गुलाम संस्कारों के हिंदुओं के लोकतंत्र की क्यों अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन चिंता करें?

दिल्ली में बीबीसी पर छापे के दिन एयर इंडिया के विमान खरीद सौदे के मौके पर अमेरिका के बाइडेन, फ्रांस के मैक्रों और ब्रिटेन के ऋषि सुनक के प्रधानमंत्री से संवाद पर कई लोग बेचैन दिखे। यह सोचते हुए कि मोदी सरकार भारत में जहां लोकतंत्र के पंख काट रही है वही फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन नरेंद्र मोदी की वाह बनवा रहे हैँ! पश्चिमी देश यदि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के लोकतंत्र की सेहत की चिंता नहीं करेंगे तो क्या होगा? मसला गंभीर है। अपना जवाब दो टूक है। मेरा मानना है कि ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, यूरोपीय संघ ने हिंदू तासीर के दक्षिण एशिया के लोगों के दिमाग को क्योंकि जाना-समझा हुआ है तो वे इस इलाके में लोकतंत्र रहे या न रहे, इलाका विकास करें या नहीं करें, इसकी वे चिंता की जरूरत नहीं मानते है। उनके लिए इलाके का मतलब और महत्व सिर्फ लोगों की भीड़ के बाजार के नाते है। तभी भारतीय उप महाद्वीप पर चीन का बाजारवादी वर्चस्व है तो यूरोप, अमेरिका और आसियान देशों का भी सरोकार बाजार को दुहने का है। याद करें माओ त्सेतुंग का कथन कि– भालू रूस के साथ खड़ा भारत गाय है। केवल खाने के लिए, लोगों की सवारी और गाड़ी खींचने के काम लायक… उसमें कोई भी खास काबलियत नहीं।… भले यह गाय कितनी ही महत्वाकांक्षाएं बनाए, सभी बेमतलब। माओ ने अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर को पटाते हुए उन्हें समझाया था कि भारत सिर्फ शब्दों की जुगाली का खाली पीपा है।

यही सोच चीन की दक्षिण एशिया नीति का सार है। हालिया दो-तीन सालों की घटनाओं पर गौर करें। चीन न तो पाकिस्तान व श्रीलंका को आर्थिक संकट से उबारने के लिए लपका और न भारत पर सीमा दादागिरी बनाते वक्त उसे चिंता थी कि भारत कहीं व्यापार करना बंद नहीं कर दे। अफगानिस्तान को पश्चिमी देशों ने छोड़ा तो चीन ने वहा धंधा बनाया लेकिन तालिबान का अछूतपना खत्म कराने के लिए वह सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव नहीं लाया। ऐसे ही नेपाल और बांग्लादेश के साथ चीन का व्यवहार एकतरफा, इन देशों को दुहने का है न कि उनसे बराबरी के गरिमापूर्ण व्यवहार का है।

ईमानदारी से सोचें, पिछले आठ वर्षों में चीन ने नरेंद्र मोदी द्वारा शी जिनफिंग को झूला झुलाने का कितना फायदा उठाया। साल-दर-साल भारत को आश्रित बनाते हुए वह बेइंतहां मुनाफा कमा रहा है। दूसरी तरफ सैनिकों का सीमा अतिक्रमण करवा भारत पर कमरतोड़ सैनिक खर्च का बोझ डाले हुए है। लेकिन न भारत के लोगों को सुध है और न मोदी सरकार में समझ व हौसला है। कमोबेश ऐसी ही दुविधा और लाचारी पंडित नेहरू के राज में थी।

जैसे चाइनीज सभ्यता की बुद्धि ने हिंदुओं की मनोदशा को समझा हुआ है और उस अनुसार उसे डील करते हुए हुए है वैसे ही वाशिंगटन, लंदन, पेरिस, ब्रसेल्स के पश्चिमी नेताओं, इनके जी-सात ग्रुप ने भी हिंदुओं की मानसिक बुनावट के ओर-छोर को जाना हुआ है। 1947 से पहले चर्चिल ने अविभाजित भारत की आजादी के बाद के भविष्य पर जो वाक्य बोले थे तो जाहिर है वह भी ब्रिटेन द्वारा हिंदुओं पर राज करते हुए उनकी गुलाम मनोदशा की प्रकृति-प्रवृत्ति को जानने की एक सहज अभिव्यक्ति थी।

