क्षण के लिए सोचें अमेरिका यदि रूस हो जाए, चीन हो या भारत बने तो इस पृथ्वी का क्या होगा? सोचें, जैसे डब्ल्यूएचओ से अमेरिका अलग हुआ वैसे संयुक्त राष्ट्र से, यूनेस्को आदि संस्थाओं से वह हटे और इन संस्थाओं को पुतिन, शी जिनफिंग, नरेंद्र मोदी यदि चलाने लगें या उत्तर कोरिया जैसा व्यवहार अमेरिका (पश्चिमी सभ्यता) का बने तो पृथ्वी का क्या होगा? मानवता का क्या होगा? इंसान का क्या होगा? तब इंसान पिंजरे का जानवर बनेगा। दारूल इस्लाम फैलेगा। जीना नरक हो जाएगा। हां, अमेरिका को विलुप्त मान जीने की कल्पना करें तो पृथ्वी के मानव का जीना बिना बुद्धि के होगा!
तभी अमेरिका का अमेरिका रहना और आइडिया ऑफ अमेरिका मानवता की सांस है। अमेरिका भले कितनी ही बुराईयों की सरजमीं हो लेकिन वह सर्वप्रथम आजादी, लिबर्टी, बुद्धि और मानव सभ्यता के विकास की मशाल है। वह जिंदादिली, उदार-जीवंत लोकतंत्र और वैयक्तिक स्वतंत्रता को सर्वत्र रोपने वाला हरकारा है। वह बेहतरीन बौद्धिक क्षमता वाले स्वतंत्रचेताओं, बुद्धिचेताओं और सर्वाधिक महत्वाकांक्षी, पुरुषार्थियों, उद्यमशीलों, सत्यसाधकों, ज्ञानियों-वैज्ञानिकों-प्रोफेसरों का घर है। उसकी बौद्धिकता, उसका आइडिया दरअसल नस्ल, कौम और राष्ट्रीयता से ऊपर उठी वह विविधता है, जिसके लाखों प्रतिनिधि लोग पिछले नौ दिनों से अमेरिका में प्रदर्शन करते हुए इस नारे को गूंजा दे रहे हैं कि- ब्लैक लाइव्स मैटर!
हां, मिनियापोलिस में एक गोरे पुलिस अधिकारी ने अश्वेत जार्ज फ्लोएड की गर्दन को घुटनों से दबा कर मारा और उसका वीडियो आया नहीं कि पूरा अमेरिका उबल पड़ा। लोगों पर राष्ट्रपति के इस डराने का फर्क नहीं पड़ा कि मैं कुत्ते छोड़ दूंगा। मैं सेना दौड़ा दूंगा। उलटे प्रदेश के एक आला पुलिस अफसर ने गुस्से में कहा- शट अप ट्रंप। यदि समझ नहीं है तो बोलो मत। यहीं नहीं राष्ट्रपति के रक्षा मंत्री ने मीडिया के सामने कहा कि वह अपने राष्ट्रपति के इस विचार से इत्तेफाक नहीं रखता है कि देश में सेना की तैनाती हो।
ऐसे कहां है दुनिया में जिंदादिल, निडर लड़ने-भिड़ने वाले लोग? पिछले नौ दिनों से इन लोगों ने अपने ही देश में अपनी व्यवस्था को अन्यायपूर्ण, नस्ली प्रचारित कर दिया है और व्यवस्था को, देश को झिंझोड़ा है, उसे बदलने को मजबूर किया है तो इससे दुनिया में चेतना फैली है कि इंसान को जानवर की मौत मारना, मरने देना बरदाश्त नहीं होगा। लोगों को यों ही नहीं मारा जा सकता है, मरने नहीं दिया जा सकता है।
सो, मिनियापोलिस के गोरे पुलिसकर्मी और कोरोना वायरस दोनों के बहाने दुनिया ने तीन महीनों में देखा है कि अमेरिका और यूरोपीय देशों में इंसान के लिए, उसको बचाने के लिए, उसकी गरिमा के लिए करो-मरो का जुनून क्या होता है। सोचे, एक तरफ चीन में वायरस बना तो इंसानों को जानवरों की तरह बाड़े में ठोक-मार कर ठीक किया। कितने मरे, कैसे मरे इसकी जानकारी नहीं दी। फिर रूस के पुतिन को देखें वहां भी जानवरों की तरह इंसानों को मरने दिया जा रहा है। मौतों को छुपाया-दबाया जा रहा है और अपने भारत को देखें, 138 करोड़ लोगों को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है।
इसके उलट इटली, स्पेन और अमेरिका में खुलेपन से, मेडिकल श्रेष्ठता, संजीदगी, हकीकत को सत्यता से दर्शाते हुए जिस जिंदादिली से वायरस से मुकाबला हुआ है, मतलब पश्चिमी सभ्यता और उसकी छाया में रहने वाली व्यवस्थाओं ने जैसे मुकाबला किया है और अभी एक काले नागरिक के साथ हुए अन्याय में अमेरिका की सड़कों, लंदन-पेरिस की सड़कों पर जैसे जो प्रदर्शन हुए है वह प्रमाण है कि मानवता, आधुनिकता, वैज्ञानिकता, बौद्धिकता, सत्यता और निडरता की गारंटी का नाम है पश्चिमी सभ्यता। जाहिर है सिरमौर मशाल अमेरिका है।
