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बेबाक विचार

चलती का नाम गाड़ी

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अस्वीकरण: आप जो पढ़ने जा रहे हैं, वह काल्पनिक है, और नहीं भी। कथानक और पात्र इसलिए गढ़े गए हैं ताकि उस संवाद को वर्णित किया जा सके, जो हर परिवार में होना चाहिए। परंतु यह होता नहीं है। अप्रसन्न भारत की चिंताएं जायज हैं और उन्हें दूर किया जाना चाहिए। परंतु यह होता नहीं है। अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए आगे पढ़िए। अगर आप सहमत हैं तो आप समझदार हैं और वास्तविक अमृतकाल की तलाश में हैं। अगर आप असहमत हैं तो आपको कलयुग मुबारक।

पर्दा उठता है

सुश्री रीमा अपने ट्विटर पर वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स पढ़ रही हैं और कुछ बुदबुदाती जा रही हैं। ‘फिनलैंड लगातार छठे साल नंबर वन। ये तो होना ही था। यूक्रेन 92 नंबर पर और रूस 70वें- बड़ी अजीब बात है’।

फिर अचानक उनके तेवर बदल जाते हैं। “क्या! भारत 126वें नंबर पर। और पाकिस्तान 108वां। वह तुच्छ देश, वह भ्रष्ट देश जो हमेशा लड़ता रहता है, जो हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है- वह हम से ज्यादा खुश है”। रीमा अवसाद में डूबती जा रही हैं। पर नहीं, उन्हें दुखी क्यों होना चाहिए, उन्हें तो गुस्सा आना चाहिए। फिर गुस्से से भरकर वे अपने कंप्यूटर के कीबोर्ड पर टूट पड़ती हैं और अपनी घोर निराशा को अपने 1,01,000 फॉलोअर्स के साथ साझा करने लगती हैं। ‘‘हम लोग तो बहुत दुःखी हैं, हम हैप्पीनेस इंडेक्स में 126वें नंबर पर हैं। यह तो चिंता का विषय है”।

ट्विट करने की देर थी और सुश्री रीमा की सबसे अच्छी सखी सुश्री टीना का मैसेज फोन पर आ पहुंचता है। ‘‘स्वीटी, कभी खुशी कभी गम…क्या तुम्हें करण जौहर की 210 मिनट की वह फिल्म याद नहीं है, वही जो 2001 में आई थी। खुशी तो केवल एक भाव है। और वह कभी हमेशा किसी के साथ नहीं रहता। ये रिपोर्टें किसी काम की नहीं हैं”।

ट्विटर गुलजार था। सुश्री टीना की तर्ज पर कई लोग अपनी भड़ास निकाल रहे थे।

‘‘पश्चिम की सारी रिपोर्टें राजनीति से प्रेरित होती हैं”।

‘‘ये रिपोर्टें हमारे प्रधानमंत्री को बदनाम करने के लिए लिखी जातीं हैं”।

“खुशी तो अंदर से आती है, इंडेक्स-विन्डेक्स सब बकवास है”।

‘‘मुझे तो लगता है उन्होंने केवल उदारवादियों से बात की होगी”।

और आरोपों और लांछनों का यह सिलसिला चलता रहता है।

कुछ लोगों के ख्याल अलग हैं। वे इंडेक्स पर प्रश्न उठाने वालों पर प्रश्न उठा रहे हैं। “शायद उन्होंने राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक प्रगति को ध्यान में नहीं रखा”।

सुश्री रीमा ने इसका जवाब दिया- ‘‘ईश्वर का शुक्र है उन्होंने ऐसा नहीं किया। वरना भारत और नीचे खिसक जाता। हमारे यहां प्रजातंत्र कागज पर है और अर्थव्यवस्था की हालत पतली है”।

दृश्य दोः सुश्री रीमा और उनकी माताजी चर्चारत हैं।

‘‘काश मैं फिनलैंड में पैदा हुई होती। कितना अच्छा होता, मैं कितनी खुश होती”। सुश्री रीमा ने अपनी माताजी से कहा। ‘‘हाय…ऐसा क्यों? फिनलैंड में ऐसा क्या है जो भारत में नहीं है। अब तो सारे ब्रांड यहां आ गए हैं और सुख सुविधा भी है- घर का काम करने के लिए राधा है, ड्राइवर है…फिनलैंड में ये सब नहीं मिलेगा”। “मॉम, मुझे लगता है कि फिनलैंड के लोग खुश ही इसलिए हैं क्योंकि उनके पास ये सुख-सुविधा नहीं है। सुख-सुविधा केवल सिरदर्द देती है। याद करो जब राधा या ड्राइवर एक दिन भी नहीं आते तो आप कितनी स्ट्रेस्ड हो जाती हो। आपका बीपी आसमान छूने लगता है”।

जाहिर है कि माताजी को यह बात पसंद नहीं आई। वे फट पड़ीं, ‘‘और क्या तुम्हारा बीपी नहीं बढ़ता? ज्ञान मत बांटो। फिनलैंड और दूसरे पश्चिमी देशों में घर के पुरूष और बच्चे घर के काम में एक बराबर हाथ बंटाते हैं। वे बराबरी की केवल बात नहीं करते। सबको बराबरी का दर्जा देते भी हैं। वहां लोग अपनी देखभाल खुद करते हैं। यहां तो अपने मतलब से दूसरों की देखभाल की जाती है”।

