया में भारत के लोकतंत्र की गिरती इमेज को मोदी दुरूस्त करें। अन्यथा बाइडेन के चाहते हुए भी, लिबरल देशों की रणनीति के बावजूद भारत न निवेश-विकास में चीन का विकल्प बनेगा और न पाकिस्तान-चीन के खतरों से वह स्थायी तौर पर सुरक्षित होगा।
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