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गपशप

पुतिन, जिनफिंग से पल्ला छूटा?

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यह हेडिंग कूटनीति के मिजाज में सही नहीं है। एक सियासी शीषर्क है। मगर भारत की विदेश नीति की हाल में जो नई दिशा बनी है वह वैश्विक मायने वाली है। पहले जापान, ऑस्ट्रेलिया में प्रधानमंत्री मोदी की पश्चिमी नेताओं के साथ गलबहियां हुईं! फिर इस सप्ताह चीन की छत्रछाया के शंघाई सहयोग संगठन की दिल्ली शिखर बैठक को भारत ने रद्द किया। अचानक सब तैयारियों, न्योता देने के बाद भारत ने जुलाई में पुतिन और शी जिनफिंग, शहबाज शरीफ आदि की प्रत्यक्ष मेजबानी से किनारा काटा। सभी नेताओं की प्रत्यक्ष उपस्थिति की बजाय तीन-चार घंटों की मोदी की अध्यक्षता में एक ‘वर्चुअल मीटिंग’ से औपचारिकता पूरी करने का फैसला हुआ। जाहिर है भारत ने रूस-चीन की उस धुरी से पिंड छुड़ाने का वैश्विक मैसेज दिया है, जिससे पश्चिम की ठनी है। क्या कल्पना कर सकते है कि सितंबर में निर्धारित जी-20 के शिखर सम्मेलन को लेकर प्रधानमंत्री ऐसा नरेंद्र मोदी करें?

ध्यान रहे जुलाई से पहले 19 से 24 जून को प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका जा रहे हैं। जो बाइडेन अपनी सोच व मिजाज से पलट नरेंद्र मोदी का व्हाइट हाउस में शाही स्वागत करेंगे। मोदी 22 जून को अमेरिकी कांग्रेस की साझा बैठक को संबोधित करेंगे। इसके बाद 14 जुलाई को मोदी फ्रांस की नेशनल डे परेड के मेहमान है। मई महीने की इन बातों को भी ध्यान में रखें कि जापान में जी-सात के अमीर देशों ने नरेंद्र मोदी को कितना गले लगाया। बाइडन ने ऑटोग्राफ मांगा। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने मोदी को ‘बॉस’ कहा। ऑस्ट्रेलिया के करीबी टापू के बगल के प्रधानमंत्री ने मोदी के पांव छूए। जब पश्चिमी देश प्रधानमंत्री की मार्केटिगं की, उन्हें पटाने की ऐसी मनभावक भाव-भंगिमा दर्शा रहे हैं तो नरेंद्र मोदी भला क्यों पुतिन- शी जिनफिंग जैसे मवालियों की मेजबानी करें?

कुल मिलाकर पश्चिम बनाम पुतिन-शी जिनफिंग की आर-पार की लड़ाई में भारत ने दुनिया को जतला दिया है कि रूस व चीन से लेन-देन के स्वार्थी रिश्ते भले चलते रहें (ऐसे रिश्ता चलाना रूस व चीन की भी मजबूरी है) लेकिन उसका पक्का पाला अब पश्चिमी देशों का है। यूक्रेन-रूस की लड़ाई के बाद विश्व राजनीति बदली है, और पश्चिमी देशों ने रूस और चीन की धुरी के खिलाफ मोर्चा खोला है तो इसके आरंभ में मोदी-जयशंकर ने बहुध्रुवीय याकि मल्टीपोलर विश्व व्यवस्था जैसे जुमलों की जो हवाबाजी की थी उसे अब भारत हाशिए में डाल पश्चिम के अमीर जी-सात देशों की धुरी से जा चिपका है। मैं इसे भारत हित में मानता हूं। चाइनीज-इस्लामी सभ्यता की भावी चुनौतियों के सिनेरियो में दशकों से मैं भारत-पश्चिम की नैसर्गिक केमिस्ट्री की वकालत करता रहा हूं। तभी मेरी राय में अब वह मोड़ है जो जून में अमेरिका से भारत का शस्त्र प्रणालियों की खरीद या साझा उत्पादन के कारण हो। वे सौदे जिससे रूस पर भारत की हथियार निर्भरता खत्म हो।

