बेबाक विचार

वायरस+मानवीय संकट= मौत का कुंआ

Share
वायरस+मानवीय संकट=  मौत का कुंआ
हां, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लीगल ब्रेन तुषार मेहता व उन जैसी सोच वाले लोग मुझे भले ‘गिद्ध’, ‘कयामत के पैगंबर’व‘नकारात्मकता, नकारात्मकता, नकारात्मकता’ फैलाने वाला ‘आर्म चेयर’ बुद्धिजीवी (तुषार मेहता ने सरकार की तरफ से गुरूवार को सुप्रीम कोर्ट में पैरवी करते हुए प्रवासी संकट के बारे में बात करने वालों पर ‘गलत सूचना’ फैलाने का आरोप लगाते हुए मानवीय संकट की चिंता करने वालों को ‘गिद्ध’,‘कयामत के पैगंबर’ कहा) मानें लेकिन मैं न जल्लाद हूं, नराक्षस। कोई कुछ भी कहे इंसान वह सच्चा है जो इंसान की तरह सोचे, जल्लाद की तरह नहीं। जो रोए यह देख कर कि मई की 40-45 डिग्री की गर्मी में कैसे लाखों परिवार सैकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल चल कर या रेलवे के गर्म डिब्बों में भूखे-प्यासे बंद हो कर घर पहुंच रहे हैं। कैसे सिसकते, रोते मासूम बच्चे, मां से चिपके हुए हैं याकोई मेमना लाश को टटोल कर अपनी मां को तलाश रहा है। उफ! क्या यह झूठ है? क्या यह संवेदनशीलता नकारात्मकता है? क्या दुनिया में भारत जैसा मानवीय संकट कहीं है? कैसे यह हो गया जो देखते-देखते दो महीनों में 130 करोड़ लोग महामारी से भी बड़े मानवीय संकट के उस मौत के कुएं में खड़े हैं, जिसमें एक तरफ वायरस है तो दूसरी और मानवता संकट। दोनों की हकीकत के बीच सरकार है जो कह रही है कि सब ठीक है। कंट्रोल में है। पॉजिटिविटी देखो! सकारात्मकता से सोचो। पैनिक न फैलाओ। पर पैनिक किसने फैलाया? क्या 24 मार्च की शाम प्रधानमंत्री मोदी ने नहीं, जो उन्होंने बिना आगा-पीछा सोचे सबको अहसास कराया कि वायरस मौत का कुआं है। घर में बंद रहो। उससे लोग फिर भय से, अपने घर में ही मरने की चिंता में प्रवासी जगह से, झुग्गी-झोपड़ी से बाहर निकल पैदल घर के लिए निकले तो उनके लिए जीरो व्यवस्था। पैदल चलते परिवारों के प्रति रत्ती भर मानवीय व्यवहार नहीं। तभी 25 मार्च से 30 मई के कोई पैंसठ दिनों में वह सब हुआ, जिसने महामारी प्लस मानवीय संकट प्लस झूठ प्लस मूर्खता से पूरे देश को मौत के कुएं में बदल डाला है। मौत का कुंआ मतलब मौत का खेल। सर्कस में लोहे के गोल गोले के भीतर मोटरसाइकिल दौड़ाने वाला खिलाड़ी जब गोले में घुसता था तो देखने वालों की सांस अटकती थी। पर खिलाड़ी ट्रेंड, हेलमेट-जैकेट पहने स्वस्थ-पहलवान होता था तो वह कुएं में करामात दिखला साबूत बाहर निकल आता था। तब उसकी बहादुरी और छप्पन इंची छाती पर तालियां बजती थी। संदेह नहीं दुनियाभी वायरस के चलते मौत के कुएं में है। अंत नतीजे में इंसान ही मौत को मात दे कर साबूत बाहर निकलेगा। बावजूद इसके वायरस तब तक तो लोगों की जान लेगा जब तक वैक्सीन घर-घर नहीं पहुंचती। यहीं भारत की, भारत के 138 करोड़ लोगों की नियति है। पर भारत ने वायरस के साथ मानवीय संकट, झूठ, मूर्खताओं के ऐसे कई इंसानी वायरस और बना डाले हैं, जिससे उन करोड़ों लोगों को अधमरी सांसों के साथ जीना है, जिनकी जान की कीमत का जल्लादों के लिए मोल नहीं होता। हां, जो जल्लाद होता है, जो मौत के कुएं में भी पॉजिटिविटी बताता है, समझाता है कि यह तो रोमांचक खेल है। मौत के रेले बनवाना, मौत को झूठ में दबाना, मौत के रोमांच में, मौत को अवसर और मौका मानना इस पृथ्वी के अनेक राक्षसों, तानाशाहों, स्टालिन से लेकर पोल पोट आदि का जघन्य अपराध रहा है और इतिहास ने उन्हें माफ नहीं किया है तो वायरस का यह संकट काल भी वह अनुभव लिए हुए होगा, जिसमें कई नियंता अपना जघन्य इतिहास लिखवाएंगे। बहरहाल, भारत लॉकडाउन 5.0 के साथ मौत के कुएं में सांस लेता हुआ होगा। सरकार इसके बीच झूठ बोल कर पॉजिटिविटी में चाहे जो नैरेटिव बनाए, उलटे वायरस का भय दिनोंदिन बढ़ेगा तो मानवीय संकट में रोजी-रोटी, बीमारी, जीने की मुश्किलों में आने वाले महीनों जो होगा उसमें लाखों-करोड़ों लोग भयावह तकलीफ लिए होंगे। सर्कस में मौत के कुएं का खेल कुछ मिनटों का होता है लेकिन भारत आने वाले कई महीने इसे देखेगा और बहुत रोएगा। फिर भले सरकार और तुषार मेहता सोचें कि रोने वाले ‘गिद्ध’, ‘कयामत के पैगंबर’ हैं और उन्हे रोने दो हम तो नगाड़े बजाएंगे, दीये जलाएंगे, ताली-थाली बजाएंगे।
Published

और पढ़ें