राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

विदेशी विश्वविद्यालयों का इतना हल्ला क्यों?

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपना कैंपस खोलने की इजाजत देने के नियमों का एक मसौदा जारी किया है। इस मसौदे को लेकर  गजब का शोर मचा है। कई मीडिया वेबसाइट्स, यूट्यूब चैनल्स और मुख्यधारा के चैनलों पर भी ऐसा हल्ला मचा है, जैसे भारत में उच्च शिक्षा का पूरा परिदृश्य बदल जाने वाला हो। यह शोर है कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने स्टैनफोर्ड, येल, ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज जैसे विश्वविद्यालयों को भारत में लाने के लिए बड़ी पहल की है। यह अलग बात है कि जिन विश्वविद्यालयों का नाम लेकर भारत में ढिंढोरा पीटा जा रहा है उन्होंने दुनिया के किसी भी देश में अपना कैंपस नहीं खोला है। यहां तक कि अमेरिका में भी कोई दूसरा स्टैनफोर्ड या एमआईटी नहीं है और ब्रिटेन में भी कोई दूसरा ऑक्सफोर्ड या कैंब्रिज नहीं है। असल में राजनीतिक विमर्श बनवाने वालों को पता है कि ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज भारतीय मध्य वर्ग के मानस में बैठे हुए हैं और संभ्रांत व उच्च वर्ग का होने की एक बड़ी शर्त इन विश्वविद्यालयों से पढ़ा होना भी होता है। तभी विदेशी विश्वविद्यालयों को अपना कैंपस भारत में खोलने की इजाजत देने के नियमों का मसौदा जारी होने पर इतना शोर मचा है।

सवाल है कि क्या भारत में विदशी विश्वविद्यालयों का कैंपस खुल जाने से भारत की उच्च शिक्षा में कोई गुणात्मक बदलाव आ जाएगा या भारत की उच्च शिक्षा की जो मौजूदा व्यवस्था है वह और चौपट हो जाएगी? भारत में वैसे तो गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा देने वाले संस्थानों की बहुत कमी है। ऐसे गिने-चुने संस्थान हैं, जिनसे पढ़ने के बाद आमतौर पर छात्र विदेश चले जाते हैं। गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा देने वाले ऐसे संस्थानों की संख्या और सीमित है, जिनमें पढ़ाई का खर्च कम है और आम परिवार का नौजवान पढ़ाई अफोर्ड कर सकते हैं। पिछले कुछ बरसों से ऐसे कई संस्थानों की प्रतिष्ठा धूमिल करने और उनकी गुणवत्ता खराब करने के प्रयास चल रहे हैं। इसके साथ ही यह प्रयास भी चल रहा है कि सस्ती और गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा के क्षेत्र से सरकार को बाहर निकाला जाए। संसद में सरकार कह चुकी है कि भारत के लोगों को इस मानसिकता से निकलना चाहिए कि उच्च शिक्षा की फंडिंग करने की जिम्मेदारी सरकार की है।

सरकार की इस सोच का नतीजा है कि आज पूरे देश में निजी विश्वविद्यालय फल-फूल रहे हैं, जिनमें ऊंची फीस है, विदेशी फैकल्टी है और जो पूरी तरह से सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त हैं। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि निजी विश्वविद्यालयों को मंजूरी देने के बाद सरकार प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पर बहुत ध्यान दे रही है और उसकी गुणवत्ता ठीक कर रही है। उनकी स्थिति भी पहले से खराब होती जा रही है। सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए खर्च नहीं बढ़ा रही है। नए कॉलेज, यूनिवर्सिटी या रिसर्च सेंटर नहीं खोले जा रहे हैं। नए शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हो रही है और न बुनियादी ढांचे का निर्माण हो रहा है। अब अगर निजी यूनिवर्सिटी के बाद विदेशी यूनिवर्सिटी के कैंपस खुलते हैं तो सरकार गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा देने की अपनी जिम्मेदारी से और दूर जाएगी। वह ऐसी व्यवस्था बनाना चाहती है, जिसमें उच्च शिक्षा पूरी तरह से निजी हाथों में चली जाए और जो लोग बहुत मोटी फीस चुका कर पढ़ने में सक्षम हों सिर्फ वे ही उच्च शिक्षा हासिल करें। बाकी बड़ी आबादी कामचलाऊ शिक्षा हासिल कर कुशल या अकुशल मजदूर के तौर पर काम करे।

