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पहले जुगाड़, अब आगे मशीनी दिमाग तब भारत का भविष्य में बनना क्या है?

यों मसला वैश्विक है। मगर मेरी चिंता भारत है। वह भारत जो अब दुनिया की सर्वाधिक 140 करोड़ आबादी लिए हुए है। जहां दिमाग और बुद्धि का न्यूनतम उपयोग है। जो बिन मौलिक उर्वरता का बंजर है। जो जुगाड़, नकल, कुंजियों की शिक्षा पर आश्रित है। जिसके ज्ञान के विश्वविद्यालय सोशल मीडिया हैं। जहां नैरेटिव प्रायोजित है। जहां विचार-बहस से एलर्जी है। जहां का 65 प्रतिशत यूथ सर्व शिक्षा की अंगूठा छाप दसवीं-बारहवीं की डिग्री ले कर या तो डिलीवरी बॉय की नियति लिए हुए है या उच्च शिक्षा की कुंजियों-कोचिंग की रट्टा मार मेमोरी से डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस अफसर, कर्मचारी, वकील, प्रोफेसर और लेक्चरर बन कर दुनिया के लिए तथा देश में सत्ता, काम धंधों की लकीर का फकीर सेवादार होता है। जिससे खुद का या देश का कोई अनुसंधान, इनोवेशन, मौलिक आइडिया फलना-फूलना तो दूर अंकुरित भी नहीं होता। जगत सेठ भी ठग निकलेगा तो तमाम सृजक दोयम दर्जे के!

यही भारत निचोड़ हैजुगाड़ों का। रियलिटी है। दुनिया में ऐसा कोई दूसरा देश नहीं है, जहां दिमाग उपयोग, बुद्धि विकास और शिक्षा के नाम पर कुंजियों, कोचिंग, सर्व शिक्षा से बेपढ़ की सुलभ डिग्रियों की व्यवस्था बनी हुई हो। तभी देश का लोक प्रशासन लूट, व्यापार-उद्यम ठगी और पेशेवर कौशल अंधी कमाई की निर्लज्जता की हद पार किए हुए है। साल-दर-साल बढ़ती गंवार भूख पर अंकुश में भारत की कोई शपथ, कसम या प्रतिज्ञा असरदार नहीं। देश की हर तरह की सृजनात्मकता वैश्विक तुलना में या तो जीरो या विदेश से कॉपी-पेस्ट और सोशल मीडिया लायक!

और अब, सन् 2023 से भारतीयों के फोन में अमेरिका से बुद्धि की मशीनी गंगा होगी! हम आजाद भारत के लोग अब तक जुगाड़, उधारी के टैंपलेटों (संविधान से लेकर विचार-विमर्श, बातचीत की शब्दावली, भाषा, व्यवस्थाओं के अंगों और धंधों सभी में), नकल, रट्टा मार सोल्यूशनों से कुछ करते हुए दिखते थे लेकिन बहुत जल्द वह वक्त आने वाला है जब दिमाग मशीन का होगा और काम करने वाले मनुष्य शरीर, एक तरह से रोबो!

कुल मिलाकर सन् 2023 इंसानी जीवन के मशीनी टेकओवर के प्रारंभ का क्रांतिकारी वर्ष है। इस वैश्विक क्रांति की गंगोत्री भी अमेरिका की सिलिकॉन वैली है। सात फरवरी 2023 को माइक्रोसॉफ्ट के प्रमुख सत्य नडेला ने इंटरनेट के अपने सर्च इंजन में मशीनी दिमाग चैटजीपीटी को शामिल करने की जो घोषणा की है वह सचमुच मानव इतिहास में मील का पत्थर है। इससे दशक की और पूरे सदी की जो दिशा बनेगी, उसका हम भारतीय अनुमान नहीं लगा सकते हैं लेकिन मानव समाज के बुद्धि साधक वैश्विक ब्राह्मण तो अपना रोडमैप बनाए हुए हैं। ये बौद्धिक बल के संकल्पों में अपने मौलिक अनुष्ठानों से दुनिया चलाएंगे। बाकी वर्णों याकि हिंदू शब्दावली अनुसार क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जाति के मानवकर्मियों को भविष्य में न केवल अपनी बनाई मशीनी बुद्धि देंगे, बल्कि उसी अनुसार वे बहुसंख्यक से काम लेते हुए होंगे। उनका जीवन चलाते हुएहुए होंगे। ज्ञान देंगे कि कैसे राजा राज करे,  कैसे लड़ाई लड़े, कैसे वैश्य व्यापार करे और कैसे सेवादार लोग अपने-अपने कामों को मशीनी दिमाग से संपन्न करते हुए गुजरबसर करें।

विषयांतर हो रहा है। पर भारत के संदर्भ में हिंदुओं की जाति-वर्ण व्यवस्था से जीवन चलने का जो सिलसिला था वह वापिस वैश्विक पैमाने पर लौटने वाला है। भविष्य में मशीनी बुद्धि देने वाले मौलिक चितंक-सृजक बुद्धिमान देश और समूहों को अनचाहे-अनजाने में वर्ग-वर्ण में ढालेंगे। पश्चिमी देशों का समूह ज्ञान-बुद्धि के बल पर दुनिया का मशीनी बुद्धि सप्लायर ब्राह्मण होगा। वही चीन-रूस-इस्लामी देश कुंठाओं में लड़ाके या व्यापारी होंगे। और भारत सभी का सेवादार!

