बेबाक विचार

वैचारिक मुद्दा कांग्रेस को ले डुबेगा!

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वैचारिक मुद्दा कांग्रेस को ले डुबेगा!
कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा शुरूआती मकसद से भटक गई है। जो मकसद बताया गया था उसकी चर्चा धीरे धीरे कम होती जा रही है। कांग्रेस बनाम भाजपा का वैचारिक टकराव, हिंदू बनाम सेकुलर का फर्क उभरता जा रहा है। यह भाजपा के लिए सोने में सुहागा है। क्योंकि भले भाजपा की विचारधारा कितनी भी खराब और विभाजनकारी हो लेकिन राजनीतिक रूप से, वोट राजनीति में बहुत फायदेमंद है। अगर कांग्रेस उस खेल में घुसती है तो उसे निश्चित नुकसान होगा। राहुल गांधी यदि विनायक दामोदार सावरकर की ‘टू नेशन थ्योरी’ यानी दो राष्ट्र के सिद्धांत को मुद्दा बना रहे है तो वह भाजपा को बहुत सूट करेगा। भाजपा इसी पर सारी राजनीति कर रही है। जिस तरह से सावरकर ने कहा था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग अलग राष्ट्र हैं। वे एक साथ नहीं रह सकते हैं तो उसी तरह भाजपा नेता कहते हैं कि उनके लिए राजनीति 80 और 20 फीसदी की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले सबका साथ, सबका विकास की बात करते हैं लेकिन भाजपा के बड़े नेता भी खुल कर कह रहे हैं कि वे 80 फीसदी की राजनीति कर रहे हैं और उनको 20 फीसदी का वोट नहीं चाहिए। सोचें, यही तो सावरकर की लाइन थी और इस लाइन की जीत हुई थी। सावरकर ने 1912 के आसपास दो राष्ट्र के सिद्धांत की बात कही थी। तब कांग्रेस और उसके सारे बड़े नेताओं ने इसका विरोध किया था। महात्मा गांधी से लेकर सरदार पटेल और पंडित नेहरू तक सभी इस बात को खारिज करते रहे। सब हिंदू–मुस्लिम एकता की बात करते रहे। लेकिन अंत में क्या हुआ? अंत में सावरकर की विचारधारा जीती। धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हुआ और हिंदू व मुस्लिम के दो राष्ट्र बने। यह एक मोटामोटी आकलन है। उस समय की स्थितियां ऐसी थीं, जिन्ना की राजनीति और अंग्रेजों की रीति-नीति सबने मिल कर देश का बंटवारा कराया। लेकिन उस सबमें बुनियादी बात यह थी जो धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हुआ और जो सावरकर ने कहा था वह विचार सही साबित हुआ। जाहिर हे महात्मा गांधी और सरदार पटेल, पंडित नेहरू जैसेनेता सावरकर की सोच, उनके विचार को गलत नहीं साबित कर सकें। उस विचारधारा को नहीं हरा सके या नहीं रोक सके तो फिर आज सौ साल के बाद उस विचारधारा को मुद्दा बना कर राहुल गांघी उससे लड़ने में क्या तुक देख है? क्या लगता नहीं कि सावरकर की जितनी ज्यादा चर्चा होगी उतनी ही दो राष्ट्र के सिद्धांत की चर्चा होगी? जोडने के बजाय तोडने, आमने-सामने की दुश्मनी बनवाने वाली होगी। एक और सत्य। आजादी के बाद कब सावरकर की इतनी चर्चा हुई जितनी मोदी राज में राहुल गांधी करते हुए है?  