बेबाक विचार

भाजपा के लिए चुनाव है मुश्किल

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भाजपा के लिए चुनाव है मुश्किल
वैसे तो चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में पंजाब छोड़ कर बाकी चार राज्यों में भाजपा की बढ़त बताई जा रही है और आसानी से उसकी सरकार बन जाने की भविष्यवाणी है। जिन चार राज्यों में उसकी सरकार है वहां उसकी वापसी बहुत आसान मानी जा रही है। लेकिन असल में ऐसा नहीं है। असल में सभी पांच राज्यों में भाजपा के लिए बहुत मुश्किल चुनाव है। उसके सामने चार राज्यों में अपनी सरकार बचाने की चुनौती है तो पंजाब में पहली बार अकाली दल से अलग होकर लड़ रही भाजपा के सामने खाता खोलने की चुनौती है। अलग अलग कारणों से पांचों राज्यों में भाजपा के लिए जमीनी हालात अनुकूल नहीं दिख रहे हैं। five state assembly election 10 फरवरी को पहले चरण के मतदान से पहले के एक महीने में भाजपा इन राज्यों में जमीनी हालात सुधारने के लिए क्या करती है, किस डिग्री तक ध्रुवीकरण की राजनीति होती है और अंदरूनी कलह पर काबू पाने के लिए क्या किया जाता है उससे चुनाव की तस्वीर साफ होगी। लेकिन अभी के हालात पांचों राज्यों में भाजपा के लिए चुनौती वाले हैं। पंजाब- भाजपा ने बहुत अनुकूल स्थितियों में चुनाव अभियान शुरू किया था। कांग्रेस छोड़ कर कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने अलग पार्टी बनाई और भाजपा के साथ तालमेल किया। केंद्र सरकार ने अपनी जिद छोड़ कर तीनों विवादित कृषि कानूनों को वापस लिया। किसान घर लौटे तो ऐसा लगा कि उनके मन में केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कटुता कम होगी। लेकिन हाल के घटनाक्रम के बाद ऐसा लग रहा है कि किसानों के मन में कटुता कम होने की बजाय बढ़ गई है। प्रधानमंत्री के पंजाब दौरे में सुरक्षा चूक एक अलग विषय है लेकिन यह हकीकत अपनी जगह है कि प्रधानमंत्री की फिरोजपुर में प्रस्तावित सभा में 70 हजार कुर्सियां लगी थीं और राज्य के प्रतिष्ठित अखबार ‘द ट्रिब्यून’ के मुताबिक पांच हजार लोग पहुंचे थे। उनकी यात्रा के दिन किसानों ने अनेक जगह प्रदर्शन किया और उनके प्रदर्शन की वजह से ही प्रधानमंत्री रैली की जगह तक नहीं पहुंच पाए। प्रधानमंत्री ने इस पर राजनीति करने की कोशिश की लेकिन इतनी भी राजनीतिक समझदारी नहीं दिखाई गई कि प्रधानमंत्री बारिश के बीच भी फिरोजपुर में जमा हुए अपने पांच हजार समर्थकों को मोबाइल फोन के जरिए ही संबोधित कर दें, जैसा वे पहले कुछ मौकों पर कर चुके हैं। सो, सरकार बनाने में भूमिका तो छोड़िए पिछली बार जीती तीन सीटें बचाने की बड़ी चुनौती भाजपा के सामने है। उत्तराखंड- प्रदेश में भाजपा अंदरूनी कलह का शिकार है। कांग्रेस ने निश्चित रूप से देर से अपना चुनाव अभियान शुरू किया और हरीश रावत को कमान अपने हाथ में लेने के लिए तेवर दिखाने पड़े। लेकिन पांच साल सरकार में रहते हुए भाजपा ने कामकाज से या राजनीतिक गतिविधियों से अपने लिए सद्भाव नहीं बनाया। उलटे तीन मुख्यमंत्री बना कर भाजपा ने पार्टी को अलग अलग खेमों में बांट दिया। अब स्थिति यह है कि राज्य में पार्टी के पास एक मुख्यमंत्री और पांच पूर्व मुख्यमंत्री हैं और सबके अपने खेमे हैं। भगत सिंह कोश्यारी प्रदेश से दूर हैं और भुवन चंद्र खंडूरी भी राजनीति में ज्यादा सक्रिय नहीं हैं लेकिन रमेश पोखरियाल निशंक, त्रिवेंद्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत पूरी तरह से सक्रिय हैं। इनके सामने दूसरी बार के विधायक पुष्कर सिंह धामी का न कद बड़ा है और न अपील बड़ी है। ऊपर से कांग्रेस छोड़ कर गए दलित नेता यशपाल आर्य का पूरा कुनबा कांग्रेस में लौट गया है और हरक सिंह रावत पार्टी को तेवर दिखा रहे हैं। कुल मिला कर पूरा चुनाव नरेंद्र मोदी के करिश्मे और केंद्र सरकार की ओर से घोषित की गई बड़ी परियोजनाओं के भरोसे है। उत्तर प्रदेश- चूंकि यह प्रदेश केंद्र में सरकार बनाने का गेट-वे है इसलिए यह सबसे अहम है। भाजपा की मुश्किल यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और व्यापक रूप से किसान समाज नाराज है तो पूरब के ब्राह्मण भी बेहद गुस्से में हैं। प्रदेश