बेबाक विचार

जम्मू-कश्मीर में आबोहवा बदल रही

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जम्मू-कश्मीर में आबोहवा बदल रही
क्या जम्मू-कश्मीर अपनी मूल सांस्कृतिक विरासत की पुनर्स्थापना की ओर अग्रसर है? इसका उत्तर जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा लिए एक निर्णय में मिल जाता है। उपराज्यपाल मनोज सिन्हा की अध्यक्षता वाली प्रशासनिक परिषद ने एक अप्रैल को तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) को जम्मू संभाग में 25 हेक्टेयर भूखंड पर तिरुपति बालाजी मंदिर की भांति देवालय बनाने की स्वीकृति दी है। इस संबंध में टीटीडी को 40 वर्षों के लिए पट्टे पर जमीन मिलेगी, जहां वेद-पाठशाला, आध्यात्मिक/ध्यान केंद्र आदि का निर्माण किया जाएगा। धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण और जम्मू-कश्मीर राज्य के पुनर्गठन के बाद यह संभवत: पहला ऐसा निर्णय है, जिसमें इस भूखंड की मूल पहचान को पुनर्स्थापित करने के उद्देश्य से किसी हिंदू सनातनी धर्मार्थ संगठन को भूमि दी गई है। वर्ष 1932 में तत्कालीन तमिलनाडु सरकार ने तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम मंडल का गठन किया था। करोड़ों हिंदुओं की मान्यता और उनका विश्वास है कि आंध्रप्रदेश स्थित तिरुमाला की पहाड़ियों में भगवान विष्णु, तिरुपति बालाजी के रूप में अपनी पत्नी पद्मावति के साथ विराजमान हैं। यहां हर वर्ष श्रद्धालु बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। इस मंदिर की गणना देश के कुछ सबसे धनी मंदिरों में होती है। जम्मू-कश्मीर प्रशासन का यह निर्णय इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह उस विषाक्त मजहबी इको-सिस्टम को क्षीण करने का प्रयास करेगा, जिसका जन्म से ही बहुलतावाद, पंथनिरपेक्षता, सहिष्णुता और लोकतंत्र में रत्ती-भर भी विश्वास नहीं है। यह सही है कि तिरुपति बालाजी मंदिर जम्मू संभाग में बनना प्रस्तावित है, किंतु इससे आगे कश्मीर को उसकी मूल पहचान से जोड़ने का मार्ग भी प्रशस्त होगा। विगत 74 वर्षों से जम्मू-कश्मीर में इस्लाम के नाम उन्माद और आतंकवाद ने जमकर इस भूखंड की मूल सांस्कृतिक जड़ों पर कुठाराघात किया है, जिसमें मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्रों द्वारा कश्मीर के हजारों वर्ष पुराने इतिहास की अवहेलना करना भी शामिल है। सच तो यह है कि कश्मीर का कालक्रम ना तो कुछ दशक पुराना है और ना ही "इस्लामी इको-सिस्टम" इसकी मूल पहचान है। अनंतनाग स्थित मार्तंड सूर्य मंदिर सहित घाटी के कई हिस्सों में बिखरे प्राचीन मंदिरों के अवशेष यह सिद्ध करने हेतु पर्याप्त है कि यह भूखंड भारतीय संस्कृति का गर्भग्रह क्यों कहलाया जाता है। स्वतंत्रता के बाद से गजनवी, गौरी, बाबर, टीपू, औरंगजेब जैसे सैकड़ों इस्लामी आक्रांताओं को अपना नायक मानने वाले लोग, वामपंथी और गुलाम मानसिकता से जकड़े बुद्धिजीवी (इतिहासकार सहित) ऐसी धारणा बनाने का प्रयास करते है, जिसमें कश्मीर के प्राचीन सांस्कृतिक इतिहास को नकारकर केवल इस्लामी वर्चस्व को स्थापित किया जा सके। इसी