पूछ सकते हैं एक सॉफ्टवेयर पर, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के एप्लीकेशन चैटजीपीटी पर इतने बड़े निष्कर्ष? पर जरा दिमाग पर जोर दे कर सोचें कि हर व्यक्ति का फोन यदि उसका दिमाग बना तो मनुष्य और होमो सेपियन अस्तित्व का तब अर्थ क्या बचेगा? यदि ब्रह्म, ब्राह्मण ने मशीन को बुद्धि दे दी और उससे फिर आम मनुष्य जीवन चलने लगा तो पूरी पृथ्वी, उसके आठ अरब लोगों में अधिकांश का जीवन क्या उससे संचालित नहीं होगा?… तब मानव दिमाग के मालिक-गुरू क्या चंद अति तपस्वी ऋषि ब्राह्मण नहीं हुए होंगे?

गौर करे मौजूदा भारत पर! भारत के 140 करोड़ लोग गूगल, फेसबुक, व्हाट्सऐप, सोशल मीडिया से क्या पाते हुए हैं? सूचना, जानकारी मतलब मनुष्य के ‘जानने’ (knowing) की प्रक्रिया में देखने, सुनने, छूने, सूंघने, चखने, पूछताछ, एक्ट-रिएक्ट होने की प्रक्रिया में चौबीसों घंटे चलता दिमाग। एक आदत, एक नशा, जिसमें यह बेसिक सुध भी नहीं कि जानना (knowing) वसमझना (understanding) ही बुद्धि पाना नहीं है। समझना तब होता है जब मनुष्य चेतना एक नए आयाम में फैलती है। वह अनुभव करने और उसके डेटा-जानकारी को दिमाग में जमा कर समझने की प्रक्रिया से यह सोचता-विचारता है कि हमने क्या अनुभव किया है? उसके बाद बुद्धि बोध का तीसरा चरण मष्तिष्क चेतना को निर्णय (judging) की ओर ले जाता है। तब वह ज्ञाता, बुद्धिमना, होने की ओर होता है।

इसलिए भारत की 140 करोड़ लोगों की भीड़ व्हाट्सऐप, गूगल, फेसबुक चैट, सोशल मीडिया, स्मार्टफोन से साक्षर, समझदार, बुद्धिमना नहीं कूपमंडूकता की कांव-कांव है। बेपढ़ भीड़ है। पहले कौम-नस्ल रट्टामार जुगाड़में कुंजी, कोचिंग के शॉर्टकट लिए हुए थी। फिर सोशल मीडिया से ज्ञान की लंगूरी और किताबों, पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकालयों, शोध, विचार-बहस से नाता लगभग खत्म। तभी आजाद भारत में शिक्षा और ज्ञान गंगा न केवल सूखी है, बल्कि जो थोड़ा-बहुत प्रवाह है वह कूड़े-करकट की गंदगी का वह गंवारपना है, जिसमें बुद्धि केंद्रित काबलियत, परीक्षा, प्रतिस्पर्धा के ओलंपिक की गुंजाइश नहीं है, बल्कि उलटे महत्व पिछड़े और दलित होने का है। आरक्षण से मौके का है। इसीलिए 75 वर्षों में क्या हुआ? बुद्धि का पलायन और ज्ञानवानों के लिए अवसरों का टोटा। हार्वर्ड नहीं, बल्कि कोल्हू के बैल का हार्ड वर्क पूजनीय!

