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संघीय ढांचे के लिए चुनौती

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संघीय ढांचे के लिए चुनौती

राजीव गांधी के सत्ता से बाहर होने के बाद केंद्र में गठबंधन की राजनीति का जो दौर शुरू हुआ था उस दौर में देश की संघीय व्यवस्था सबसे बेहतर ढंग से चली। कमजोर केंद्र की वजह से राज्यों को स्वतंत्र रूप से काम करने का मौका मिला। गठबंधन की मजबूरी में केंद्र सरकारों ने राज्यों के साथ ज्यादा विवाद नहीं बढ़ाया। करीब 25 साल की उस अवधि में राज्य सरकारों को बरखास्त करने और राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले भी बहुत कम हुए। एक तरह से कमजोर केंद्र की वजह से राज्यों की स्वायत्तता मजबूत हुई।

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भारत सैद्धांतिक रूप से एक अर्ध संघ है, जिसमें मजबूत केंद्र की अवधारणा के साथ शासन की संघीय व्यवस्था बनाई गई है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने इसे सहकारी संघवाद का नाम दिया। तभी उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद यह उम्मीद बंधी थी कि देश में संघवाद की व्यवस्था मजबूत होगी क्योंकि वे पहले नेता थे, जो 13 साल तक एक राज्य का मुख्यमंत्री रहने के बाद प्रधानमंत्री बने थे। उनसे पहले मोरारजी देसाई, वीपी सिंह, नरसिंह राव और एचडी देवगौड़ा ही ऐसे प्रधानमंत्री हुए, जो पहले मुख्यमंत्री रहे थे। लेकिन सबका मुख्यमंत्री का कार्यकाल बहुत छोटा रहा था और उन्हें केंद्र के साथ किसी किस्म के टकराव का सामना नहीं करना पड़ा था। इसके उलट बतौर मुख्यमंत्री मोदी का संबंध केंद्र के साथ तलवार की धार पर चलने जैसा था। उनकी पार्टी के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी उनको राजधर्म की याद दिलाई थी तो उसके बाद का 10 साल का कार्यकाल कांग्रेस की केंद्र सरकार से लड़ते-भिड़ते और तालमेल बनाने के प्रयास में बीता।

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तभी यह उम्मीद की जा रही थी कि वे प्रधानमंत्री बने हैं और सहकारी संघवाद की बात कही है तो उनके कार्यकाल में केंद्र व राज्यों के संबंध बेहतर होंगे और संघीय व्यवस्था मजबूत होगी। लेकिन असल में सब कुछ उलटा हो रहा है। उनके प्रधानमंत्री बनने के साथ ही केंद्र की सत्ता उसी तरह मजबूत होती गई है, जैसे इंदिरा गांधी या राजीव गांधी के जमाने में थी। ध्यान रहे राजीव गांधी के सत्ता से बाहर होने के बाद केंद्र में गठबंधन की राजनीति का जो दौर शुरू हुआ था उस दौर में देश की संघीय व्यवस्था सबसे बेहतर ढंग से चली। कमजोर केंद्र की वजह से राज्यों को स्वतंत्र रूप से काम करने का मौका मिला। गठबंधन की मजबूरी में केंद्र सरकारों ने राज्यों के साथ ज्यादा विवाद नहीं बढ़ाया। करीब 25 साल की उस अवधि में राज्य सरकारों को बरखास्त करने और राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले भी बहुत कम हुए। एक तरह से कमजोर केंद्र की वजह से राज्यों की स्वायत्तता मजबूत हुई। अब जबकि नरेंद्र मोदी सरकार ने केंद्र में सात साल पूरे किए हैं तो केंद्र और राज्यों के संबंध बेहद तनाव में दिख रहे हैं और संघीय व्यवस्था के सामने गंभीर चुनौती खड़ी हो गई है। प्रधानमंत्री ने जिस तरह से राज्यों के कलेक्टरों से सीधे संवाद किया है, दो अलग अलग चक्रवाती तूफानों में राहत की राशि को लेकर भेदभाव के जैसे आरोप लगे हैं, पश्चिम बंगाल में तूफान की समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ जिस तरह की दूरी दिखी है, वायरस के प्रबंधन को लेकर हुई प्रधानमंत्री की बैठक के बाद ममता ने जिस तरह मुख्यमंत्रियों के कठपुतली बनने की बात सार्वजनिक की, जीएसटी कौंसिल की बैठक के बाद तमिलनाडु के वित्त मंत्री ने जैसी चिंताएं जाहिर कीं या वैक्सीन की कमी को लेकर जिस तरह राज्यों के ऊपर जिम्मेदारी डाली जा रही है, ये सारी घटनाएं केंद्र और राज्य के बीच तालमेल बिगड़ने और संघीय व्यवस्था के कमजोर होने का संकेत हैं।

