फ्रांसिसी लड़ रहे है। राष्ट्रपति और सरकार की नींद हराम हुई पडी है। उनका मुद्दा है कि हम आलसी हैं तो क्या हुआ। इसके लिए भी हमें पैसे मिलने चाहिए। जिंदगी फुर्सत, आराम और समय की लक्जरी में गुजरे यह मनुष्य का अधिकार है। हम ज्यादा काम नहीं करेंगे। हम जल्दी रिटायर होंगे। साल में छह सप्ताह छुट्टी करेंगे और सप्ताह में सिर्फ 39 घंटे काम।
संदेह नहीं मन के सुख, अधिकार, हुकूक के लिए लड़ना फ्रांसीसियों के खून में है।तभी तो फ्रांस इंसानी हक की क्रांतियों का देश है। सन् 1789की स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे की क्रांति से शुरू परंपरा 1944 और उसके बाद 1968 में झलकी। अब वापिस सड़कों पर जनता उमडी हुई है। चार्ल्स डी गॉल ने अपने देश के बारे में वैसे ही नहीं कहा था कि वहां “राजनीति सतत उबाल पर रहती है”।
राष्ट्रपति इमेन्युअल मेक्रान के पेंशन सुधारों, जिनमें पेंशन प्राप्त करने की न्यूनतम आयु 62 से बढ़ाकर 64 वर्ष करना शामिल है, को संसद की मंजूरी मिल गई है।इसके बाद प्रधानमंत्री एलिजाबेथ बोर्न के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव मात्र नौ वोटों से नामंजूर हुआ। तब से वहां राजनैतिक तनाव बढ़ता ही जा रहा है।
लोगों का मूड बदला-बदला सा है। पेरिस में रोमांच और रोमांस की जगह हिंसा और तोड़फोड़ का बोलबाला है। यहां तक कि सरकार को ब्रिटिश सम्राट चार्ल्स की तीन दिन की फ्रांस की यात्रा भी रद्द करनी पड़ी। बढ़ता असंतोष फुटपाथों और गलियों पर छलक रहा है। ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं सहित समाज के सभी वर्ग – युवा, वृद्ध, पेशेवर, बेरोजगार – पुलिस से भिड़ रहे हैं, सिटी हॉल के दरवाजों में आग लगा रहे हैं, राजनीतिज्ञों के पुतले जला रहे हैं और पथराव कर रहे हैं।
फ्रांस की वसंती हवाओं में गुस्से, अश्रुगैस और सड़न की गंध घुल रही है। हाँ, सड़न की क्योंकि कचरा उठाने वालों की हड़ताल इस पेंशन सुधार विरोधी आंदोलन के केन्द्र में है। सोमवार को यह हड़ताल चौथे सप्ताह में प्रवेश कर जाएगी। कचरा उठाने वाले कर्मी 2030 में 59 की बजाए 57 वर्ष की आयु में रिटायरी चाहते हैं (सभी के लिए सेवानिवृत्ति आयु 64 वर्ष नहीं है)।
राष्ट्रपति मेक्रान कहते हैं कि अगर सरकार को अपने खजाने को खाली नहीं होने देना है और पेंशन के रूप में खासी धनराशि देते रहना जारी रखना है तो पेंशन सुधार जरूरी है। लोगों को दोसाल ज्यादा काम करना चाहिए। विशेषकर इसलिए क्योंकि 1980 के दशक की तुलना में अब फ्रांस के नागरिक दस वर्ष अधिक जी रहे हैं। सरकार के पास आर्थिक भार का तर्क है।जबकि विरोधी कहते हैं कि सरकार बेरहमी से आधुनिक कल्याणकारी राज्य, जो लंबे और कठिन संघर्ष का नतीजा है, को ढ़हा रही है।
जाहिर है फ्रांसीसियों के लिए बेहतर समाज वह है जहां कम के कम काम करना पड़े। सन् 1880 में फ्रांस के समाजवादी चिंतक पॉल लाफार्ज ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘आलसी होने का हक़’।इस पुस्तक में उसने कहा था कि हर दिन व्यक्ति को केवल तीन घंटे काम करना चाहिए और उन्होने ‘काम से प्रेम करने के पागलपन’ की सख्त शब्दों में निंदा की थी। लगभग दो दशक पहले एक किताब ‘हेलो आलस्य’ प्रकाशित हुई। इसमें बताया गया था कि काम करने से कैसे बचा जा सकता है और वहा यह बेस्टसेलर पुस्तक थी। सन् 1982 में फ्रांस्वा मित्तरॉ ने सेवानिवृत्ति की आयु 65 से घटाकर 60 वर्ष की थी। दो दशक बाद फ्रांस ने 35 घंटे का वर्किंग वीक लागू कर दिया। सन् 1990 में 60 प्रतिशत फ्रेंच काम को ‘बहुत महत्वपूर्ण’ मानते थे। सन् 2021 में इनका प्रतिशत मात्र 24 रह गया। महामारी ने काम को महत्वहीन मानने वालों की संख्या में वृद्धि की है। फ्रेंच नहीं चाहते कि काम का उनके जीवन में केन्द्रीय महत्व हो और इस स्थिति से छेड़छाड़ करने वाले किसी भी नेता को वे पसंद नहीं करते।
परंतु मेक्रान अपने पूर्ववर्तियों से अलग हैं। वे अपने निर्णय से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। उन्हें मालूम है कि 2027 में उनके कार्यकाल की समाप्ति के बाद संवैधानिक प्रावधानों के चलते वे फिर से चुनाव नहीं लड़ पाएंगे इसलिए उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि वे कितने अलोकप्रिय हैं। संसद में उनका बहुमत नहीं है परंतु इसके बाद भी वे एक विशेष संवैधानिक प्रावधान का उपयोग करके पेंशन सुधार लागू करवा सकते हैं। इससे लोगों में असंतोष और बढ़ेगा। इतिहास गवाह है कि फ्रेंच लोग विरोध, प्रदर्शनों और क्रांति की सुगबुगाहट को बेहद पसंद करते हैं और स्वयं को अपने जीवन का एकमात्र मालिक मानते हैं। हो सकता है कि मेक्रान जो कर रहे हैं वह देश की भलाई के लिए हो। परंतु इसका परिणाम क्या होगा यह कहना मुश्किल है। यह भी हो सकता है कि सन् 2027 में फ्रांस घोर दक्षिणपंथी नेता मरीन ला पेन को सिर आंखों पर बिठा ले। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)