हाल के वर्षों में सरकारी एजेंसियां सिर्फ विपक्ष पर कार्रवाई करती नजर आई हैं। इस धारणा में भी दम है कि जैसे ही कोई कथित भ्रष्ट छवि का नेता सत्ताधारी दल से जुड़ता है, उसके खिलाफ पहले चल रही कार्रवाई पर विराम लग जाता है।
अगर देश में भ्रष्टाचार की समझ पर सहमति होती और उसके खिलाफ सरकार की लड़ाई पर सबको भरोसा होता, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सीबीआई के समारोह में दिए गए भाषण से देश में आश्वासन का बोध जगता। लेकिन मौजूदा माहौल में इससे विपक्षी खेमों में आशंका बढ़ेगी। इसे इस बात का संकेत माना जाएगा कि केंद्रीय एजेंसियों को विपक्ष के खिलाफ कार्रवाई को एक सरकारी नीति का रूप दे दिया गया है। ऐसी धारणा इसलिए है, क्योंकि हाल के वर्षों में ये एजेंसियां सिर्फ विपक्षी नेताओं पर ही कार्रवाई करती नजर आई हैं। इस धारणा में भी दम है कि जैसे ही कोई कथित भ्रष्ट छवि का नेता सत्ताधारी दल से जुड़ता है, उसके खिलाफ पहले चल रही कार्रवाई पर विराम लग जाता है। भ्रष्टाचार उन आरोपों का कुछ अता-पता नहीं चलता, जो भारतीय जनता पार्टी के शासन में लगे हैं। मसलन, इस मामले पर गौर कीजिए।
हाल में आई एक खबर के मुताबिक दो साल पहले तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के काजीरंगा दौरे के लिए बाघ संरक्षण कोष और एक अन्य वन्यजीव कोष से 1.64 करोड़ की रकम खर्च की गई। इसमें से एक दिन में करीब 50 हजार रुपए तो महज चाय पर ही खर्च हुए। बीते नवंबर में पशु अधिकार कार्यकर्ता रोहित चौधरी की ओर से आरटीआई के तहत दायर एक याचिका के जवाब में पार्क के निदेशक ने बताया था कि राष्ट्रपति और उनकी टीम के दो-दिवसीय काजीरंगा दौरे पर डेढ़ करोड़ से ज्यादा की रकम खर्च हुई थी। असम सरकार ने बीते रविवार को बाघ संरक्षण और दूसरे मद के पैसों को राष्ट्रपति के दौरे पर खर्च करने के आरोपों की जांच के आदेश दे दिए हैं। क्या बेहतर नहीं होगा कि यह जांच सीबीआई को सौंप दी जाए और सीबीआई उसी उत्साह से इस खर्च की जवाबदेही तय करने की दिशा में कदम उठाए, जैसा वह गैर-भाजपा शासित राज्यों में करती है? दरअसल, यह तो सिर्फ ताजा मामला है। ऐसी खबरें अक्सर आती हैं, लेकिन केंद्रीय एजेंसियों की नजर उन पर नहीं जाती। इसीलिए प्रधानमंत्री का बयान समस्याग्रस्त है। इससे केंद्रीय एजेंसियों की भूमिका और उनकी कार्रवाई पर संदेह और बढ़ेगा।