माताजी सही ही कह रही थीं। आखिर फिनलैंड इतना खुश क्यों है, इस पर शोध करते समय सुश्री रीमा की नजर ‘द इकोनॉमिस्ट’ में छपे एक लेख पर पड़ी थी। लेख का शीर्षक ही था, ‘व्हाय इज फिनलैंड सो हैप्पी’? और उसमें वहां प्रचलित एक कहावत का हवाला दिया गया था। वह कहावत थी, “खुशी का मतलब है लाल रंग का अपना खुद का समर कॉटेज और आलू का एक खेत”। वहां शिक्षा मुफ्त है, अभिभावकों को बच्चों की देखभाल के लिए खूब छुट्टियां मिलती हैं और काम व मजा-मौज के बीच बढ़िया संतुलन है। इसका नतीजा यह है कि लोगों को वह सब करने के लिए पर्याप्त समय और साधन मिलते हैं जो उन्हें खुशी देती है। फिर चाहे वह बहुत साधारण काम क्यों न हो। फिनलैंड में भौतिक सुख-सुविधा हो या न हो, वहां के लोगों को अपनी प्रसन्नता हासिल करने का पूरा मौका उपलब्ध है।

सुश्री रीमा सोच रही थीं कि मुझे तो हर तरह के सहायक उपलब्ध हैं फिर भी मैं पॉटरी की अपनी हॉबी के लिए समय नहीं निकाल पाती।

इस बीच ट्विटर पर घमासान मचा हुआ है। विवेक अग्निहोत्री ने अभी-अभी ट्विट किया है, ‘‘ये सारे इंडेक्स बकवास हैं। वे लोगों से जो प्रश्न पूछते हैं वे इतने पश्चिमी होते हैं, जिसकी कोई सीमा नहीं। पश्चिमी देशों के लोगों से पूछो, ‘हफ्ते में कितने दिन तुम अपने परिवार के साथ खाना खाते हो’ या ‘क्या तुम अपने जीवन भर यह भरोसा कर सकते हो कि जरूरत पड़ने पर तुम्हारा परिवार तुम्हारी मदद करेगा’। बस ऐसे प्रश्न पूछो और आप देखोगे कि पश्चिमी देश हैप्पीनेस इंडेक्स में सबसे नीचे हैं और भारत सबसे ऊपर”।

मिस्टर विवेक अग्निहोत्री किस्मत वाले हैं। शायद वे ऐसे किसी व्हाट्सऐप ग्रुप के सदस्य नहीं हैं, जिसमें राजनीतिक बहसबाजी के कारण व्यक्तिगत रिश्तों में कड़वाहट घुल रही है। नए भारत में एक साथ भोजन करना अनिश्चितकाल के लिए मुल्तवी कर दिया गया है क्योंकि पिता देश में मरणासन्न प्रजातंत्र पर इसलिए चर्चा नहीं कर सकते क्योंकि उनके सूट वाले दामाद इस सरकार के खिलाफ एक शब्द सुनने को तैयार नहीं हैं। या हो सकता है कोई मौसाजी सभी रिश्ते-नाते तोड़ने को तैयार हो जाएं अगर भारत के राजा या उसके राज के बारे में एक भी गलत शब्द कहा जाए। नए भारत में परिवार भी कैम्पों में बंट गए हैं- वामपंथी और दक्षिणपंथी। और खाने की मेज पर भी अब खुली और खरी बातचीत नहीं होती। बाप रे, एक साथ मिलकर खाना खाने के इंडेक्स पर भी हम काफी नीचे चले गए हैं।

सुश्री रीमा आसानी से हार मानने वालों में से नहीं हैं। उन्होंने और शोध किया और फिर उन्हें पता चला कि हैप्पीनेस इंडेक्स में किन बातों को शामिल किया गया है- प्रति व्यक्ति आय, सामाजिक सहायता, स्वस्थ रहते हुए जीवन प्रत्याशा, अपनी पसंद से जीने की स्वतंत्रता, उदारता और भ्रष्टाचार के होने या न होने के संबंध में व्यक्ति की सोच।

‘‘स्वीटी, देखो मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि यह सब धोखा है,” कॉफी पर चर्चा में सुश्री रीमा की सबसे अच्छी सहेली ने फरमाया। ‘‘हम दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। उस देश से ऊपर जो कभी हम पर राज करता था। अब हम उस पर राज करते हैं”।

‘‘तो मतलब तुम्हारा काम-धंधा दिन दोगुना रात चौगुना बढ़ रहा है। बैंक का एकाउंट ओवरफ्लो हो रहा है, क्यो”? सुश्री रीमा ने सवाल उछाला।