सम-सामयिक विश्व इतिहास का सत्य है कि पश्चिम ने इजराइल-फिलस्तीनी के झगड़े को सुलटाने के लिए लगातार मेहनत की। संयुक्त राष्ट्र के पांचों स्थायी महाबली देशों ने पृथ्वी के शेष इलाकों की भू-राजनीति, उनके विकास, उन पर प्रभाव को लेकर आठ दशकों में लगातार अपने सरोकार बनाए रखे हैं लेकिन दक्षिण एशिया के देशों पर वैसा वैश्विक फोकस नहीं रहा। वह तभी बना जब पाकिस्तान व भारत लड़े और दोनों ने प्रतिस्पर्धा में एटमी हथियार बनाए या इस्लाम की सभ्यतागत चुनौती में अफगानिस्तान बिन लादेन का ठिकाना हुआ।

मूल मसला पश्चिमी सभ्यता द्वारा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की भारत कहानी की चिंता नहीं करने का है। कुछ भी हो 140 करोड़ लोगों का लोकतंत्र पृथ्वी के 195 देशों के बीच लोकतंत्र की मार्केटिंग, चीन-रूस-इस्लामी व तानाशाह देशों के आगे बतौर विकल्प में मॉडल याकि एक झांकी तो है। चीन का काउंटर है। इसलिए फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ का भारत से भावनात्मक जुड़ाव बना होना चाहिए। इन्हे भारत में लोकतंत्र को सुरक्षित बनवाना चाहिए।

ऐसा सोचते हुए भारत और पश्चिमी देशों के कई सुधी, बुद्धिमान लोग मानते हैं कि भारत के लोकतंत्र की चिंता करना पश्चिम का धर्म है। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के वक्त पश्चिमी देश नाराज थे। पश्चिम में इंदिरा राज अछूत सा बना था तो अब यदि नरेंद्र मोदी अपने राज में लोकतंत्र की जड़ें खोद रहे हैं तो अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, यूरोपीय देशों को वह कोई काम, वैसी कोई कूटनीति नहीं करनी चाहिए, जिससे भारत में नरेंद्र मोदी की वाह बने। उन्हें संस्थाओं की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी को खत्म करने का हौसला मिले।

ऐसे सोचना गलत नहीं है। लेकिन सुधीजन इस हकीकत की क्यों अनदेखी करते हैं कि हिंदुओं को यदि गुलामी पंसद है, उनके स्वभाव में भक्ति-कीर्तन और अंधविश्वासों के साथ नमकहलाली का इलहामी जीवन जीना है तो पश्चिमी देश क्यों यह गलतफहमी पालें कि वे हिंदूबहुल भारत के मिजाज को आजादीपरस्त बना सकते हैं। हिंदू डीएनए की आबोहवा में आधुनिक मानसिक विकास संभव ही नहीं है। यदि दक्षिण एसिया इतिहास में अंधकाल का मारा ‘एरिया ऑफ डार्कनेस’ है तो उप महाद्वीप में हिंदू और मुसलमान वैसी ही राजनीति और अनुभवों में जिंदगी जीएंगे जैसे पहले जीवन जीते आए हैं। इक्कीसवीं सदी में भी दिल-दिमाग से पराश्रित, परस्पर नफरत के साथ वे गृहयुद्ध पाले रहेंगे और परमाणु हथियारों के जुगाड़ों के बावजूद भयाकुल, भूख और भक्ति की वृत्ति-प्रवृत्ति में प्रजा और नेता दोनों लोकतंत्र का खेला करेंगे।

मेरे इस विश्लेषण में सत्य बूझें कि दक्षिण एशिया पिछले अस्सी सालों से क्या गृहयुद्ध में सांस लेता हुआ नहीं है? अंग्रेजों के वक्त के सियासी अखंड भारत के पाकिस्तान-अफगानिस्तान से लेकर म्यांमार तथा नेपाल से श्रीलंका तक में कुल मिला कर हुआ क्या है? अंग्रेजों का छोड़ा इलाका क्या परस्पर और अंदरूनी गृहयुद्धों में, पानीपत की हजार साला लड़ाइयों के हुंकारों से क्या आत्मघाती भविष्य लिए हुए नही है? तभी यह भी सत्य जो पुराने अखंड भारत याकि सार्क के सभी देश पृथ्वी के 195 देशों की लिस्ट में विकास के तमाम प्रतिमानों में नीचे है। दुनिया में दो कौड़ी की हैसियत नहीं है। चीन कहां से कहां पहुंचा, आसियान, पश्चिम एशिया, मध्य एशिया, फार-ईस्ट कहां से कहां पहुंचे। जबकि भारत उप महाद्वीप किस अवस्था में?

