बेबाक विचार

ऐसा इंसानी जज्बा! सलाम

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ऐसा इंसानी जज्बा! सलाम
इंसान के जानवर से अलग होने का मानवीपना क्या है? सवाल पर दो इमेज में विचार करें? एक तरफ ईरान के सर्वशक्तिमान अयातुल्ला अली खामेनेई और दूसरी तरफ 22 साल की ईरानी लड़की महासा अमीनी। इन दोनों की इमेज से क्या जवाब उभरता है? एक तरफ इंसान होते हुए भी मनुष्यों से भेड़-बकरियों वाला व्यवहार चाहना तो दूसरी की यह जिद्द की मैं इंसान हूं तो इंसान की तरह जीना चाहती हूं। तभी ईरान में गजब होता हुआ है। एक महीने से अधिक समय हो गया है लेकिन ईरान की धर्म सत्ता का दिल महिलाओं की आजादी की मांग के लिए नहीं पसीजा! 16 सितंबर को ईरान की नैतिकता याकि मोरैलिटी पुलिस के टार्चर से 22 साल की एक लड़की महासा अमीनी की मौत हुई। उसे पुलिस ने सिर को हिजाब से सही ढंग से कवर नहीं करने के कसूर में जेल में डाला था। उसकी मौत की खबर मानो चिंगारी! ईरानी लड़कियों, महिलाओं में भभका फूट पड़ा कि हमें इतनी भी फ्रीडम नहीं! हम इंसान है या जानवर? और लड़कियां, स्कूली लड़कियां सभी सड़कों पर उतर आईं। सार्वजनिक तौर पर महिलाओं ने सिर मुंडा कर जीवन जीने की बेसिक आजादी का क्रांति बिगुल बजाया। किसके खिलाफ? उस सुप्रीम धर्मगुरू की धर्मसत्ता व तंत्र के खिलाफ, जिसने विश्व में फांसी की सजाओं का रिकार्ड बनाया है, जिसने 1979 की राजशाही के खिलाफ जनता की क्रांति को मौलानाओं की तानाशाही में बदला है! महिलाएं-नौजवान मस्जिदों के आगे, अयातुल्लाह के खिलाफ ‘डिक्टेटर तेरा सत्यानाश हो’ के नारे लगा रहे हैं। नौजवान लड़कियां सिर के बाल काट कर मोरैलिटी पुलिस को चुनौती दे रही हैं। वे हिजाब फेंक बिना काले बुर्के के नंगे सिर सड़कों पर प्रदर्शन कर रही हैं। पुलिस की गोली व हिंसा से कितने ईरानी मरे, कितने घायल हुए कितने हजार गिरफ्तार हुए, इसकी अधिकृत खबरें इसलिए नहीं हैं क्योंकि सरकार ने इंटरनेट बंद कर रखा है। हर तरह की सेंसरशिप है। बावजूद इसके नौजवान ईरानी जज्बे को सलाम, जो दुनिया को जैसे-तैसे वीडियो और खबरें भेजते हुए अपील कर रहे हैं कि हमें बचाओ, हमारी मदद करो। पर कौन मदद करे? ईरानी अवाम ‘बीबीसी’, पश्चिमी मीडिया, यूरोपीय देशों व अमेरिका से समर्थन मांग रहा है। निःसंदेह दुनिया का आजाद मीडिया (जिसे कट्टरपंथी से लेकर लिबरल वामपंथी अमेरिकी प्रोपेगेंडा का  पूंजीवादी औजार करार देता हैं) ईरानी महिलाओं को आवाज देते हुए है। कल ही ‘बीबीसी’ ने एक बड़ी रिपोर्ट प्रसारित की। इस बहाने अयातुल्ला अली खामेनेई और उनकी सरकार तथा ईरान के सुरक्षा प्रमुख ने दो टूक चेतावनी दी है कि बस, आज आखिरी दिन। इसके बाद सुरक्षा बल आंदोलन को आर-पार की सख्ती से कुचलेंगे। अमेरिकी-पश्चिमी देशों की साजिश को और बरदाश्त नहीं करेंगे। ऐसे में दुनिया के रियल इंसान क्या करें? कहने को संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग से लेकर अमेरिकी, फ्रांसिसी, ब्रितानी सरकार आदि ने आंदोलन का समर्थन किया है। लंदन, पेरिस जैसे शहरों में प्रवासी ईरानियों की लॉबिंग से नागरिक, सिविल सोसायटी ने ईरानी महिलाओं के जज्बे के समर्थन में सड़क पर प्रदर्शन किया है। अमेरिका ने कुछ पाबंदियां भी लगाई है। लेकिन इस सबसे भला तानाशाह सत्ता पर क्या फर्क पड़ता है? उलटे तेहरान की धर्मसत्ता के लिए कहने को मौका है कि ये आंदोलनकारी देशद्रोही