ऐसे में अब अचानक माइक्रोसॉफ्ट, गूगल जैसी वैश्विक कंपनियों से लोगों में मशीनी ज्ञान और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की आने वाली बाढ़। इंटरनेट पर गूगल क्रोम, सफारी, बिंग सर्च इंजन फिलहाल जानकारी के लिंक के विकल्प देते थे वे आने वाले वक्त में चंद सेकंडों में छात्रों के लिए रेडीमेड क्लासवर्क करके देंगे। ईमेल का खुद ही जवाब बना देंगे! व्यक्ति के कहे अनुसार विषय पर निबंध, लेख, कविता तथा परीक्षाओं के सवालों का जवाब लिख देंगे। मशीनी दिमाग नरेंद्र मोदी के लिए भाषण लिख देगा। पैसा कमाने के, चुनाव जीतने के तरीके बताएगा। डायग्नोसिस जान कर चिकित्सा का पर्चा देगा। समस्या जान अफसरों की फाइल में नोटिंग कर देगा। सब काम क्योंकि ऑनलाइन-डिजिटल फॉर्मेट में वैसे ही होने लगे हैं तो वह दिन भी दूर नहीं जब कंप्यूटर पर काम करते हुए मंत्री-अफसर-मैनेजर सर्च इंजन को विषय, आइडिया, अपना काम बताएंगें और मशीनी दिमाग तुरंत फटाफट फाइल पर प्रेजेंटेशन, विकल्पों की फेहरिस्त, ग्राफ, चार्ट और आखिर में रीति-नीति के फैसले सुझा देगा। मतलब माइंड अपलाई करने की जरूरत नहीं। दिमाग-बुद्धि को मेहनत की जरूरत नहीं है। कल्पना करें ऐसे सिनेरियो में भारत दिमागी तौर पर आगे कैसा और खाली, आश्रित, गुलाम बनना है।

यह सब जल्दी होने वाला है। हर सरकारी दफ्तर, कॉलेज-विश्वविद्यालय परीक्षा, रिसर्च, मार्केटिंग, विज्ञापनबाजी, फेक न्यूज, असल न्यूज के काम माइक्रोसॉफ्ट के वर्ड, आउटलुक, एक्सेल आदि के तमाम एप्लिकेशनों में मशीनी दिमाग से अपने आप काम होता हुआ होगा। माइक्रोसॉफ्ट ने अपने सर्च इंजन बिंग में जिस चैटजीपीटी को इंटीग्रेट किया है वह दुनिया की सौ भाषाओं को लिए हुए है। यदि मुझे अज्ञेय की शैली में नई कविता लिखनी है तो मैं बिंग चैटजीपीटी को कहूंगा और वह तुरंत स्क्रीन के पेज पर हिंदी में लिखी हुई मिलेगी!

सो, चैट बाक्स की नई तकनीक और इसके गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, चाइनीज सर्च इंजिन बायडू आदि कंपनियों के प्रोडक्ट से भविष्य बनेगा या बिगड़ेगा, इसकी चिंता भारत के लिए मुमकिन नहीं है। भारत तो पहले से ही गूगल, विदेशी सर्च इंजनों का गुलाम है तो उन्हीं के मशीनी दिमाग हर हाथ में होने हैं। 140 करोड़ लोगों के देश में, स्वदेशी का राग अलापने वाली सरकारों, आईटी की कथित महाशक्ति की बातें करने वाले नेताओं, देशी आईटी कंपनियों के मालिकों के दिमाग को कभी सुध ही नहीं हुई जो वे स्वदेशी सर्च इंजन गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट बनाएं। जबकि ठिक विपरित चीन ने गूगल को घुसने नहीं दिया अपने ही सभी स्वदेशी और स्वदेशी भाषा के एप्लीकेशन बनाए। चीन में गूगल नहीं स्वदेशी बायडू सर्च ब्राउसर उपयोग में है। वह भी मशीनी दिमाग का चैट बाक्स बना रहा है जो चाइनीज सभ्यता-संस्कृति और राष्ट्र की बुद्धि प्राथमिकता के अनुसार बना हुआ होगा।

भारत सरकार जानती है कि अमेरिकी आईटी कंपनियां भारत से मनचाही कमाई करके अमेरिका ले जा रही हैं। अमेरिकी कंपनियों के कामकाज में सत्य नडेला और सुंदर पिचाई सहित लाखों प्रवासी भारतीय काम करते हुए हैं। लेकिन ऐसा होना अमेरिकी परिवेश में बुद्धि और आइडिया की स्वतंत्र दुस्साहसी उड़ानों के गोरों की लीडरशीप के चलते है। बावजूद इसके मशीनी दिमाग के प्रोजेक्टों में भारतीय सीईओ तथा डेवलपरों के नाम जानकर निष्कर्ष बनता है कि भारत से जो ब्रेन ड्रेन हुआ और दक्षिण के जो ब्राह्मण अमेरिका गए तो उनका जाना ठीक ही रहा। वे वहां न केवल बुद्धि संस्कारों से कामयाब है, बल्कि अब दुनिया को वे चैटबॉक्स बना कर दे रहे हैं, जिससे उन्हे मशीनी दिमाग मिलेगा। सत्य नडेला और सुंदर पिचाई को ब्राह्मण के रूप में न जानें लेकिन मष्तिष्कधारी मानव के ज्ञान को अंतरिक्ष की और उड़वाने वाले ज्ञानी तपस्वी तो उन्हे कहेंगे! मेरी यह बात नोट रखें कि अगले दस वर्षों में ही मशीनी दिमाग दुनिया के जन-जन के जीवन को चलाते हुए होगा! और वह सब अमेरिका से होगा।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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