बेबाक विचार

राज्यपालों का काम फैसले रोकना नहीं

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राज्यपालों का काम फैसले रोकना नहीं
देश आजादी का अमृत वर्ष मना रहा है और इन 75 बरसों में संभवतः पहली बार ऐसा हुआ है कि राज्यपालों के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन हो रहे हैं, काले झंडे दिखाए जा रहे हैं और मुख्यमंत्रियों के साथ जुबानी जंग चल रही है। पिछले दिनों तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि को कई जगह काले झंडे दिखाए गए। मेडिकल में दाखिले के लिए होने वाली अखिल भारतीय परीक्षा नीट से तमिलनाडु को बाहर करने के विधानसभा से पास प्रस्ताव को रोकने के विरोध में लोगों ने उनको काले झंडे दिखाए। इस बिल को राज्य की विधानसभा से आम सहमति से पास किया गया है। यानी पक्ष और विपक्ष दोनों चाहते हैं कि तमिलनाडु को नीट की परीक्षा से बाहर किया जाए। नीट के विधेयक के अलावा कुल 18 विधेयक ऐसे हैं, जिन्हें विधानसभा से पास किया गया लेकिन उन पर राज्यपाल की मंजूरी नहीं मिली है। अगर विधानसभा से पास किए गए प्रस्ताव इसी तरह राजभवन में रूकते रहे तो पूरा संवैधानिक ढांचा बिखर जाएगा। अराजकता  की स्थिति बनेगी और संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव के हालात पैदा होंगे। ऐसा नहीं है कि यह स्थिति सिर्फ एक राज्य की है। हर उस राज्य में, जहां भाजपा विरोधी पार्टियों की सरकार है वहां ऐसी ही स्थिति है। भाजपा विरोधी पार्टियों की सरकार चाहे गठबंधन की हो या प्रचंड बहुमत वाली सरकार हो, सबके कामकाज में राजभवन से बाधा डाली जा रही है। महाराष्ट्र में राज्य सरकार ने विधान परिषद की मनोनीत श्रेणी की 12 सीटों के लिए 12 नाम नवंबर 2020 में भेजे थे, जिन पर अभी तक फैसला नहीं हुआ है। राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने इन नामों की मंजूरी नहीं दी है। राज्यपाल पद की संवैधानिक गरिमा को देखते हुए बांबे हाई कोर्ट ने उन पर कोई कठोर टिप्पणी नहीं की लेकिन यह कहा कि ऐसे मामलों में फैसले करने की समय सीमा होनी चाहिए। इसके बावजूद राज्यपाल ने फैसला नहीं किया। पिछले दिनों एनसीपी के नेता शरद पवार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की तो उसके बाद कहा कि उन्होंने विधान परिषद सीटों पर मनोनयन की फाइल राज्यपाल के यहां रूके रहने के मसले पर बात की है। सोचें, हाई कोर्ट से लेकर प्रधानमंत्री तक इसकी शिकायत हो रही है लेकिन राज्यपाल फाइल रोक कर बैठे हुए हैं। बिल्कुल इसी श्रेणी के 12 नामों की सिफारिश बिहार सरकार ने भी प्रदेश के राज्यपाल को भेजी थी, जिसे 24 घंटे में मंजूरी मिल गई थी। लेकिन महाराष्ट्र में 18 महीने से फाइल लंबित है। पश्चिम बंगाल, केरल, झारखंड आदि राज्यों में राज्यपाल और दिल्ली में उप राज्यपाल के साथ राज्य सरकारों के विवाद की कहानी भी देश को पता है। इन राज्यों में भी सरकारों के फैसले रूक रहे हैं या राजभवन से सरकार के कामकाज में बाधा डाली जा रही है। कई राज्यों में राज्यपाल ही मुख्य विपक्षी पार्टी या नेता विपक्ष हो गए हैं। मुख्यमंत्रियों और सत्तारूढ़ दल के नेताओं के साथ ज्यादा जुबानी जंग उन्हीं की होती है। हैरानी की बात है कि जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं वहां इस तरह का कोई विवाद नहीं है। वहां कोई फैसला या फाइल नहीं रूक रही है और न किसी मामले में राज्यपाल का बयान सुनने को मिलता है। बड़ी से बड़ी घटना पर भी राज्यपाल चुप