मजहबी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए विभाजनकारी धारा 370-35ए की नींव रखी गई, 1989-91 में घाटी के मूल निवासी- कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाकर मौत के घाट उतारा गया, उनकी बहू-बेटियों का बलात्कार किया गया और दर्जनों मंदिरों (प्राचीन सहित) को जमींदोज कर दिया गया। परिणामस्वरूप, कश्मीर से पांच लाख पंडित घाटी से पलायन हेतु विवश हो गए। ऐसा इसलिए हुआ था- क्योंकि वह कश्मीरी पंडित न केवल घाटी के 5,000 वर्ष पुराने सांस्कृतिक इतिहास के ध्वजावाहक थे, अपितु उनकी पूजा-पद्धति, मानबिंदु और जीवनशैली वास्तविक कश्मीर का परिचायक थी। 2012 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, दो दशकों में यहां 208 मंदिरों को इस्लाम के नाम पर क्षति पहुंचाई गई थी। यह सही है कि जम्मू-कश्मीर दशकों से मुस्लिम बहुल है। बात यदि कश्मीर क्षेत्र की करें, तो यहां की कुल जनसंख्या में मुस्लिम आबादी 98 प्रतिशत से अधिक है। किंतु सच यह भी है कि पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। जिस प्रकार विश्व के कई क्षेत्रों- जैसे ईरान, अफगानिस्तान आदि का बलपूर्वक पर इस्लामीकरण किया गया है, ठीक उसी प्रकार का दंश कश्मीर ने भी भुगता है। सातवीं शताब्दी से अस्तित्व में आए इस्लाम ने जब 13वीं सदी में कश्मीर के भीतर प्रवेश करना प्रारंभ किया, तब यह क्षेत्र सदियों से वैदिक दर्शन, बौद्ध और शैव मत के विशिष्ट केंद्र के रूप में स्थापित था। काशी के बाद कश्मीर को ज्ञान की नगरी कहा जाता था। किंतु इस्लाम के आगमन पश्चात यहां बल-छल पूर्वक लोगों का मतांतरण किया जाने लगा। कालांतर में तब शेष देश की भांति यहां भी इस्लाम का राजनीतिक परचम फहराने के लिए कई मंदिरों को तोड़ा गया और यहां प्राचीन संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास हुआ। अत्याचारी और विनाशकारी नीति के बावजूद मुस्लिम शासक कश्मीर के सनातन स्वरूप को पूरी तरह से नष्ट नहीं कर पाए। इसका कारण था कि स्थानीय लोगों के साथ भारतीय संस्कृति के रक्षकों का प्रतिरोध। जब शेष देश की भांति कश्मीर में औरंगजेब का मजहबी उत्पीड़न अपने चरम पर पहुंच चुका था, तब कश्मीर के पंडितों ने अत्याचार से तंग आकर सिख गुरु तेगबहादुर जी से सहायता की याचना की। जब उन्होंने औरंगजेब को ऐसा करने से रोकना चाहा, तब इससे तिलमिलाए औरंगजेब ने गुरु तेग साहब को इस्लाम या मौत में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया। किंतु धर्मरक्षक गुरु ने राष्ट्र और यहां मूल सनातन संस्कृति के लिए अपना बलिदान देने का निर्णय किया। सिख गुरुओं की इन्हीं परंपरा को सिख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह ने भी आगे बढ़ाया। जब कश्मीर में इस्लामी अत्याचार और भारतीयता पर आए संकट का ह्द्य-विदारक समाचार उनतक पहुंचा, तब उन्होंने अपने श्रेष्ठ सेनाधिकारियों के साथ हजारों वीर सैनिकों को कश्मीर भेजकर पंडितों को क्रूर मुस्लिम शासन-व्यवस्था (जजिया सहित) से मुक्ति दिलाई। 