कांग्रेस पार्टी के एक नेता जितिन प्रसाद भाजपा में शामिल हुए। इस घटनाक्रम की कई तरह से व्याख्या हो रही है। अगले साल उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव पर असर के नजरिए से, ब्राह्मण मतदाताओं के योगी सरकार से नाराज होने और जितिन प्रसाद के जरिए उनको पटाने के ‘मास्टर स्ट्रोक’ नजरिए से और कांग्रेस के कमजोर होते जाने के नजरिए से। इसके अलावा अवसरवादी राजनीति के नजरिए से भी इस घटना को देखा जा रहा है, आखिर राहुल गांधी ने 2009 में दूसरी बार यूपीए की सरकार बनने पर जिन युवा नेताओं को केंद्रीय मंत्री बनवाया था, उनमें जितिन प्रसाद भी एक थे। लेकिन कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने और निकट भविष्य में सत्ता में लौटने की नाउम्मीदी के चलते उनके पाला बदलने को अवसरवाद मान कर इस घटना की समीक्षा की जा रही है। भाजपा के कांग्रेस युक्त होते जाने और किसी न किसी वंश का प्रतिनिधित्व कर रहे नेताओं को बिना हिचक अपनी पार्टी में शामिल करने के नजरिए से भी इस घटना को देखा जा रहा है। पर
इन सबसे अलग इस घटना को भारतीय राजनीति के विद्रूप के तौर पर देखे जाने की जरूरत है। क्योंकि सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर यह भारतीय राजनीति का कैसा रूप है, जिसमें विचारधारा के लिए कोई जगह नहीं रह गई है- न पार्टियों के लिए और न नेताओं के लिए?
यह सिर्फ जितिन प्रसाद का मामला नहीं है, बल्कि उनके जैसे अनेक नेताओं, देश की सबसे पुरानी पार्टी और ‘दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी’ का भी मामला है। आखिर ‘दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी’ के सामने ऐसी क्या मजबूरी है, जो वह दूसरी पार्टियों के नेताओं को इतने शानो-शौकत के साथ अपनी पार्टी में शामिल करती है? पार्टी के सर्वोच्च नेता उसके साथ फोटो खिंचवाते हैं और उसे किसी न किसी पद से नवाजा जाता है? जितिन प्रसाद ने कहा कि अब देश में भाजपा ही एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है और वहीं देश का विकास कर सकती है, क्या इतने भर से उनको भाजपा की विचारधारा में यकीन करने वाला माना जा सकता है?
यह भी सवाल है कि क्या अब तक वे सचमुच कांग्रेस की विचारधारा को मानते थे? अगर मानते थे तो कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने के बाद उस विचारधारा में ऐसा क्या बदलाव आ गया, जो जितिन प्रसाद को पसंद नहीं आया? ध्यान रहे बार-बार जितिन प्रसाद का नाम लेने का यह मतलब नहीं है कि बात सिर्फ उनके बारे में हो रही है, यह उनके जैसे सभी नेताओं के बारे में है। इस तरह के नेता असल में न पहले किसी विचारधारा में यकीन कर रहे होते हैं और न बाद में वे किसी विचारधारा से जुड़ते हैं।
अगर ऐसा होता तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए नेता चुनाव खत्म होते ही वापस तृणमूल में शामिल होने के लिए बेचैन नहीं हो जाते! आखिर उन्होंने भी भाजपा के शीर्ष नेताओं के सामने सदस्यता ग्रहण करते समय यही कहा था कि उनको भाजपा की विचारधारा में यकीन है और वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज से प्रभावित हैं। फिर तीन महीने में ही ऐसा क्या हो गया कि भाजपा की विचारधारा से भी मोहभंग हो गया और प्रधानमंत्री मोदी के कामकाज पर से भी यकीन खत्म हो गया? क्या जिस समय ये नेता लोग भाजपा में शामिल हो रहे थे उस समय भाजपा नेताओं को यह पता नहीं था कि इनकी किसी के प्रति कोई निष्ठा नहीं है और ये सिर्फ सत्ता की चाह में दलबदल कर रहे हैं? निश्चित रूप से भाजपा को ऐसे नेताओं की असलियत पता थी फिर भी उसने उन नेताओं को पार्टी में शामिल किया तो उसका मकसद भी सत्ता की चाहना ही है।
