
जब कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर से देश में कोहराम मचा है, तो सोशल मीडिया पर एक तबके की तरफ से ये बात बार-बार कही जा रही है कि अगर देश में लोग मंदिर- मस्जिद के मुद्दे पर वोट डालते हैं तो अब अस्पतालों के लिए क्यों रो रहे हैं? ये बात अपनी जगह गलत नहीं है। लेकिन जहां तक अस्पतालों या स्वास्थ्य सेवाओं की बात है, तो यह कहना एकांगी है। पूरी तस्वीर यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं से सरकार ने हटना 1991 में अपनाई गई नई आर्थिक नीति के बाद ही शुरू कर दिया था। उसके बाद से स्वास्थ्य सेवाओँ का निजीकरण हुआ। स्वास्थ्य सुविधाओं का दूरदराज तक जाल बिछाने के बजाय बीमा से सुरक्षा देना सरकारों की नीति बन गई। इसी नीति पर मोदी सरकार भी आगे बढ़ी है। यह ठीक है कि कोरोना महामारी आने के बाद उसके पास जरूरी इंतजाम करने का वक्त था। लेकिन पिछला एक साल उसने गंवा दिया। नतीजतन, अब देश में कुछ भी काबू में नहीं है। लोग अपने भाग्य भरोसे हैं। जो बच गया, सो बच गया।
बहरहाल, जब बात अस्पतालों की होती है, तो ये ध्यान में रखना चाहिए खुद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में 76.1 फीसदी विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी है। जबकि ऐसे केंद्रों को ही भारत की ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ माना जाता है। यह 30 बेड का अस्पताल होता है। इसमें चार मेडिकल स्पेशलिस्ट- सर्जन, फिजिशियन, स्त्री रोग विशेषज्ञ और एक बच्चों का डॉक्टर होता है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रहे 5,183 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 76.1 फीसदी स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की कमी है। क्या ये कमी एक दिन में हो गई? क्या कभी ये राजनीतिक मुद्दा बना? मीडिया हो या राजनीतिक पार्टियां क्या कभी उन्होंने ऐसे सवालों को प्राथमिकता दी? इसके उलट देश आईडेंटिटी पॉलिटिक्स में फंसा रहा है। जातीय पहचान से लेकर धार्मिक पहचान की राजनीति लाभदायक बनी रही है। उसका परिणाम शिक्षा क्षेत्र में भी देखने को मिला है। रोजगार का ढांचा भी आज इसीलिए चरमराया हुआ है। अब जब महामारी आई है, तो स्वास्थ्य व्यवस्था और बीमा आधारित नीति की पोल खुल गई है। ये सामने आ गया है कि ‘कब्रिस्तान बनाम श्मशान’ जैसे मुद्दों पर आधारित किसी देश या समाज को कहां ले जा सकती है।