रहते हैं लेकिन विपक्षी शासन वाले राज्यों में मामूली बातों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाला बयान आ जाता है। बहरहाल, राजनीतिक बयानबाजी और सरकारों पर राज्यपालों द्वारा हमला भी पद की गरिमा  गिराने वाला है लेकिन उससे ज्यादा सरकारों के फैसले रोकना चिंताजनक है। राज्यपाल का काम सरकारों के फैसले रोकने का नहीं है। कायदे से तो राज्यपालों का कोई काम ही नहीं है। राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों का पद सजावटी होता है, जिसे शोभा के लिए रखा गया है। कई बार इस पर बहस हो चुकी है कि राज्यपाल का पद होना चाहिए या नहीं। आजादी के बाद जब पहली बार 1959 में राज्यपाल बरगुला रामकृष्ण राव की सिफारिश पर केरल की चुनी हुई ईएमएस नंबूदरीपाद की सरकार बरखास्त हुई थी तब डीएमके के संस्थापक नेता सीएन अन्नादुरैई ने कहा था कि राज्यपालों की कोई जरूरत नहीं होती है। उन्होंने तमिलनाडु के एक स्थानीय मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कहा था- राज्यपालों की कोई जरूरत नहीं होती है, वैसे ही जैसे बकरे को दाढ़ी की जरूरत नहीं होती है। Opposition Hindutva politics Read also यक्ष प्रश्नों में जकड़ा मनुष्य असल में भारत में शासन का मॉडल ब्रिटेन से लिया गया है। फर्क यह है कि वहां देश का प्रमुख महारानी हैं और भारत में राष्ट्रपति। इस फर्क की वजह से भारत गणतंत्र है और ब्रिटेन गणतंत्र नहीं है। लेकिन महारानी और राष्ट्रपति के अधिकारों में कोई फर्क नहीं है। ब्रिटेन की महारानी के अधिकारों को लेकर वहां के संविधान के एक जानकार ने कहा था- अगर ब्रिटेन की संसद महारानी की मौत का आदेश भी भेजे तो महारानी को उस पर दस्तखत करना होगा। भारत के बारे में भी कमोबेश यह बात सही है। संसद कोई भी प्रस्ताव राष्ट्रपति को भेजेगी तो उन्हें अंततः उस पर दस्तखत करना होता है। ऐसे ही राज्यों में अगर विधानसभा कोई प्रस्ताव राज्यपाल के पास भेजती है तो अंततः उसे मंजूरी देना होता है। लेकिन भारत में इसका उलटा हो रहा है। जहां विपक्षी पार्टियों का शासन है वहां राज्यपाल विधानसभा के प्रस्तावों को रोक रहे हैं और कानून बनाने के रास्ते में बाधा डाल रहे हैं। यह सिर्फ एक प्रशासनिक मामला नहीं है कि राज्यपाल कोई प्रस्ताव रोक दें या सरकार के कामकाज पर टिप्पणी करें, बल्कि यह लोकतंत्र की बुनियादी धारणा को चुनौती है। लोकतंत्र में अंतिम सत्ता लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों के पास होती है। अगर चुने हुए प्रतिनिधि कोई कानून बनाना चाहते हैं तो राज्यपाल उसे नहीं रोक सकता है। सुप्रीम कोर्ट जरूर संविधान के नजरिए से उस कानून की व्याख्या कर सकती है क्योंकि संविधान से उसे न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार मिला हुआ है। राज्यपाल को ऐसा कोई अधिकार नहीं है। चेक एंड बैलेंस के लिए राज्यपाल किसी विधयेक को एक बार वापस कर सकते हैं लेकिन उन्हें अंततः उस पर मंजूरी देनी होती है। लेकिन एक संवैधानिक लूपहोल का फायदा उठा कर राजनीतिक कारणों से विपक्षी शासन वाली सरकारों के विधेयक रोके जा रहे हैं। यह लूपहोल समय सीमा का है। महाराष्ट्र में राज्यपाल की ओर से हाई कोर्ट में भी यहीं कहा गया है कि राज्यपाल की किसी समय सीमा में फैसला करने की बाध्यता नहीं है। सोचें, अगर समय सीमा की बाध्यता नहीं है तो क्या विधायिका का कोई फैसला अनंतकाल तक लंबित रखा जा सकता है?
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