यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में पांच साल से कम उम्र के 8.80 लाख बच्चों की मौत भारत में हुई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि चार करोड़ बच्चे या तो कुपोषित हैं या मोटापे से पीड़ित हैं। बच्चों की मौत का एक बड़ा कारण इलाज के बदतर इंतजाम हैं। मसलन, राजस्थान के बाद गुजरात में भी बच्चों की मौत के मामले सामने आए। केवल राजस्थान में ही दिसंबर महीने की शुरुआत से 7 जनवरी तक 109 बच्चों की मौत सरकारी अस्पताल में हो गई। गुजरात के राजकोट और अहमदाबाद के सिविल अस्पतालों में पिछले एक महीने में ही करीब 200 बच्चों की मौत हुई। सरकारी अस्पतालों में बच्चों की मौत के बाद ऐसी रिपोर्टें आईं, जिनमें अस्पताल में 50 फीसदी जीवन रक्षा यंत्र को खराब पड़ा बताया गया। साथ ही यह खुलासा भी हुआ कि अस्पताल में कर्मचारियों की बहुत कमी है। राजस्थान और गुजरात जैसे बड़े राज्यों में बच्चों की मौत से देश में स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय हालत पर सवाल खडे़ हो रहे हैं। इसके पहले गोरखपुर के अस्पताल में बच्चों की मौत की घटना बहुचर्चित हुई थी। जानकारों का कहना है कि अस्पतालों में गंदगी और सुविधाओं की कमी भी मौत का कारण हो सकते हैं। इसी के साथ दिसंबर महीने में पूरा उत्तर भारत कड़ाके की ठंड की चपेट था।
मीडिया में बच्चों की मौत की खबरें आने के बाद अस्पताल में भर्ती मरीजों को कंबल और रूम हीटर मुहैया कराया गया। ऐसा पहले किया गया होता, तो बहुत से बच्चों की जान बचाई जा सकती थी। दिसंबर में राजकोट के सरकारी अस्पताल में जहां 111 नवजातों की मौत हुई, वहीं अहमदाबाद के सरकारी अस्पताल में 88 बच्चों की मौत हुई है। गुजरात जानकारों के मुताबिक नवजात शिशुओं के कम वजन, अस्वस्थ माता, अनुचित गर्भावस्था प्रथा, मां और शिशु के स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता की कमी मौतों का कारण हो सकते हैं। राज्य सरकार का दावा है कि गुजरात सरकार बाल मृत्युदर और नवजात शिशुओं की चिकित्सा सुविधा पर पहले से ही विशेष ध्यान दे रही है और यही कारण है कि राज्य में मृत्युदर में कमी आई है। मगर इसे सियासी बयान ही माना गया। सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सरकार पर लापरवाही के आरोप लगाया है। उन्होंने सरकार पर असंवेदनशील होने का इल्जाम लगाया। हकीकत यही है कि अस्पतालों के हालात बेहद खराब और चिंताजनक है, अस्पताल के अंदर जाना भी मुश्किल है। ऐसे में यूनिसेफ की रिपोर्ट कतई हैरतअंगेज नहीं है।