वह अमेरिका यदि भारत हो जाए, पुतिन का रूस हो जाए, शी जिनफिंग का चीन हो जाए तो पृथ्वी के इंसान का क्या होगा! काला हो गोरा हो या भूरा, ईसाई हो यहूदी हो या हिंदू व मुसलमान, स्त्री हो या पुरूष या थर्ड जेंडर सब की विविधता में सबकी लिबर्टी, आजादी, गरिमा, समानता की चिंता करते हुए फ्रांस की क्रांति के बाद से अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस की व्यवस्थाओं ने अपने को जैसे रोल मॉडल बनाया है और उससे फिर जनित विश्व व्यवस्था जैसी बनी है वह चाहे जितनी कमियां लिए हुए हो लेकिन इंसान, मानवता की बुद्धि को तो इससे निश्चित ही वे पंख मिले हैं, जिनसे मंगल, चंद्रमा घूमने, बस्ती बसा सकने के सत्य तक को इंसान आज खोजे हुए है।
तभी बहुत जरूरी है कि अमेरिका को छींक आए तो दुनिया का हर समझदार इंसान चिंता करे। वाशिंगटन, लंदन, पेरिस का राजकाज मानवता का आईसीयू है। इसी से कोरोना वायरस हारेगा तो नस्लीय रिश्तों के गरिमापूर्ण बनने के नए-नए उपाय बनेंगे। यह मामूली बात नहीं है कि अमेरिका के तमाम् शहरों में कर्फ्यू लगा लेकिन बावजूद इसके लाखों लोगों का सड़कों पर प्रदर्शन होता रहा। पुलिस अधिकारियों ने प्रदर्शनकारियों के आगे घुटने टेक जतलाया कि वे प्रदर्शनकारियों की भावना का सम्मान करते है। गर्नवरों ने अपने मूर्ख राष्ट्रपति की यह सलाह नहीं मानी कि सेना बुलाओ, गोली चलवाओ और लूटने वाले को शूट करो। ट्रंप प्रदर्शनकारियों की भीड़ के उपद्रवी चेहरों के बहाने शूटिंग चाहते थे ताकि लोग अन्याय को भूलें, समाज में कलह बने और विभाजकता से उनकी राजनीति के वोट पके। इन पंक्तियों को लिखने तक ट्रंप अपने मकसद में फेल हैं। गोरे-काले कंधे से कंधा मिला कर अमेरिका को इस बात के लिए आंदोलित करने में सफल हैं कि नस्ल भेद की सोच को खत्म करने के लिए सुधार करने होंगे। जिस मिनियापोलिस प्रदेश में घटना हुई उसके कानून विभाग ने न केवल गर्दन दबाने वाले गोरे पुलिसकर्मी पर हत्या का केस दर्ज कर उसे जेल भेजा, बल्कि उसको ऐसा करते देख रहे तीन पुलिसकर्मियों पर भी हत्या होने देने, हत्या में मददगार के गंभीर आरोपों के साथ जेल भेजा है। प्रदेशों में, विधिवेत्ताओं में नए कानून-व्यवस्था पर विचार हो रहा है। पूरा देश इस विचार, बहस में डूबा हुआ है कि वह क्या हो, जिससे जीने के अंदाज में, मिजाज में देश की संस्कृति को ऐसा बदला जाए कि नस्लीय भेद दिल-दिमाग में खत्म हो, मिटे!
ऐसी चिंगारी, ऐसे विचार, ऐसे साझा आंदोलन कितने समाजों में होते है? जिनसे अंततः मानवता का भला बनता है और इंसान संवेदना, बुद्धि व पुरुषार्थ से व्यवस्था को उतरोत्तर आजाद, समझदार बनाता जाता है!
ख्याल आएगा कि ऐसे समाज, ऐसे देश में डोनाल्ड ट्रंप का भला क्या काम? ट्रंप जैसा व्यक्ति ऐसे जीवंत लोकतंत्र में कैसे राष्ट्रपति है? ट्रंप अपने आप क्या आइडिया आफ अमेरिका का विलोम नहीं है? है भी और नहीं भी। अपना मानना है कि अमेरिकियों ने लिबर्टी की अपनी चिंता में डोनाल्ड ट्रंप को अपनाया। ट्रंप को राष्ट्रपति बनाना यदि अमेरिकी लोकतंत्र का पाप है तो मजबूरी इसलिए है क्योंकि इस्लाम ने पिछले बीस सालों में ऐसे स्थितियां बनाई है, जिससे अमेरिकी बुद्धि भी जकड़ गई। इस्लाम से हुई बरबादी का एक परिणाम हैं ट्रंप। अब यह पेचीदा और लंबा मसला है। सो इस पर अगले सप्ताह। (जारी)
अमेरिका से है दुनिया का जीना!
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