बेबाक विचार

चुनावी चक्रम : कौन किस पर भारी... कौन किसका आभारी...?

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चुनावी चक्रम : कौन किस पर भारी... कौन किसका आभारी...?
भोपाल। अब देश के पांच राज्य धीरे-धीरे चुनावी रंग में रंगते जा रहे है, इन राज्यों के आधुनिक भाग्यविधाताओं की हर सोच राजनीतिक सत्ता के रंग में सराबोर नजर आने लगी है, हर राजनीतिक दल एक-दूसरे से अधिक प्रभावी दिखने की स्पर्द्धा में शामिल है और जहां की हर गतिविधि राजनीति में लिपटी नजर आने लगी है। five state assembly election इन पांच राज्यों में सबसे अहम राज्य है उत्तरप्रदेश, जो पूरे देश की सत्ता व उसकी राजनीति का मार्गदर्शक है। आज इस चुनावी दौर में इसीलिए यह राज्य सभी दलों के लिए अहम बना हुआ है और अब इस राज्य में वादों व घोषणाओं की बरसात हो रही है और बैचारा आम वोटर फिलहाल मूकदर्शक बना सब कुछ देखने समझने व भुगतने को मजबूर है और जहां तक राजनीति और राजनीतिक दलों का सवाल है, इनमें दिखावे और प्रदर्शन के अलावा कुछ भी नहीं है, हर कोई एक दूसरे से बढ़-चढ़कर ही बतारहा है। किंतु आज इस माहौल में सबसे अधिक सोच-विचार का सवाल यह है कि देश की आजादी के बाद के अब तक के पचहत्तर सालों में देश में सब कुछ बदल गया किंतु हमारे आधुनिक भाग्यविधाताओं की सोच में कोई अंतर नजर नहीं आया, आज भी वही 1952 के पहले आम चुनाव की झलक हर कहीं नजर आती है, आज भी हर राजनेता देश की जनता या आम वोटर को उतना ही भोला-भाला और अज्ञानी मानता है और उसी प्राचीन तरीकों से अपने आपको अन्यों से ‘सुपर’ बताने की कौशिश करता है, चूंकि पिछले साढ़े सात दशकों में ‘झूठे वादे’ और ‘आश्वासनों’ पर जो राजनीति अवलम्बित रही है, वहीं आज भी है, जबकि हर वोटर उन वादों-आश्वासनों की पूर्ति का प्रतिशत अच्छी तरह जानता है, हर सत्तारूढ़ दल अपने सत्ताकालका विस्तार चाहता है तो सत्ताहीन हर तरीके से सत्ता पर काबिज होना चाहता है, इसी स्पर्द्धा में आज की राजनीति खो गई है और हर अक्षम-सक्षम को सत्ता के करीब ले जाने वाले को कोई याद नहीं रखता। Read also यूपीः गरीब जीवन और तमंचे से तूफान! अब ऐसे में यह स्पष्ट ही नही होता कि कौन किस पर भारी है और कौन किसका आभारी है? हर राजनीतिक दल अपने आकर्षक और कभी न पूरे होने वाले वादों की नुमाईश लगाकर बैठा है और आम वोटर यह सब देखने को मजबूर है क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई विकल्प नही है, उसे यह अच्छी तरह पता है कि यह नुमाईश केवल और केवल दिखावटी है, फिर भी उसे इसे देखने, इन पर विश्वास करने और इन्हें वोट देने की मजबूरी है, क्योंकि फिर वही विकल्प का अभाव....? ....फिर इसी माहौल में एक बार फिर याद आता है कि हमारे प्रजातंत्र को लगी ‘दल-बदल’ की दीमक हमारे कानूनी-गैरकानूनी लाख प्रयासों के बाद भी खत्म नही हो पाई, प्रजातंत्र के पचहत्तरवें साल में भी आज यहीसब चल रहा है, हमने लाख दलबदल कानून बनाए, उन्हें लागू करने का दिखावा भी किया, किंतु क्या वे प्रभावी सिद्ध हो पाए? आज इसी अभिशाप का उत्तरप्रदेश केन्द्र बिन्दु बना हुआ है.... और सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि इस गैर प्रजातंत्री प्रथा पर आत्मचिंतन आज तक किसी भी राजनेता या उसके राजनीतिक दल ने नहीं किया? और हर कोई इसका लाभ उठाने को आतुर दिखाई दिया न तो ऐसे अवसरवादी राजनैताओं को कभी कानूनी दण्ड का भागीदार बनाया गया और न कभी इस कानूनी को गंभीरता से अंगीकार ही किया गया अब इसके लिए कौन दोषी है, इस पर भी न कभी सत्ता ने विचार किया न सत्तासीनों ने और न कानून बनाने वालो ने....? ....और इसी कारण यह रोग अब गंभीर महारोग बनकर सामने आ गया है....। अब ऐसे में हम हमारे प्रजातंत्र के साथ कितना न्याय या अन्याय कर रहे है.... इस सवाल का जवाब ढूंढने की भी किसी को फुर्सत नही है। अब तो हर किसी को बस सत्ता चाहिये, न उससे कम न उससे अधिक। अब जब ऐसे माहौल में देश व उसकी राजनीति रच-बस गई हो तो फिर ‘स्वार्थ’ के अलावा कुछ भी किसी को भी कैसे दिखाई दे सकता है? हर कोई बगैर अपनी क्षमता पर विचार किए, ‘सर्वश्रेष्ठ’ (सत्ता) पाने की स्पर्द्धा में शामिल हो गया है फिर देश और उसका भाग्य कहीं भी क्यों न जाए? अब ऐसे माहौल में देश का आम नागरिक या आमवोटर कितना सुरक्षित है, इस पर भी आज तक किसी ने भी विचार नहीं किया। आज सही मायनों में पूरा देश इसी भूल-भुलैय्या में खोया हुआ है और कोई भी इससे बाहर निकलने का मार्ग खोजने की कौशिश नहीं कर रहा है? उल्टे और अधिक इसमें स्वयं को शामिल करने का प्रयास कर रहा है? यह सब लिखकर मैंने अपने दर्द को सहलाने का प्रयास तो कर लिया, किंतु क्या शेष ‘हमदर्दी’ भी इस पर कभी गंभीर चिंतन-मनन करेंगें?
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