हैं। अमेरिका और यूरोप की लिबरल याकि पतित, पूंजीवादी, भौतिकवादी सोसायटी के पिट्ठू हैं! सोचें, दूसरे महायुद्ध के बाद के वैचारिक टकरावों, धर्म-नस्लों के टकराव के अस्सी सालों पर। क्या यह सत्य नहीं उभरेगा कि पृथ्वी का इंसान ज्यों-ज्यों अपनी मानव चेतना, अपने मानवाधिकारों, मानव मूल्यों, जीवन जीने की निज आजादियों की जागरूकता पाता गया त्यों-त्यों वह इस बात के लिए लगातार दिवाल पर सिर पीटता हुआ है कि उसे मनुष्य होने की गरिमा के अधिकार चाहिए, उन्हे वे कैसे पाएं? पृथ्वी पर फिलहाल कोई आठ अरब मनुष्य हैं। इनमें से चीन, रूस से लेकर इस्लामी देशों, तानाशाह देशों, भारत-अफ्रीका के अंधकारों-अंधविश्वासों में जीने वाले दो-तिहाई लोगों के पास वे विकल्प, औजार और वह हौसला, वह मशाल है कहां, जिनके बूते वे अपने को भेड़-बकरी के बाड़ों के अस्तित्व से बाहर निकालो?  कोई माने या न माने मेरा मानना है कि जिन मनुष्यों में तनिक भी पशु जीवन से अलग खास मानव जीवन, उसकी गरिमा व आजादी की प्राणवायु है वह बार-बार अमेरिका-यूरोप से ही उम्मीद करता है कि वे उनकी मदद करें! ईरानी जीवन हो या सऊदी जीवन या हांगकांग, ताईवान से लेकर आजादी पसंद रूसी, चाइनीज, भारतीय, म्यांमारी, अफ्रीकी, यूक्रेनी सबकी निगाह अमेरिका-ब्रिटेन-फ्रांस पर याकि उदारवादी-लिबरल देशों पर जा टिकती है। ऐसा पिछले अस्सी सालों से है। तथ्य है कि दूसरे महायुद्ध में हिटलर के नरसंहार की भयावहता में पश्चिमी सभ्यता ने दुनिया का नए अंदाज में बीड़ा उठाया। उस अनुसार विश्व व्यवस्था बनाई। अमेरिका विश्व का चौकीदार याकि स्वंयभू पुलिस बना। और इस बात को भी नोट करें कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर, उसकी तमाम तरह की एजेंसियों ने मनुष्य जीवन की गरिमा, निजता, मानवाधिकार, निज आजादी के जितने प्रस्ताव, चार्टर, घोषणाएं, समझौते-संधियां अस्सी सालों में बनाई हैं तो सभी के पीछे की पहल पश्चिमी देशों से थी। सुरक्षा परिषद् के पांच स्थायी सदस्यों में सोवियत संघ याकि रूस और चीन ने या भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, किसी इस्लामी देश ने कभी ऐसा कोई वैश्विक एजेंडा नहीं बनाया और उसे संयुक्त राष्ट्र में नहीं रखा, जिससे मनुष्य को यह बेसिक आजादी मिले कि वह खुल कर बोल सकता है। मनमाफिक कपड़े पहन सकता है। खाने-पीने की आजादी, जीवन को निजता में जीने की आजादी, सत्ता और पुलिस डंडों की आदमखोर प्रवृत्तियों से बेखौफ सुरक्षित जीवन जी सकता है। याद करें और अस्सी साल के इतिहास को खंगाले, संयुक्त राष्ट्र का रिकार्ड छानें किन देशों और किन देशों की सिविल सोसायटी के विचारों-संकल्पों से मानवाधिकार, मानव गरिमा, मनुष्य जीवन की चिंता से लेकर पृथ्वी की जलवायु से ले कर सच्चे इंसानी जीवन की चिंता पैदा हुई? ईरान में महिला क्या चाह रही है? मोटा-मोटी मनुष्य होने की रंगीनियों में जीना। वे नहीं चाहतीं कि वे बकरी की तरह शरीर को आजीवन इकरंगी काले रंग में लपेटे रखें। चौबीसों घंटे काले रंग की चौकसी के लिए धर्मसत्ता के गड़ेरियों की तानाशाही में पल-पल इस चिंता में घुटती रहें कि कहीं वे उसे उधड़े सिर देख नहीं लें। तब पुलिस के थाने में बंद होना होगा। उसे एक छोटी सी आजादी चाहिए। पर भले छोटी हो, फर्क नहीं है एक महिला और एक देश, एक समुदाय, समाज की आजादी की चाहत में। तभी मनुष्य बुद्धी की चाहत का मामला दुनिया के भूमंडलीकरण