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एकरूपता थोपने की जिद

गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपालों की एक खास ढंग की सक्रिय भूमिका अब स्वीकार्य सीमा को पार करने लगी है। ऐसा पहले केरल और पश्चिम बंगाल में देखा जा चुका है। अब तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि एक बेजा विवाद के केंद्र में आए हैं।

तमिलनाडु विधानसभा में सोमवार को जो हुआ, वह कतई अच्छा संकेत नहीं है। इस घटना से राज्यपालों की भूमिका एक बार फिर सवालों के घेरे में आई है। गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपालों की एक खास ढंग की सक्रिय भूमिका अब स्वीकार्य सीमा को पार करने लगी है। ऐसा पहले केरल और पश्चिम बंगाल में देखा जा चुका है। अब तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि एक बेजा विवाद के केंद्र में आए हैं। पहले तो उन्होंने राज्य के नाम पर विवाद खड़ा किया। कहा कि तमिलनाडु से ज्यादा उचित नाम तमिलसगम होगा। अभी इस पर तमिलनाडु की पार्टियों का विरोध चल ही रहा था कि सोमवार को उन्होंने विधानसभा सत्र के पहले दिन अभिभाषण के कुछ हिस्से नहीं पढ़े, जबकि उसमें कुछ ऐसे कथन जोड़ दिए, जो अभिभाषण का हिस्सा नहीं थे। लेकिन इसे तमिलनाडु सरकार ने स्वीकार नहीं किया। राज्यपाल की उपस्थिति में मुख्यमंत्री स्टालिन ने मूल अभिभाषण को स्वीकार करने का प्रस्ताव पारित कराया। इससे खफा राज्यपाल ‘वॉकआउट’ कर गए। राज्यपाल ने जिन हिस्सों को पढ़ने से इनकार किया, उनमें से एक पैराग्राफ वह भी था, जिसमें पेरियार, अंबेडकर, कामराज और करुणानिधि की विचारधारा पर चलते हुए विकास के विशेष द्रविड मॉडल पर अमल की बात थी।

क्या एक राज्य में निर्वाचित सरकार को अपनी सोच के मुताबिक विकास नीति की बात करने का हक नहीं है? वर्तमान सत्ताधारी इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि भारत की राष्ट्रीय एकता अपनी विभिन्नताओं को स्वीकार करते हुए और उन्हें मान्यता देते हुए मजबूत हुई है। अपनी सोच और जीवन-शैली सब पर थोपने की कोशिश के विपरीत परिणाम होंगे। वर्तमान सत्ताधारी समूह की सोच का परिणाम एक बाद दूसरे विभेदों के खुलने और उन पर वैचारिक एवं जुबानी मोर्चाबंदी होने के रूप में सामने आ रहा है। इससे रोजी-रोटी के मूल सवालों को कुछ समय टालने में सहायता जरूर मिल रही है, लेकिन अंततः ये सवाल भी अधिक गंभीर रूप में खड़े होंगे, जबकि विभेदीय प्रश्नों को फिर से सुलझाना भी भारत के सामने एक बड़ी चुनौती बन जाएगा। बेहतर होगा, विभिन्न राज्यों में नियुक्त राज्यपाल इस बात को समझें और खुद को अपने संवैधानिक दायित्व के निर्वाह तक सीमित रखेँ।

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