भारत सन् 2020 और 2021 में जैसा था वैसी ही महादशा में सन् 2022 भी गुजरा! मतलब जीवन हर तरह की महामारी में सांस लेते हुए। कभी नोटबंदी, कभी कोविड, कभी अंधविश्वास, झूठ, भक्ति या आर्थिकी की जर्जरताओं तथा समझदारी के लॉक़डाउन में। मानों ऐसे जीना ही हमारी प्राप्ति, हमारे अच्छे दिन! सोचें, और ईमानदारी से दिल पर हाथ रख कर सोचें कि 2016 की नोटबंदी के बाद से भारत की सांस क्या लगातार अस्थिर नहीं रही? काम धंधों के चौपट होने, बेरोजगारी, महंगाई तथा लोकतंत्र के कमजोर बनने, समाज में भयाकुलता, बिखराव, नैतिक मूल्यों व चरित्र के पतन, राजनीति के खरीद-फरोख्त की मंडी बनने, संस्कारहीनता, सत्ता दुरूपयोग तथा टकरावों के झटके खाते हुए सांसें धड़कती रही हैं या नहीं?
यदि हिसाब लगाने बैठें तो भरोसा नहीं होगा कि किन-किन अनुभवों, उन्मादों और प्रायोजित हल्लों-नैरिटिव से हम गुजरे हैं या लगातार गुजरते हुए हैं! हम कैसे सियासी अनुभव ले रहे हैं? कौम और नागरिकों की भयाकुलता में कैसे-कैसे फैसलों का अनुभव है? सोचें, आजाद भारत के इतिहास में कब करोड़ों की इतनी संख्या में लोग पांच किलो राशन पर जिंदगी गुजारते हुए, हजार-दो हजार रुपए की खैरात पर जीए हैं? हो सकता है किसी के लिए यह गौरव और उपलब्धि की बात हो मगर इससे जीवन तो आईसीयू वाला ही कहलाएगा।
तभी नोटबंदी के वर्ष से लेकर वर्ष 2022 तक करोड़ों-करोड़ लोग जैसे जो अनुभव लिए हुए है उन्हें यदि एक-एक कर याद करें तो क्या आश्चर्य नहीं बनेगा कि 130 करोड़ भारतीयों की महादशा में क्या-क्या भोगना है? इस अनुभव में अब कुछ सुकून वाली बात 2022 की यह मानता हूं कि आईसीयू में होते हुए भी सन् 2022 में सांसें स्थिर हैं, उनमें दम है। तभी देश में आजादी के छोटे-छोटे दीये अभी भी जल रहे हैं।