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सैद्धांतिक रूप से केंद्र का काम राज्यों को नियंत्रित करना नहीं होता है। केंद्र का काम राज्यों को उनके कामकाज में सहयोग करने का है। लेकिन कोरोना वायरस ही महामारी शुरू होने के  समय देश ने देखा कि किस तरह से प्रधानमंत्री ने एकतरफा तरीके से देश को बंद करने का ऐलान किया या वैक्सीन की नीति को नियंत्रित करने का प्रयास किया। वैक्सीन खरीदने का काम सीधे केंद्र ने किया और प्रधानमंत्री ने वैक्सीन डिप्लोमेसी के तहत दुनिया के कई देशों को अनुदान में वैक्सीन भेजी। लेकिन जब देश में वायरस की दूसरी लहर बेकाबू हुई और वैक्सीन की कमी हो गई तो केंद्र ने हाथ झाड़ कर कहा कि स्वास्थ्य राज्यों का विषय है, वे लॉकडाउन का फैसला करें, वे इलाज कराएं और वे ही वैक्सीन खरीदें। केंद्र ने पहली लहर में जो नीति अपनाई थी, यह उससे पूरी तरह से यू-टर्न था। कायदे से पहली लहर में ही राज्यों को अपने हिसाब से काम करने देना चाहिए था और जहां जरूरत होती वहां केंद्र सरकार उनकी मदद करती। लेकिन श्रेय लेने की राजनीति ने सब कुछ पटरी से उतार दिया। इसी तरह की गड़बड़ी वस्तु और सेवा कर यानी जीएसटी में भी देखने को मिली। केंद्र ने एक देश, एक कर के नाम पर राज्यों के कर वसूलने के लगभग सारे अधिकार अपने पास ले लिए और उनसे वादा किया कि अगर कर की वसूली एक निश्चित सीमा से कम होती है तो पांच साल तक उसकी भरपाई केंद्र सरकार करेगी। लेकिन कम वसूली का पहला मौका आते ही केंद्र ने पल्ला झाड़ लिया और राज्यों से कहा कि वे कर्ज लेकर इसकी भरपाई करें और कर की वसूली बढ़ने पर इसकी भरपाई कर दी जाएगी। ऐसी ही बातों के कारण तमिलनाडु के वित्त मंत्री पलानीवेल त्यागराजन ने कहा कि केंद्र और राज्यों के बीच भरोसा घट रहा है।