1819 से अगले सत्ताइस वर्षों तक कश्मीर पर सिख साम्राज्य का शासन रहा। महाराजा रणजीत सिंह अपने जीवनकाल में ही डोगरा समुदाय के गुलाब सिंह को कश्मीर का राजा नियुक्त कर चुके थे, जिन्होंने छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर एक शक्तिशाली जम्मू-कश्मीर प्रदेश का गठन कर लिया। उनके कुशल सेनापति जनरल जोरावर सिंह ने वीरगति को प्राप्त होने से पहले लद्दाख को भी जम्मू-कश्मीर में मिला लिया। महाराजा गुलाब सिंह के बाद उनके पुत्र रणबीर सिंह, उनके बाद राजा प्रताप सिंह सिंहासन पर बैठे। महाराजा हरिसिंह जम्मू-कश्मीर के अंतिम हिंदू डोगरा शासक थे, जिन्होंने 23 सितंबर 1925 से रियासत की बागडोर संभाली। वह भी अपने पूर्वजों की भांति सच्चे सेकुलर थे और इस भूखंड की सांस्कृतिक पहचान अर्थात् बहुलतावादी और लोकतांत्रिक दर्शन में अटूट विश्वास रखते थे। उन्नीसवीं शताब्दी तक कश्मीर का इस्लामीकरण जो जिहादी पूरा नहीं कर पाए थे, उसे 1931 से घोर सांप्रदायिक शेख अब्दुल्ला, जोकि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की मजहबी भट्टी से तपकर पुन: घाटी लौटे थे- उन्होंने अपने घनिष्ठ मित्र पंडित जवाहर लाल नेहरू के सहयोग से निर्णायक रूप से आगे बढ़ाना प्रारंभ कर दिया। शेख ने पहले योजनाबद्ध तरीके से देशभक्त महाराजा हरिसिंह को मुस्लिम विरोधी बताना शुरू किया और फिर हाथों में कुरान लेकर मस्जिदों से विषवमन करते हुए सार्वजनिक जीवन प्रारंभ किया। वर्ष 1946 आते-आते शेख ने महाराजा हरिसिंह के खिलाफ "कश्मीर छोड़ो" मजहबी आंदोलन शुरू कर दिया और मुस्लिमों से हिंदू राजा के खिलाफ जिहाद में शामिल होने का आह्वान कर दिया। अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद खंडित भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.नेहरू ने अपने साझीदार शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर की सत्ता सौंप दी और यही उन दोनों की जुगलबंदी ने इस प्रदेश के इस्लामी स्वरूप को बरकरार रखने हेतु कालांतर में धारा 370-35ए को पीछे दरवाजे से संविधान में जोड़ दिया। 1952-53 में जब तक पं।नेहरू को शेख की वास्तविकता और उसके कट्टर इस्लामी उद्देश्यों का आभास हुआ, तब तक वे "सेकुलरवाद" के नाम पर कुटिल वाइसराय लॉर्ड माउंटबेटन के सानिध्य में कश्मीर संकट का बीजारोपण कर चुके थे। यदि पं.नेहरू ने राजनीतिक अपरिपक्वता और अदूरदर्शी दृष्टिकोण का परिचय नहीं दिया होता और सरदार पटेल के हाथों में देश की कमान होती, तो आज संभवत: कश्यप ऋषिमुनि की तपोभूमि कश्मीर में शेष देश की भांति बहुलतावाद, पंथनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्य अक्षुण्ण रहता। 1980-90 के दशक में जिहादियों द्वारा दर्जनों मंदिर टूटने या क्षतिग्रस्त होने से बच जाते। इसी तरह कश्मीरी पंडित दिनदहाड़े निर्मम हत्याओं का शिकार नहीं होते और उनकी महिलाएं, बच्चे सुरक्षित रहते। धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण के बाद जम्मू-कश्मीर प्रशासनिक परिषद द्वारा तिरुपति बालाजी मंदिर निर्माण की स्वीकृति देना- इस भूखंड को उसी संकीर्ण दर्शन से मुक्त कराने की दिशा में एक सार्थक और स्वागतयोग्य प्रयास है।  
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