प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिकी यात्रा में जरूरी हथियार खरीद की कई सहमतियां मुमकिन हैं। एक अनुमान के अनुसार अमेरिका से भारत की हथियार खरीद 25 अरब डॉलर के आंकड़े को पार कर जाएगी। भारत के हल्के लड़ाकू विमान तेजस एमके-2 प्रोजेक्ट के लिए जनरल इलेक्ट्रिक के एफ-15 इंजन के साझा उत्पादन की बाइडेन प्रशासन मंजूरी दे सकता है। इससे फिर आगे नौसेना के जहाजों के इंजन में भी सहयोग मुमकिन होगा। भारत की एडवांस्ड मीडियम लड़ाकू विमान (एएमसीए) योजना में ब्रितानी रॉल्स रॉयस कंपनी और एक अमेरिकी कंपनी की पेशकश भी आगे बढ़ सकती है। रक्षा समझौतों के कार्यान्वयन और भारतीय वायु सेना और नौसेना के लिए लड़ाकू विमानों के प्रोजेक्टों पर बुनियादी सहमतियां संभव हैं। जैसे नौसेना, सेना और वायु सेना सभी की तात्कालिक जरूरत के जनरल एटॉमिक्स से 30 एमक्यू-9 बी प्रीडेटर ड्रोन लेने का सौदा है। इस पर लंबे समय से बात हो रही है। इनके साथ यदि पुरानी रक्षा प्रणालियों की खरीदारी याकि सी-130जे सुपर हरक्यूलिस परिवहन विमान, सी17 ग्लोबमास्टर, बोइंग के एएच-64अपाचे लड़ाकू हेलीकॉप्टर, चिनूक सीएच-47 हेलीकॉप्टर, पी-8आई समुद्री निगरानी विमान और एम-777 होवित्जर की लिस्ट बने तो पश्चिमी देशों से भारत का सैनिक सहयोग रूस की जगह लेता हुआ दिखेगा।

ध्यान रहे यह काम कोई मोदी सरकार की बदौलत नहीं है, बल्कि 2012 में भारत-अमेरिका के बीच बने रक्षा तकनीक व व्यापार की पहल (डीटीटीआई) के फ्रेमवर्क में आगे बढ़ा है। रक्षा प्रणालियों के सह-विकास और सह-उत्पादन को बढ़ावा देने का पहले से तैयार साझा मंच। इसमें विमानवाहक, जेट इंजन और रासायनिक-जैविक सुरक्षा जैसी खास तकनीक के क्षेत्रों में वर्किंग ग्रुप भी बने हुए हैं। तकनीक ट्रांसफर होती हुई है। एक और तथ्य कि अमेरिका और भारत में परस्पर हथियार सहयोग में भारतीय मूल के अमेरिकी एयरोस्पेस वैज्ञानिक डॉ. विवेक लाल की कोशिशें अब रंग लाती हुई हैं। सन् 2007 से डॉ. लाल बोइंग के आला प्रभावी के रूप में अमेरिका-भारत रक्षा व्यापार बढ़वाने की कोशिशों से जुटे रहे हैं। अपना मानना है कि यूक्रेन-रूस की लड़ाई के बाद की परिस्थितियों से यह मौका बना है, जिससे साझा सैनिक, रक्षा व्यापार और सहयोग में तेजी आई है। आखिर भारत हो या दुनिया के बाकी देश, सभी तो जान-देख रहे हैं कि यूक्रेन से लड़ते हुए रूसी टैंकों का कैसा कब्रिस्तान बना। उसके ड्रोन, हवाई हमले कैसे फेल होते हुए हैं। रूस की दशा देखें, जो ईरान से ड्रोन ले रहा है और उसके ड्रोन को यूक्रेन सैकड़ों की संख्या में आकाश में ही उड़ा दे रहा है।

कुल मिलाकर मोदीजी की जय, पश्चिमी नेताओं के साथ का उनका फोटोशूट भारत को अमेरिका के संरक्षण में ले जा रहा है!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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