से, भूमंडलीय गांव होते जाने से साल-दर-साल विकट होता जाना है। इसमें सब चाहते हैं अमेरिका तथा लिबरल यूरोप कुछ करें! जरा इंसानी आजादी के चश्मे में ईरानी महिला और यूक्रेनी सैनिक याकि यूक्रेन देश पर गौर करें। इंसानी जज्बे को सलाम में मेरा आज की बात में यूक्रेन और यूरोप के लोगों को भी सलाम है। जैसे ईरानी महिला किसी के बहकावे में नहीं है, स्वंयस्फूर्त इंसानी चाह से उसका जज्बा बना है वैसे ही यूक्रेन के लोग भी व्लादिमीर पुतिन की महाशक्ति के आगे आजादी की जिद्द लिए हुए हैं। यदि मनुष्य खोपड़ी में जिंदा इंसान, जिंदा कौम की तरंगें बन गई हैं तो फिर गुलामी-भक्ति-भयाकुलता का भेड़-बकरी वाला जीवन वह नहीं चाहेगी! मुर्दा बनाम जिंदा कौम, भेड़-बकरी बनाम शेर दिल जीवन का फर्क ही आजादी है। इसलिए ईरान की औरतें या यूक्रेन के जज्बे के पीछे न तो अमेरिका का भड़काना है और न अमेरिकी तथा पश्चिमी साजिश है। क्या यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की अमेरिकी डिफेंस कंपनियों के कारोबार के टूल हैं? (जैसा कि भारत में वामपंथी से लेकर भक्त रूसीपंथी हिंदू पिछले छह महिनों से नैरेटिव बनाए हुए हैं) सचमुच दिलचस्प है कि ईरानी मौलाना व पुतिन दोनों की तानाशाह सत्ता अमेरिका को विलेन बता रही है। ऐसे ही दुनिया का प्रगतिशील लेफ्ट भी बताता है। मतलब ससुरी पश्चिमी सभ्यता है, उसका पूंजीवाद है जिसके कारण चौतरफा विनाश है। इसलिए पुतिन, शी जिनफिंग और ईरानी अयातुल्ला की तिकड़ी की पूजा करो, जो ये तानाशाह नई विश्व व्यवस्था बना रहे हैं! नया सवेरा ला रहे हैं! मैं भटक रहा हूं। बुनियादी बात है कि पृथ्वी के जीव जगत में मनुष्य नाम का प्राणी क्योंकि अलग तरह की वह खोपड़ी और चेतना लिए हुए है, जिसमें जहां आदिमानव चिंपाजी के पशुगत डीएनए हैं और उसकी वजह से पुतिन, शी जिनफिंग और धर्म सत्ताओं के आदमखोर तानाशाह हैं तो साथ ही सहस्त्राब्दियों से विकसित मानव चेतना का वह सत्य है, जिससे 22 साल की महासा अमीनी में सत्ता की बर्बरता से भिड़ने की ताकत बनती है। तो यूक्रेनी लोगों में भी खूंखार-महाबली तानाशाह पुतिन को औकात दिखलाने का जज्बा है। हां, पुतिन को औकात मालूम हो रही है। वे अब हताशा में एटमी, डर्टी बम की और बढ़ते हुए हैं। पहले पुतिन को उम्मीद थी कि सर्दियां आते-आते गैस संकट से यूरोपीय संघ उनके आगे सप्लाई शुरू करने के लिए गिड़गिड़ाएगा, बिजली सप्लाई सेंटरों को मिसाइलों से ध्वंस करके यूक्रेनियों को ठंड से पस्त कर देंगे। लेकिन पुतिन की उम्मीदें हवा हो गईं है। हां, सलाम यूरोपीय संघ को, जिसने रूस से सप्लाई नहीं होते हुए भी सर्दियों की जरूरत की 90 प्रतिशत गैस का भंडार बना लिया। इतनी गैस जुटा ली है कि उसका ऑर्डर लिए हुए असंख्य जहाज स्पेन के किनारे गैस लिए हुए पाइप से स्टोरेज में पहुंचाने की बारी में इंतजार कर रहे हैं। तभी गैस-ईंधन की वैश्विक कीमतें गिरने लगी हैं। उधर यूक्रेनी लोग सिविल ठिकानों पर हमलों के बावजूद, बिना बिजली के, माइनस डिग्री के तापमान में भी रूसी सैनिकों को ऐसा घेर रहे हैं कि वे जहां भागते, घिरते हुए हैं वही पुतिन डर्टी बम की बातों से यूरोप को डराने की कोशिश में हैं। तभी यूरोपीय संघ के इस जज्बे को भी सलाम जो आजादी की यूक्रेनी चाह के समर्थन में वह हर कीमत अदा करते हुए है और वह भी पूरे हौसले के साथ।  
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