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केंद्र और राज्यों के बीच राजनीतिक टकराव भी बढ़ा है, पश्चिम बंगाल की घटनाएं इसकी मिसाल हैं। राजनीतिक टकराव का ही नतीजा है, जो आज बंगाल में भाजपा के सांसदों व विधायकों को केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की सुरक्षा दी गई है या केंद्रीय एजेंसियों के साथ राज्य  सरकार का टकराव बढ़ा है या केंद्र ने नियमों के साथ साथ संवैधानिक नैतिकता को ताक पर रख कर राज्य के मुख्य सचिव को दिल्ली तलब करने का आदेश निकाला। इससे पहले भी केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल के कुछ आईपीएस अधिकारियों को राज्य सरकार की सहमति के बगैर अपनी सेवा में बुलाने का आदेश निकाला था। केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग को लेकर पिछले सात साल में राज्यों ने जितनी शिकायत की है उतनी पहले कभी सुनने को नहीं मिली। इन्हीं शिकायतों की वजह से कई राज्यों ने सीबीआई को दी गई ‘जेनरल कंसेंट’ वापस ले ली थी। राज्यों खास कर विपक्ष के शासन वाले राज्यों के साथ पिछले सात साल में राजनीतिक टकराव बढ़ने के कई कारण हैं, जिनमें से मुख्य कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अत्यधिक राजनीतिक सक्रियता है। वे राज्यों के चुनाव जिस अंदाज में लड़ते हैं वह उनकी राजनीति के तो अनुकूल होता है लेकिन देश की संघीय व्यवस्था के लिए बहुत खराब होता है। ऐसा लगता है कि राज्यों में चुनाव प्रचार करते समय वे यह भूल जाते हैं कि वे भाजपा के सर्वोच्च नेता होने के साथ साथ देश के प्रधानमंत्री भी हैं। वे विपक्षी पार्टियों को राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मान नहीं कर नहीं, बल्कि उनको अपना दुश्मन मान कर प्रचार करते हैं, जिसकी वजह से चुनाव के बाद भी दुश्मनी बनी रह जाती है।

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देश का प्रधानमंत्री अपनी पार्टी का सर्वोच्च नेता होता है लेकिन वह राज्यों का नियंता या भाग्य विधाता नहीं होता है। राज्यों के मुख्यमंत्री उसके अधीन काम करने नहीं होते हैं। मुख्यमंत्री कार्यालय प्रधानमंत्री कार्यालय का एक्सटेंशन नहीं होता है। उनकी अपनी स्वायत्त सत्ता होती है। तभी बहुत पहले अस्सी के दशक में अपने उभार के समय एनटी रामाराव ने केंद्र को एक ‘कॉन्सेपचुअल मिथ’ यानी वैचारिक मिथक कहा था। लगभग उसी समय केंद्र और राज्यों के संबंधों को बेहतर बनाए रखने के सुझाव देने के लिए जस्टिस रणजीत सिंह सरकारिया की अध्यक्षता में सरकारिया आयोग का गठन किया गया था। नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री रहते इस आयोग की सिफारिशों की अक्सर चर्चा किया करते थे। मुख्यमंत्री रहते हमेशा उन्होंने एक स्वायत्त सत्ता के रूप में बरताव किया। सबने देखा था कि कैसे मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री के पहले कार्यकाल में विज्ञान भवन में हुई मुख्यमंत्रियों की बैठक से नरेंद्र मोदी बाहर निकल गए थे और बाहर मीडिया के कुछ चुनिंदा लोग इंतजार कर रहे थे, जिनको उन्होंने संबोधित किया। लेकिन दुर्भाग्य से आज अगर ममता बनर्जी या कोई दूसरा मुख्यमंत्री ऐसा करता है तो संवैधानिक मान्यतों और प्रोटोकॉल का उल्लंघन करने वाला माना जाता है।

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बहरहाल, भारत जैसे विविधता वाले देश में केंद्र ऐसा होना चाहिए, जो सबको जोड़े रखने वाला काम करे। केंद्र की ओर से ऐसा काम नहीं होना चाहिए, जिससे राज्यों को यह कहने का मौका मिला कि भरोसा घट रहा है। अगर आज तमिलनाडु के वित्त मंत्री भरोसा घटने की बात कर रहे हैं या पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री की बुलाई बैठक में नहीं बोलने दिए जाने की शिकायत करती हैं या बैठक में शामिल ही नहीं होती हैं या झारखंड के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के फोन कॉल को मन की बात बता कर उसका मजाक उड़ाते हैं या वित्तीय मसलों को लेकर राज्यों के वित्त मंत्री अलग समूह बना कर विचार करते हैं या राज्य सरकारें केंद्रीय एजेंसियों को दिया गया जेनरल कंसेंट वापस लेते हैं या विपक्षी शासन वाली सरकारें केंद्रीय मदद में भेदभाव के आरोप लगाती हैं तो यह संघीय व्यवस्था के लिए गंभीर चिंता की बात है।
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