‘‘अब मेरा मुंह न खुलवाओ”, सहेली का मूड बदल चुका था। ‘‘जीएसटी और बढ़ते खर्च के कारण पुराना धंधा तो बैठ गया और हम बन गए एमएसएमई। सिर्फ 10 लाख के लोन के लिए दरख्वास्त दी पर खारिज हो गई। उन्होंने कहा वे यही नहीं समझ पा रहे हैं कि मैं क्या धंधा करती हूं। उन्हें अदानी का बिजनेस मॉडल समझ में आता है। पर यह समझ में नहीं आता कि मैं दस्तकारी उत्पाद निर्यात करती हूं”।

सुश्री रीमा की आवाज हमदर्दी से भरी हुई थी, ‘‘पर तुम खुश तो हो न”?, उन्होंने पूछा।

सहेली समझ तो गई कि उस पर तंज कसा जा रहा है। हंसकर बोली, ‘‘हां, हूं. मैंने अभी-अभी एक बीगल खरीदा है और उसका नाम हैप्पी रखा है। मैं एकदम हैप्पी-हैप्पी हूं”।

मौसम अचानक बदल गया। वसंत में बरसात आ गई।

भारत का मौसम कितना अच्छा है। शिमला से लेकर गोवा और गोवा से लेकर मेघालय तक हम कितने अलग-अलग तरह के मौसम का मजा ले सकते हैं। फिनलैंड को देखो। वहां पूरे साल टेम्परेचर माइनस 20 रहता है। हमेशा अंधेरा सा छाया रहता है, मनहूसियत सी रहती है। फिर भी वे खुश हैं। भारत में इतनी शानदार समुद्र तट हैं और इतने सुंदर पहाड़ हैं फिर भी हम खुश नहीं हैं”।

तभी गोवा के फ्लैट के केयरटेकर पप्पू का फोन आता है। ‘‘बरसात शुरू होने से पहले और दिल्ली की हवा के जहर (वह दिल्ली की प्रदूषित धुंध की बात कर रहा है) बन जाने से पहले मकान को मरम्मत की जरूरत है”।

‘‘अभी तो मार्च ही है। बहुत समय है। पेरेंट्स तो नवंबर में वहां पहुंचेंगे”। ‘‘फिर लेबर नहीं मिलेगी…” उसने कहा और बीच में आने वाले त्योहारों, शादी के मौसम और ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा की। फिर वह बोला ‘‘और अभी वह कोहली भी नहीं है। वह आ जाएगा तो आप जानती हो वो कितनी चिकचिक करता है। वह हम से जलता है। काम नहीं करने देता”।

पप्पू ने अभी-अभी, जाने-अनजाने भारत के अनहैप्पीनेस इंडेक्स में ऊपर होने का सबसे बड़ा कारण बता दिया था- असुरक्षा का भाव। भारत का मौसम शानदार है, उसकी संस्कृति धर्मनिरपेक्ष और दूसरों का खुले दिल से स्वागत करने वाली होने का दावा करती है परंतु हम फिर भी 126वें नंबर पर इसलिए हैं क्योंकि हमारे यहां सहयोग नहीं है। केवल स्पर्धा है, जलन है और तंगदिली है। हम अनावश्यक तकरारों में फंसकर खुशी को अपने पास फटकने तक नहीं देते। हम लगातार अफवाहें उड़ाते रहते हैं, दूसरों को नीचा दिखाने का मौका ढूंढते रहते हैं। चाहे वह हमारा दोस्त हो, भाई हो या लड़की। फिनलैंड के लोग समस्याओं से निपटने का तरीका जानते हैं। वे समस्याओं को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते। हम भी समस्याओं से निपटते हैं पर एक दूसरे तरीके से। हम उन्हें नजरअंदाज करते हैं। हम ऐसा अभिनय करते हैं मानो हमारे देश में न कोई सामाजिक समस्या है, न कोई भावनात्मक समस्या है और ना ही हमारे प्रजातंत्र के समक्ष कोई समस्या है। समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, विविधता की स्वीकार्यता और हिंसा का अस्वीकार, खुशहाल जिंदगी को परिभाषित करते हैं। परंतु हमें यह मालूम ही नहीं है कि अच्छी जिंदगी क्या होती है।

‘‘पप्पू तुम तो खुश हो ना”? सुश्री रीमा पूछती हैं।

‘‘कौन बोलता है कि वह दुखी है। जिंदगी चल रही है, चलती का नाम जिंदगी है”।

दरअसल खुशी दिखती नहीं, दुख दिखता है। कोई जोर-जोर से चिल्लाकर नहीं कहता कि वह खुश है। खुशी दरअसल एक तरह की अपेक्षा है- बर्फबारी के बाद सर्फिंग करना या बर्फ पिघलने के बाद गुलाब के पौधे रोपना। भारत में खुशी अयोध्या में राम मंदिर है और मुफ्त राशन, मुफ्त पानी और मुफ्त बिजली है। एक सौ चालीस करोड़ लोगों का अमृतकाल चल रहा है। पर सुश्री रीमा के लिए यह कलयुग है।

कहीं दूर किशोर कुमार और मन्ना डे का गाना बज रहा है– “बाबू समझो इशारे…टूटी फूटी सही चल जाए ठीक है, सच्ची झूठी सही चल जाए ठीक है”।

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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