क्या नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी आदि को सावरकर के नाम का जिक्र करके राजनीति करने या वोट मांगने की कभी जरूरत महसूस हुई? कहीं इतिहास के पन्नों में खोए हुए सावरकर को निकाल कर राहुल गांधी ने उनको राष्ट्रीय आईकॉन बना दे रहे है। अब लगभग हर साल सावरकर के ऊपर नई किताब आ रही है। उनके ऊपर रिसर्च हो रही है। अंडमान की सेलुलर जेल में बिताए उनके दिनों पर कहानियां लिखी जा रही हैं। उनकी कहानी स्कूली कोर्स में लगाई जा रही है। जगह जगह राहुल गांधी को चिढ़ाने के लिए सावरकर के नाम का इस्तेमाल हो रहा है। उनकी भारत जोड़ो यात्रा में केरल से लेकर कर्नाटक तक कई जगह यात्रा के रास्ते में सावरकर की होर्डिंग्स लगाई गई, जिनको कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने बाद में दूसरी होर्डिंग्स से ढका। जाहिर जो पहले कभी नहीं हुआ वह अब हो रहा है और वह भाजपा से ज्यादा राहुल गांधी की राजनीति के कारण हो रहा है। ऐसा लग रहा है कि राहुल गांधी सावरकर ग्रंथि से ग्रसित हैं। सावरकर का ऐसा कांप्लेक्स बना है जिस पर उनको उकसाया जा रहा है और वे जाल में फंसे जा रहे हैं। राहुल गांधी अपनी दादी और अपने नाना का जिक्र अक्सर करते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि वे उनसे कुछ सीखते नहीं हैं। राहुल आज सावरकर के बारे में जो दृष्टिकोण लिए हुए हैं पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी का नजरिया इसके बिल्कुल उलट था। इंदिरा गांधी ने 20 मई 1980 को स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक के सचिव पंडित बाखले को एक चिट्ठी लिखी थी। इंदिरा गांधी ने लिखा था- मुझे आपका पत्र आठ मई 1980 को मिला। वीर सावरकर का ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मजबूत प्रतिरोध हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के लिए काफी अहम है। मैं आपको देश के महान सपूत के शताब्दी समारोह के आयोजन के लिए बधाई देती हूं। अंग्रेजी में लिखी इस चिट्ठी में इंदिरा गांधी ने सावरकर को ‘रिमार्केबल सन ऑफ इंडिया’ कहा था। उन्होंने सावरकर के ऊपर डाक टिकट जारी किया था। क्या इंदिरा गांधी सावरकर की विचारधारा को नहीं जानती थीं? क्या यह सोच भी सकते है कि इंदिरा गांधी की देश की एकता, अखंडता के प्रति  प्रतिबद्धता राहुल गांधी से कम थी?क्या इंदिरा गांधी से ज्यादा समझदार और ज्ञानवान राहुल गांधी और उनके सलाहकार है? ऐसे ही एक वाकया पंडित नेहरू का है। नेहरू जब प्रधानमंत्री थे तब 1957 में आजादी की पहली लड़ाई यानी 1857 के सौ साल पूरे होने पर एक कार्यक्रम का आयोजन था। इसमें नेहरू के साथ साथ सावरकर को भी आमंत्रित किया गया था। तब नेहरू कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए थे। उन्होंने आयोजकों को एक पत्र लिखा था, जिसमें कहा था- सावरकर वीर पुरुष हैं, एक महापुरुष। हम अनेक मुद्दों पर अलग राय रखते हैं और इसलिए उन्हें संकोच होगा यदि मैं वहा अलग सुर, भिन्न स्वर में बोला। सावरकर के लिए मेरे मन में अपार श्रद्धा है परंतु एक मंच पर हम दोनों का बोलना गलत होगा। सोचे, नेहरू भले सावरकर के प्रति अलग राय रखते थे लेकिन उनकी सार्वजनिक राय यह थी कि सावरकर वीर हैं और उनके लिए नेहरू के मन में अपार श्रद्धा है। क्या इससे नेहरू की वैचारिक प्रतिबद्धता कम हो गई? सोचें, आजादी के बाद जब देश का निर्माण हो रहा था और हिंदू मुस्लिम का घाव बहुत ताजा था तब भी नेहरू ने सावरकर की विचारधारा का मुद्दा बना कर उनको निशाना नहीं बनाया और आज राहुल गांधी के लिए सबसे बड़ा मुद्दा सावरकर हो गए हैं! इतना ही नहीं राहुल उन्हे अंग्रेजों का नौकर करार दे रहे है!
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