आज हाल यह है कि भारत के बारे में अमेरिकी अधिकारी नाप-तौल कर बोलते हैं, ताकि भारत सरकार की भावना को कहीं खरोंच ना लग जाए। कारण स्पष्ट है। अमेरिका की प्राथमिकता चीन को घेरना है और यह काम बिना भारत की मदद के नहीं हो सकता।
अमेरिका ने अपने विदेश मंत्रालय के तहत एक अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग बना रखा है, जिसका काम हर साल दुनिया भर के देशों में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति पर रिपोर्ट तैयार करना है। आयोग अपना यह काम पूरे मनोयोग से करता है। अपनी रिपोर्ट सौंपने के बाद उसकी ड्यूटी पूरी हो जाती है। फिर यह अमेरिकी विदेश मंत्रालय के ऊपर होता है कि वह इस रिपोर्ट पर क्या कार्रवाई करे। यह कार्रवाई धार्मिक स्वतंत्रताओं का ख्याल कर नहीं, बल्कि अमेरिका की भू-राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से तय होती है। जो देश भू-राजनीतिक रणनीति में जरूरी माने जाते हैं, उनके बारे में आयोग की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है। जो देश विरोधी खेमे में नजर आएं, उनके खिलाफ प्रतिबंध लगाने तक की बात की जाती है। यह कहानी दशकों से इसी रूप में चल रही है। इसीलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं है कि आयोग की ताजा रिपोर्ट में (पिछले कई वर्षों की तरह) भारत के बारे में जो बातें कही गई हैं, उन्हें भारत सरकार ठेंगे पर रखेगी (जैसाकि वह रखती आई है)।
आज हाल यह है कि भारत के बारे में अमेरिकी अधिकारी नाप-तौल कर बोलते हैं, ताकि भारत सरकार की भावना को कहीं खरोंच ना लग जाए। कारण स्पष्ट है। अमेरिका की प्राथमिकता चीन को घेरना है और अमेरिकी रणनीतिकारों का आकलन है कि यह काम बिना भारत की सक्रिय मदद के नहीं हो सकता। तो आयोग की इस मांग का कोई मतलब नहीं है कि भारत को उस काली सूची में डाला जाए, जिसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों की अत्यधिक प्रताड़ना करने वाले मुल्कों को रखा जाता है। आयोग ने लिखा है कि भारत में मुसलमानों और ईसाइयों के साथ हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। साथ ही भारत सरकार ऐसी नीतियां बना रही है, जो अल्पसंख्यकों के मूल अधिकारों के खिलाफ हैं। भेदभावपूर्ण कानूनों के इस्तेमाल ने एक तरह की संस्कृति तैयार कर दी है, जिसमें भीड़ या समूहों द्वारा धमकियां देना, हिंसा करना और अभियान चलाना आम हो चला है। ये आयोग के निष्कर्ष हैं, जिन्हें भारत और अमेरिका दोनों की सरकारें ठेंगे पर रखेंगी।