बेबाक विचार

चीन और नेपाल का ढीला होना

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चीन और नेपाल का ढीला होना
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी कमाल के आदमी हैं। एक तरफ चीन के खिलाफ उन्होंने कई मोर्चे खोल रखे हैं और दूसरी तरफ सीमा को लेकर वे भारत और चीन के बीच मध्यस्थ या पंच की भूमिका निभाना चाहते हैं। मध्यस्थ और पंच की भूमिका निभाने की इच्छा रखने की बजाय वे इस सवाल को लेकर चीन पर बरस पड़ते तो वह उनका ज्यादा प्रामाणिक तेवर होता लेकिन जैसा कि मैं अक्सर कहता हूं, ट्रंप का कुछ भरोसा नहीं। वे कब क्या कर पड़ें ? ट्रंप की दोस्ती आसान नहीं है। नादान की दोस्ती, जी का जंजाल है। ट्रंप ने पहले भी भारत और पाकिस्तान के बीच पंचायत करने की पहल कई बार की है लेकिन भारत ने उसकी तरफ झांका तक नहीं। ट्रंप से कोई पूछे कि पंच या मध्यस्थ बनने की काबलियत उनमें है क्या ? पाकिस्तान और चीन दोनों को उन्होंने इतने रगड़े दिए हैं कि वे ट्रंप को कभी अपना मध्यस्थ नहीं बनाएंगे। यदि भारत या नरेंद्र मोदी को ट्रंप अपना परम मित्र मानते हैं तो भारत के प्रति तटस्थ हुए बिना ट्रंप मध्यस्थ कैसे बन सकते हैं ? वे भारत के प्रति चीनी विवाद के वक्त तटस्थ हो रहे हैं तो साफ है कि वे भारत के प्रति मित्रता का जो दावा कर रहे हैं, वह शुद्ध ढोंग है। जबानी जमा-खर्च है। वरना इस समय चल रहे विवाद में चीन के प्रति उनका रवैया मध्यस्थ का नहीं, उनके विदेश मंत्रालय की अफसर एलिस की तरह बहुत सख्त होना चाहिए था। जहां तक चीन और नेपाल का सवाल है, दोनों देशों ने सीमा-विवाद के मामले में अपना रवैया नरम किया है। नई दिल्ली में चीनी राजदूत ने कहा है कि दोनों देशों के बीच बातचीत चल रही है और सारा मामला जल्दी सुलझ जाएगा। इसी प्रकार नेपाली सरकार ने लिपुलेख क्षेत्र के बारे में जो नए नक्शे छापे हैं, उन पर वह अपनी संसद की छाप लगवाना चाहती थी लेकिन उसने यह कदम वापस ले लिया है। दूसरे शब्दों में चीन और नेपाल के साथ मुठभेड़ की नौबत अभी टलती हुई दिखाई पड़ रही है। दोनों देशों के प्रति भारत सरकार का रवैया दृढ़ लेकिन संयमपूर्ण रहा है, जो कि वर्तमान परिस्थिति में बिल्कुल ठीक है। चीन और नेपाल के रवैयों में जो ढीलापन दिखाई पड़ रहा है, वह भी समयानुकूल है। दोनों देशों को पता है कि यह 1962 नहीं, 2020 है और दिल्ली में नेहरु की नहीं, मोदी की सरकार है, जो किसी भी वक्त कोई भी फैसला ले सकती है।
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