की सबसे बड़ी जाति होने और लगभग पूरी तरह से भाजपा का साथ देने के बावजूद ब्राह्मण का राजनीतिक महत्व कम हुआ है। ब्राह्मण संगठनों के मुताबिक यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि पुलिस की ज्यादती का ज्यादा शिकार दाढ़ी-टोपी वाले हुए हैं या चोटी वाले! पिछले चुनाव में भाजपा एक तरह से नरेंद्र मोदी और प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य के चेहरे पर लड़ी थी और इन दोनों के चेहरों ने पिछड़े मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में एकजुट किया था। उसके बाद योगी आदित्यनाथ इस खास मकसद से मुख्यमंत्री बनाए गए थे कि अपने भगवा पहनावे और गोरखनाथ पीठ के महंत की हैसियत से वे हिंदू समाज को एकजुट करेंगे। लेकिन पिछले पांच साल में उनकी वजह से जितना सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ उससे ज्यादा जातीय विभाजन हुआ। BJP struggle increase base उत्तर प्रदेश में आज हिंदू समाज ब्राह्मण बनाम राजपूत, यादव बनाम गैर यादव, जाटव बनाम गैर जाटव, पिछड़ा बनाम अगड़ा, जाट बनाम अन्य जैसे कई खांचों में बंटा हुआ है। ऊपर से पांच साल की राज्य सरकार और करीब आठ साल की केंद्र सरकार की एंटी इनकम्बैंसी है। कोरोना की महामारी के प्रबंधन में सरकार की विफलता गवर्नेंस के भाजपा मॉडल पर बड़ा सवाल है तो महंगाई और बेरोजगारी की वजह से भी भाजपा बैकफुट पर है। पार्टी के अंदर गुटबाजी भी कम नहीं है और पुराने सहयोगी ओमप्रकाश राजभर का गठबंधन छोड़ कर जाना भी असर डालने वाला है। अगले एक महीने में भाजपा की कोशिश 80 फीसदी बनाम 20 फीसदी का चुनाव बनाने की है, जिसका जिक्र चुनाव की घोषणा के तुरंत बाद योगी आदित्यनाथ ने किया। लेकिन इसमें कितनी कामयाबी मिलेगी, यह अभी नहीं कहा जा सकता। गोवा- भारतीय जनता पार्टी पिछले 10 साल से गोवा में सरकार में है। पिछला चुनाव हार जाने के बाद भी उसने जोर-जबरदस्ती करके सरकार बना ली थी लेकिन सरकार संभालने के लिए देश के रक्षा मंत्री को इस्तीफा दिला कर 40 सदस्यों वाली विधानसभा में मुख्यमंत्री बनवाया गया था। वह मनोहर पर्रिकर थे, जिनकी वजह से राज्य में सरकार बनी और चली। उनके निधन के बाद प्रमोद सावंत को मुख्यमंत्री बनाया गया। पर्रिकर की वजह से राज्य में ईसाई वोट भाजपा को मिले थे। इस बार पर्रिकर नहीं हैं और उनका परिवार भाजपा से नाराज है। दूसरी ओर भाजपा ने मुख्य विपक्षी कांग्रेस के साथ साथ अपनी सहयोगी पार्टियों महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी और गोवा फॉरवर्ड पार्टी को भी नहीं छोड़ा। उनके भी विधायक भाजपा ने तोड़े। इनमें से एक ने तृणमूल कांग्रेस से तालमेल किया है तो दूसरी ने कांग्रेस के साथ। तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के पूरी ताकत से लड़ने की वजह से भी तस्वीर बदली है। राज्य में 10 साल की और केंद्र की आठ साल की एंटी इनकम्बैंसी भी भाजपा के लिए भारी पड़ रही है। मणिपुर- पिछली बार भाजपा ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था लेकिन चुनाव कांग्रेस ने जीता था। 60 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस के 28 सदस्य थे लेकिन भाजपा ने 21 सदस्य होने के बावजूद जोर-जबरदस्ती सरकार बनाई। कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए एन बीरेन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया। तब से कांग्रेस टूट कर 15 सदस्यों की पार्टी रह गई है और भाजपा के 29 विधायक हो गए हैं। इससे कांग्रेस कमजोर हुई है और भाजपा मजबूत दिख रही है। लेकिन हाल में पड़ोसी राज्य नगालैंड में सेना की फायरिंग में 14 बेकसूर लोगों के मारे जाने की घटना के बाद सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून यानी अफस्पा के खिलाफ आंदोलन तेज हुआ है। केंद्र सरकार ने इसे खत्म करने पर विचार के लिए कमेटी बनाई और उसके तुरंत बाद पूरे नगालैंड को अशांत क्षेत्र घोषित कर पूरे राज्य में अफ्सपा छह महीने के लिए बढ़ा दिया। इससे समूचे पूर्वोत्तर में नाराजगी है। कई राज्यों में सीमा के विवाद चल रहे हैं, जिसका असर चुनाव पर होगा।
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