यह निर्मम रियलिटी क्या हिंदुओं की मानसिक तंत्रिकाओं का बेचैन बनाती है? नरेंद्र मोदी, उनकी हिंदूशाही, संघ-भाजपा परिवार ने आठ वर्षों में एक दफा यह आत्मावलोकन नहीं किया कि वे जो करते हुए, जो बनाते हुए हैं उससे भारत, भारत उप महाद्वीप (कथित अखंड भारत या आर्यावर्त) इक्कीसवीं सदी लायक बन रहा है या हम मध्यकाल के उसी अंधकार में लौट रहे हैं, जिसमें भक्ति थी, भयाकुलता थी और गुलामी की परतें नित नई बनती थीं। इस सबसे न तो विश्व में अपने को लोकतंत्र की जननी बताने का पाखंड मान्य होना है और न हिंदू नस्ल, धर्म तथा कौम की इंच भर श्रीवृद्धि होनी है।

विषयांतर हो रहा है। मूल बात पर लौटें। असल बात विश्व के उन लोकतांत्रिक देशों की भारत उदासीनता है, जिसके कारण भारत राष्ट्र-राज्य में लोकतंत्र होते हुए भी विश्व की लोकतांत्रिक जमात का उसका मान-गौरव नहीं है। डोनाल्ड ट्रंप ने नरेंद्र मोदी की खूब तारीफ की। उन्हें गले लगाया लेकिन भारत को अरबों डॉलर के हथियार बेचने के उन्होने सौदे तो पटाए मगर भारत से मुक्त व्यापार व्यवस्था बनवाने की बजाय भारत से व्यापार की तरजीह खत्म की। वे यह भी कहते हुए थे कि भारत में अमेरिकी मोटर साइकिल खरीदने में क्यों रोड़े हैं। मैं ट्रंप का उदाहरण इसलिए दे रहा हूं क्योंकि उनकी और नरेंद्र मोदी की जुगलजोड़ी हिंदू भक्तों के लिए मिसाल है। जबकि असलियत है कि नरेंद्र मोदी ने शी जिनफिंग, ट्रप, ओलांद, बोरिस जॉनसन आदि जितने भी विदेशी नेताओं को झूला झुलाया उन सबने भारत को व्यापार से चूना लगाया। अमेरिका से हथियार खरीदने के सौदे हुए तो फ्रांस ने राफेल सौदे से कमाई की। पिछले दिनों एयरो इंडिया 2023 के मौके पर अमेरिकी, फ्रांस व ब्रितानी कंपनियों को एयर इंडिया से बोइंग और एयरबस के विमान खरीदने के ऑर्डर मिले तो वह भी इन देशों पर भारत की निर्भरता व भीड भरे बाजार से कमाई है।

सोचें, डोनाल्ड ट्रंप से बाइडेन, ओलांद से मैक्रों, बोरिस जॉनसन से ऋषि सुनक सब यदि भारत से कमाई की समान रीति-नीति बनाए हुए हैं तो ऐसा क्यों? इसलिए क्योंकि भारत दुहने वाली गाय है। फिर ऐसे सौदों पर छाती फूला कर हिंदू भक्त बछड़ों की तरह कूद-फांद करें, अपने को विश्व गुरू, आर्थिक शक्ति बतलाएं लेकिन दुनिया के दिमाग में तो हिंदुओं की बुद्धि को लेकर अलग ही राय होगी।