इसका अर्थ है कि दोनों पक्ष सिर्फ सत्ता की चाहत से निर्देशित हो रहे हैं और दोनों को एक-दूसरे के झूठ का पता है। हिंदी के मशहूर व्यंग्यकार संपत सरल अक्सर कहते हैं कि जब बोलने वाले और सुनने वाले दोनों को पता हो कि झूठ बोला जा रहा है तो उस झूठ का पाप नहीं लगता है। यही दलबदल के मामले में होता है। एक पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी में जाने वाला जब कहता है कि उसे नई पार्टी की विचारधारा में यकीन है तो उसे पता होता है कि वह झूठ बोल रहा है और नई पार्टी के नेताओं को भी पता होता है कि यह झूठ है। फिर दोनों एक-दूसरे के झूठ को सहज भाव से स्वीकार करते हुए आपस में एकाकार हो जाते हैं।
असल में आजादी के बाद भारतीय राजनीति से जिस एक चीज का सर्वाधिक लोप हुआ है वह विचारधारा है। इसके अलावा निष्ठा, प्रतिबद्धता, ईमानदारी, सादगी आदि चीजों का भी लोप हुआ है, जो किसी जमाने में भारत की राजनीति के नीति निर्देशक तत्व थे। याद करें कैसे भारत के आजाद होने से पहले देश में जो सरकारें बनी थीं उन सरकारों के मंत्री ट्रेन के तीसरे दर्जे में सफर करते थे और उनके साथ काम करने वाले अधिकारी पहले दर्जे में चलते थे। उस सादगी और समर्पण आदि की बातों को छोड़ दें क्योंकि मौजूदा समय में उसका पालन करने की किसी से उम्मीद नहीं की जा सकती है। वह यूटोपियन सी चीज हो गई है। लेकिन
वैचारिक निष्ठा तो कोई यूटोपियन चीज नहीं है! वह तो वास्तविकता है, जो आज भी दुनिया के ज्यादातर देशों की राजनीति में सहज रूप से पाई जाती है। अमेरिका जैसे देश में यह सुनने को नहीं मिलता है कि रिपब्लिकन पार्टी का कोई नेता डेमोक्रेटिक पार्टी में शामिल हो गया। अमेरिका, यूरोप, ब्रिटेन या यहां तक कि भारतीय उप महाद्वीप में बांग्लादेश या श्रीलंका जैसे देशों में भी राजनीति वैचारिक आधार पर बंटी हुई है और नेता अपनी अपनी विचारधारा के हिसाब से पार्टियों से जुड़े हैं। कोई कंजरवेटिव है, कोई लेबर है, कोई ग्रीन है, कोई लिबरल है, कोई डेमोक्रेटिक है और जैसा है वैसा दशकों से है। हार या जीत से नेता या पार्टियों की विचारधारा नहीं बदल जाती है।
यह सिर्फ भारत में होता है कि कोई नेता आज इस विचारधारा को मानता है, कल दूसरी विचारधारा को मानने का दावा करता है और परसों वापस पहले वाली विचारधारा के साथ जुड़ जाता है, जिसके लिए भारतीय मीडिया ने घर वापसी का जुमला बनाया है। जिस तरह से मोबाइल के सिम एसएमएस के जरिए पोर्ट हो रहे हैं उसी तरह से नेता भी एसएमएस के जरिए पोर्ट होने लगे हैं, एक पार्टी से दूसरी पार्टी में, दूसरी से तीसरी में और तीसरी से चौथी में या फिर से पहले वाली में। बेशर्मी का आलम यह है कि पहली पार्टी में रहते दूसरी, तीसरी पार्टी वाले को गाली देते हैं, दूसरी में जाकर पहली और तीसरी पार्टी को, तीसरी में जाकर पहली और दूसरी पार्टी को और फिर पहली में जाकर बाकी पार्टियों को! भारत के नेता इस काम को ऐसी सहजता से करते हैं, जैसी सहजता से मछली पानी पीती है। सोचें, जितिन प्रसाद ने कितनी सहजता से कह दिया कि भाजपा राष्ट्रवादी पार्टी है और दूसरी पार्टियां व्यक्ति पूजा करने वाली हैं। हालांकि यह बात कहते समय भी वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुणगान में लगे थे। वहीं प्रधानमंत्री मोदी, जिनके खिलाफ पिछले सात-आठ साल से वे लगातार बोल रहे थे। नैतिकता की तरह विचारधारा भी उनके लिए ऐसी चीज है, जिसे जब चाहा तब उतार कर खूंटी पर टांग दिया और जब चाहा तब धारण कर लिया।
तभी यह भारतीय राजनीति और समाज का विद्रूप है, किसी एक व्यक्ति या एक पार्टी का नहीं।
व्यक्ति और पार्टियां दोनों सत्ता की चाहत से निर्देशित हो रही हैं। उनको सत्ता चाहिए, चाहे जैसे मिले। इसलिए उनके लिए सिद्धांत, नीति, विचारधारा का कोई मतलब नहीं रह गया है। कायदे से राजनीति हमेशा सिद्धांतों की होनी चाहिए। अगर सिद्धांत नहीं है तो उस राजनीति का कोई मतलब नहीं है। वह राजनीति बिना आत्मा के शरीर की तरह है। वह राजनीति लोकतंत्र या देश को किसी तरह का लाभ नहीं पहुंचाएगी और न आम लोगों को उस राजनीति का कोई फायदा होगा। असल में सिद्धांतों से दूर जाते जाते देश की राजनीति ऐसी फिसलन का शिकार हो गई है, जिसके निचले छोर का कोई अता-पता नहीं है। राजनीति की इस फिसलन से देश के लोगों में एक विराट मोहभंग पैदा हो रहा है, जो अंततः लोकतंत्र, देश और समाज तीनों के लिए बहुत घातक हो सकता है।