चीन यदि अरूणाचल प्रदेश से ले कर लद्दाख के अपने दावों में भारत की सीमाओं में घुसे, आक्रामकता दिखाए तो भारत का तुरूप कार्ड क्या होगा? वह पैंगोंग झील, डोकलाम, तवांग को कैसे बचाएगा?....नया संभव जवाब यह है अमेरिका है न अपना! मतलब जरूरत हुई तो अमेरिका और क्वाड देशों की फौज चीन से लड़ने के लिए भारत आएगी। क्या सचमुच? कतई नहीं आएगी! इसलिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को लेकर वाशिंगटन में ऐसी नफरत है, कि चीन को औकात में रखने के पश्चिमी देशों के संकल्प के बावजूद भारत की लड़ाई में वैसा कोई काम नहीं होगा जैसा ताइवान के बचाव के लिए अमेरिका करेगा। India china tension quad
इसलिए नोट रखें चीन के आगे भारत क्वाड की फूं-फां में जो कर रहा है वह भारत के हिंदुओं में प्रधानमंत्री के विश्व नेता होने की हवाबाजी बनाने का महज एक तमाशा है। भारत को बतौर महाशक्ति अपने आपको कहीं न कहीं क्योंकि चस्पां कर रखना है तो क्वाड का हल्ला आसान है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी, जापान जैसे लोकतांत्रिक देशों में भारत के साझे की स्वाभाविक चाह निश्चित ही है मगर लोकतांत्रिक भारत और उसके लोकतांत्रिक नेता के साथ। जबकि आज इन देशों के रीति-नीति निर्धारकों, राष्ट्रपति बाइडेन, उप राष्ट्रप्रति कमला हैरिस, मैक्रों, मर्केल जैसे नेताओं में नरेंद्र मोदी का चेहरा और भारत के लोकतंत्र में उनकी बरबादी के किस्से जैसे ही उभरते हैं तो ये सर्द हो जाते हैं, बिदक जाते हैं।
इस बात को दुनिया का हर छोटा-बडा देश समझ रहा है। तभी तो भूटान को चीन को पटाने में भारत से कोई खतरा समझ नहीं आया। उसने नई दिल्ली की चिंता ही नहीं की। ऐसे ही बांग्लादेश की प्रधानमंत्री हसीना वाजेद हिंदुओं पर जुल्म-ज्यादती के बावजूद यदि भारत को चेताते हुए हैं तो इसलिए कि भारत को आज उसकी गरज है न कि उसे भारत की जरूरत है।
भारत के पास दम ही नहीं रहा जो वह नेपाल या श्रीलंका को डरा सके और उन्हें मजबूर करे कि वे भारत का पक्ष लें न कि चीन का। चीन ने चारों तरफ से भारत को घेर लिया है। हिसाब से अमेरिका और पश्चिमी देशों को दक्षिण एशिया के इन छोटे देशों को भारत की छत्रछाया में चीन के खिलाफ एकजुट बनाना था। लेकिन ट्रंप या बाइडेन प्रशासन ने क्या कभी ऐसा कुछ किया? बाइडेन ने 15 अगस्त के बाद (काबुल में तालिबानी कब्जे के बाद) पाकिस्तान के प्रति जैसी सख्त नीति अपनाई है, चीन-पाकिस्तान-रूस की तालिबानी कूटनीति को जैसा अनदेखा किया है वह अपने आपमें भारत के लिए अमेरिका और पश्चिमी देशों का विश्वास जीतने के लिए मौका था लेकिन भारत की मजबूरी ऐसी बनी जो वह तालिबान से अपने को बचाए। उनका भरोसा जीते। नरेंद्र मोदी सरकार में पहली बार यह अजूबा देखने को मिल रहा है कि जम्मू कश्मीर के पुंछ इलाके में पाकिस्तान से घुसपैठिए आए लेकिन पाकिस्तान के खिलाफ नैरेटिव बनाने, वीरता का ढिंढोरा बनवाने के बजाय सब कुछ गोपनीय रखा जा रहा है। कई दिनों से सघन सैनिक अभियान चला हुआ है, सेनाधिकारी सहित कई जवान मरे हैं, उधर घाटी में लड़ेके बेखौफ हिंदुओं में दहशत बना उन्हें भगाते हुए हैं लेकिन मोदी सरकार उलटे तालिबान-पाकिस्तान को पटाने की कूटनीति करते हुए है।
यों ‘नया इंडिया’ के अपने वैदिकजी इस कूटनीति की वाह करते हैं। पर वे पहले भी तालिबान को ले कर गलत साबित हुए हैं और आगे भी होंगे इसलिए उनसे असहमति में अपना दो टूक लिखना है कि तालिबानी भारत के लिए नंबर एक खतरा हैं। नरेंद्र मोदी और मोदी राज के लिए तो हर तरह से नंबर एक खतरा। बावजूद इसके मोदी सरकार जम्मू कश्मीर की चिंता में जैसे-तैसे (एक तरह से तालिबान की लल्लो-चप्पो व उनके पांव पकड़ने की हद तक) तालिबान से नाता बनाने की कोशिश में हैं।
इसलिए मोदी के कथित हिंदू राज की इस ताजा कुरूपता पर जरूर गंभीरता से सोचें कि बांग्लादेश में हिंदुओं पर जुल्म के बावजूद मोदी सरकार में बोलने, कुछ करने की हिम्मत नहीं तो दूसरी और काबुल में हिंदुओं-सिखों के साथ दुर्व्यवहार के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री जयशंकर तालिबान के आगे गिड़गिड़ाते हुए, उन्हें पटाते हुए हैं। क्या यह ठुकना नहीं है?