पिछले दिनों दो अंतरराष्ट्रीय पत्रकार संगठनों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा। उन्होंने भारत में पत्रकारों पर राजद्रोह का मुकदमा करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता जताई। ऑस्ट्रिया स्थित इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट (आईपीआई) और बेल्जियम-स्थित इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स (आईएफजे) ने अपने पत्र में कहा कि पिछले कुछ महीनों में देश के अलग-अलग हिस्सों में कई पत्रकारों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के तहत राजद्रोह के आरोप में मामले दर्ज किए गए हैं। संगठनों ने कहा कि पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह और दूसरे आरोप लगा कर प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है। यह बहुत ही विचलित करने वाली बात है। इन संगठनों का कहना है कि कोरोना वायरस महामारी के फैलने के बाद इस तरह के मामलों की संख्या बढ़ गई है। यह दिखाता है कि महामारी की रोकथाम करने में सरकारों की कमियों को उजागर करने वालों की आवाज को दबाया जा रहा है।
ऐसी शिकायतें देश के अंदर पहले से जताई गई हैं। मसलन, हाल में भारत में संपादकों के संगठन एडिटर्स गिल्ड ने कहा कि संकुचित सोच वाली लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं पत्रकारों को स्टेट का दुश्मन समझती हैं। भारत भी इसी श्रेणी में शामिल हो गया है। असहमति के प्रति यह असहनशीलता लोकतांत्रिक ढांचे को ही कमजोर कर रही है, जिसमें मीडिया काम करता है। राजद्रोह कानून के धुआंधार इस्तेमाल की आलोचना सुप्रीम कोर्ट भी चुका है। लेकिन आज केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों पर इसका कोई असर होता नहीं दिखा है। सच यह है कि भारत में इन दिनों पत्रकारों के खिलाफ सिर्फ राजद्रोह के मामले ही नहीं दर्ज किए जा रहे हैं, बल्कि सरकारों की खामियां उजागर करने वाले पत्रकारों और संस्थानों के खिलाफ विज्ञापन बंद करने, पत्रकारों का रास्ता रोकने, उनके फोन टैप करने और उनके पुलिस उत्पीड़न जैसे मामले बढ़ते जा रहे हैं। जहां तक कोरोना महामारी का सवाल है, तो उससे संबंधित रिपोर्ट के कारण पत्रकार के उत्पीड़न का एक मामला पिछले दिनों गुजरात में सामने आया। वहां धवल पटेल नामक पत्रकार ने ‘फेस ऑफ नेशन’ नामक समाचार वेबसाइट पर एक खबर छापी थी कि गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी को राज्य में कोरोना वायरस महामारी की रोकथाम में हुई खामियों की वजह से बीजेपी उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा सकती है।
क्या प्रेस आजाद नहीं?
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