तथ्य नोट रखें कि 1947 में पंडित नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही अमेरिका, यूरोप सबका हिंदुओं की मानसिक अवस्था को समझना शुरू हो गया था। तब से अब तक के पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों के अनुभव में लोकतांत्रिक भारत कतई वह पूंजी नहीं बना है, जिसके क्षरण पर वे चिंतित हों। भारत ऐसे ही चलेगा, ऐसा ही रहेगा, यही उनकी भारत के लोकतंत्र को ले कर धारणा है तो भारत के विकास, उसकी भू-राजनीति, विश्व राजनीति के प्रति सोच भी है। जैसे चीन व रूस के लिए है वैसे पश्चिमी देशों के लिए भी भारत का आकार, आबादी और बाजार ही उनकी रीति-नीति का केंद्र बिंदु है। ऐसी कोई गफलत शेष नहीं है कि 140 करोड़ लोगों की बौद्धिक संपदा, आर्थिक ताकत, सैनिक ताकत कभी चाइनीज सभ्यता, इस्लामी सभ्यता से दो-दो हाथ करने का हौसला लिए हो सकती है। ऐसे ही पश्चिमी सभ्यता को कतई यह विश्वास नहीं है कि भारत का लोकतंत्र कभी विकास और सफलता का प्रतिमान बनेगा!

क्यों? क्या है ऐसी एप्रोच का जड़ कारण! जवाब है हिंदुओं की इतिहासजन्य मनोदशा! जिस नस्ल, कौम की मनोदशा में विदेशी परतंत्रता से मुक्ति के बाद भी स्वतंत्र जीवन चेतना की जिद्द नहीं बनी, उलटे अंग्रेजों के छोड़े सिस्टम से स्टालिनवादी प्रतिछाया में माई-बाप सरकार का निर्माण हुआ, उस देश के लोकतांत्रिक होने का भला क्या अर्थ है? लोकतंत्र भी एक रूढ़ी और उस कामधेनु गाय में परिवर्तित है जो सिर्फ दुहने के लिए है। फिर भले वक्त नेहरूशाही, परिवारशाही, हिंदूशाही का कोई भी हो। 1947 के बाद का हिंदू प्रभु वर्ग (दक्षिण एशिया के दूसरे देशों पर भी यह बात लागू) या सन् 2023 की हिंदूशाही का प्रभु वर्ग सभी सत्ता के अहंकार से जनता को हांकते रहे हैं। नेहरू से मोदी के सफर में कब प्रजा को पिंजरों से बाहर निकाल उसको स्वतंत्रता से उड़ने देने के पंख विकसित करने का संकल्प व भभका बना। हिंदू तब भी नेहरू का नमक खाते हुए पिंजरे में नेहरू-नेहरू बोलते हुए थे तो आज भी मोदी का नमक खाने के हवाले मोदी-मोदी की तोता रटंत की रूढ़ी में लोकतंत्र को पिंजरा बनाए हुए हैं।

मेरा मानना था और है कि हिंदुओं का श्रेष्ठि वर्ग पिंजरे के स्वभाव का उतन ही अभ्यस्त व बंधुआ है, जितना आम जन है। वह अकबर का मनसबदार था तो अंग्रेजों का भी। नेहरू का मनसबदार रहा तो मोदी का भी। इमरजेंसी के वक्त भी लुटियन दिल्ली में हिंदू एलिट रेंगते हुए था तो मोदी की लुटियन दिल्ली में भी भयाकुल, भक्ति से शरणागत कीड़े-मकोड़े रेंगते हुए हैं। तब मोदी, आडवाणी याकि हिंदू एलिट बीबीसी, अमेरिका, ब्रिटेन से उम्मीद करते थे वे भारत में लोकतंत्र बचाने, प्रेस आजादी के लिए इंदिरा गांधी पर दबाव बनाएंगे। आज सेकुलर, वामपंथी, उदारवादी एलिट यह सोच हताश है कि अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप ऐसा कुछ नहीं कर रहे है जिससे नरेंद्र मोदी का लोकतंत्र से खेलना रूके।

वे क्यों कुछ करें?जब नस्ल और देश के रग-रग में दासता है तो ऐसे डीएनए वाले भारत के रेंगते लोकतंत्र की चिंता में पश्चिमी सभ्यता अपना वक्त क्यों जाया करे। उलटे हर विदेशी चाहेगा कि हिंदुओं की बुद्धि गुलामी में जीती रहे। लोकतंत्र अधमरा रहे। लोग भयाकुल जीयें। उनमें बने ही नहीं हौसला। कौम, नस्ल और देश वैसा ही बना रहे जैसा इतिहास में बिना आजादी के मुर्दादिली लिए हुए था। शेष दुनिया, बाकी सभ्यताओं को जब 140 करोड़ लोगों को दुहने का बाजार मिला हुआ है तो भूल जाएं कि दुनिया का सभ्य समाज भी हिंदुओं को उड़ने के पंख दिलाने की चिंता करेगा!

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Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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