बहरहाल, सरकार जो सोच रही है या यूजीसी ने जो मसौदा जारी किया है उसमें अपने आप कई चीजें ऐसी हैं, जिनसे विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भारत में अपना कैंपस खोलना मुश्किल हो जाएगा। सबसे पहली और अहम चीज तो यह है कि ड्राफ्ट रेगुलेशन-2023 में कहा गया है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को अपना कैंपस खोलने के लिए खुद बुनियादी ढांचा तैयार करना होगा। इससे पहले जिन देशों में ऑफशोर कैंपस का प्रयोग सफल हुआ है वहां होस्ट कंट्री यानी जिस देश में कैंपस खुलता है वह देश बुनियादी ढांचा मुहैया कराता है, विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए नियमों में ढील देता है और दिल खोल कर सब्सिडी देता है। बदले में विदेशी विश्वविद्यालय अपनी फैकल्टी उपलब्ध कराते हैं और कैरिकुलम तैयार करते हैं। अगर उनको बुनियादी ढांचा तैयार करना पड़ेगा तो यह देखना पड़ेगा कि कितने विदेशी इंस्टीच्यूट इसके लिए तैयार होते हैं। हालांकि विदेशी विश्वविद्यालयों को लुभाने के लिए इस ड्राफ्ट रेगुलेशन में यह प्रावधान किया गया है कि वे मुनाफा कमा कर पैरेंट इंस्टीच्यूट को पैसा ट्रांसफर कर सकते हैं। ध्यान रहे मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार जो फॉरेन एजुकेशनल इंस्टीच्यूट बिल ले आई थी उसमें संस्थाओं को पैसे बाहर ले जाने पर मनाही थी। उसमें यूनिवर्सिटी के भारतीय कैंपस के लिए कॉरपस फंड बनाने का प्रावधान था। उसे सरकार ने इस बार हटा दिया है। ऐसे में हो सकता है कि कुछ संस्थाएं दिलचस्पी दिखाएं।

दूसरी बाधा ड्राफ्ट रेगुलेशन के दो अन्य प्रावधानों को लेकर दिख रही है, जो कैरिकुलम यानी पाठ्यक्रम से जुड़े हैं। पहला तो यह है कि पाठ्यक्रम भारत के राष्ट्रीय हित और उच्च शिक्षा के लक्ष्य को नुकसान पहुंचाने वाला नहीं हो। यह स्वीकार करने में किसी को दिक्कत नहीं होगी। दूसरा प्रावधान यह है कि पाठ्यक्रम देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता, सुरक्षा और दूसरे देशों के साथ संबंध को नुकसान पहुंचाने वाला नहीं हो। इसमें यह भी कहा गया है कि पाठ्यक्रम शिष्टता, नैतिकता और व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाला न हो। इस प्रावधान से दिक्कत हो सकती है क्योंकि व्यवस्था, शिष्टता और नौतिकता की व्याख्या बहुत विशाल है। दुनिया के जितने भी बड़े और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय हैं उनके यहां समाजशास्त्र या राजनीति और इतिहास की पढ़ाई बहुत खुले विचारों के साथ होती है। उन्हें अगर शिष्टता, नैतिकता या व्यवस्था के बंधन में बांधेंगे तो कम से कम ह्यूमनिटीज से जुड़े विषयों की पढ़ाई में मुश्किल आएगी।

विश्वविद्यालयों को फीस से लेकर दाखिले के नियम बनाने, अपना प्रशासन बनाने और चलाने, फैकल्टी यानी शिक्षकों की नियुक्ति करने, अकादमिक मामलों में स्वायत्तता दी गई है। कहा गया है कि वे ‘ट्रांसपैरेंट और रिजनेबल’ फीस तय कर सकते हैं और ‘नीड बेस्ड स्कॉलरशिप’ दे सकते हैं। लेकिन ‘रिजनेबल’ की क्या व्याख्या है? क्या उसकी कोई सीमा है? अगर फीस बहुत ऊंची रही, जिसकी संभावना ज्यादा है तो साधारण पृष्ठभूमि के छात्र कैसे उच्च शिक्षा हासिल कर पाएंगे? इसी तरह ‘नीड’ से क्या मतलब है? जैसे अभी भारत में कमजोर आर्थिक या सामाजिक पृष्ठभूमि के छात्रों, दलित या आदिवासी छात्रों आदि को आर्थिक मदद मिलती है, वैसी मिलेगी या कोई दूसरा पैमाना बनाया जाएगा? दाखिले और फैकल्टी की नियुक्ति दोनों में संस्थान को स्वायत्तता होगी। यूनिवर्सिटी विदेशी शिक्षकों को भी नियुक्त कर सकते हैं। जाहिर है ऐसे में एफरमेटिव एक्शन के आरक्षण जैसे जो प्रावधान हैं वे दाखिले और शिक्षकों की नियुक्ति दोनों में लागू नहीं होंगे। सोचें, सरकार नई शिक्षा नीति का इतना ढिंढोरा पीट रही है क्या वह इसमें आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए किए गए प्रावधानों को विदेशी विश्वविद्यालयों में लागू करा पाएगी?

नई शिक्षा नीति की बात चली तो उसकी एक और बात से यह मसौदा अलग हटता दिख रहा है। उसमें कहा गया है कि दुनिया की एक सौ शीर्ष रैंकिंग वाली संस्थाओं को ही भारत में कैंपस खोलने की मंजूरी मिलेगी लेकिन अब मसौदा रेगुलेशन में इसे बढ़ा कर पांच सौ रैंकिंग तक कर दिया गया है। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि किसी देश के प्रतिष्ठित संस्थान को भी मंजूरी मिल जाएगी। हालांकि किस संस्थान को प्रतिष्ठित माना जाएगा, यह नहीं कहा गया है। रैंकिंग तय करने से लेकर प्रतिष्ठित संस्थान के चयन का काम यूजीसी को करना है। यह अच्छी बात है कि मसौदा रेगुलेशन में विदेशी कैंपस की डिग्री के किसी भारतीय संस्थान के समकक्ष होने की बाधा समाप्त कर दी गई है लेकिन यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत में सभी नियोक्ता और दूसरे संस्थान उनकी डिग्री को स्वीकार करें।

Tags :

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें