झारखंड के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को जोरदार झटका लगा है। हरियाणा और महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों से इसे जोड़ कर देखें, तो इस सवाल पर अब ये चर्चा शुरू होगी कि क्या भाजपा का अपना खास एजेंडा अब लोगों को आकर्षित नहीं कर पा रहा है? उन दो चुनावों के पहले केंद्र की भाजपा सरकार धारा कश्मीर को विशेष अधिकार देने वाली संविधान की धारा 370 को खत्म कर चुकी थी। झारखंड चुनाव से पहले सुप्रीम कोर्ट का अयोध्या विवाद पर फैसला आ चुका था और साथ ही सरकार नागरिकता संशोधन कानून भी पारित करा चुकी थी। चुनाव प्रचार के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने बार-बार चार महीनों में अयोध्या में भव्य मंदिर बनाने की बात की। प्रधानमंत्री ने ये टिप्पणी भी कर डाली कि नए नागरिकता कानून और एनआरसी का विरोध पहनने वालों की पहचान उनके कपड़ों से की जा सकती है। यानी उनका इशारा मुसलमानों की तरफ था। इसके बावजूद झारखंड में अपेक्षित नतीजे भाजपा को हासिल नहीं हुए। बहरहाल, भाजपा इस पर संतोष कर सकती है कि उनका मुख्य वोट आधार उसके साथ मजबूती से बना हुआ है। ताजा नतीजे भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि देश में (जहां भाजपा मुख्य दावेदार है) एक तिहाई मतदाता उसके साथ गोलबंद हैं। नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय क्षितिज पर उदय के पहले भाजपा का यह वोट आधार 18 से 20 प्रतिशत था। यानी मोदी फैक्टर की वजह से इसमें 13 से 15 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इसे मोदी का भाजपा और हिंदुत्व की राजनीति के लिए दीर्घकालिक योगदान माना जाएगा। बहरहाल, राष्ट्रीय पोलिटिकल नैरेटिव बनाने में असल योगदान सीटों और हार-जीत का होता है। इस बिंदु पर भाजपा झारखंड में पिछड़ गई। ये बात उसे चुभेगी। खासकर उस वक्त पर जब नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के मुद्दे पर देश में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो चुका है। ये आंदोलन स्वतःस्फूर्त है। विपक्षी पार्टियां इसमें बाद में कूदी हैं। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद यह पहला मौका है, जब सड़कों पर भाजपा को इतना जोरदार विरोध झेलना पड़ रहा है। फिर ये नतीजा महाराष्ट्र में हुए घटनाक्रम के कुछ समय बाद ही आया है। महाराष्ट्र में जिस तरह शिवसेना- एनसीपी- कांग्रेस ने सरकार बनाई, उससे अमित शाह के सियासी चाणक्य की छवि प्रभावित हुई। झारखंड में भी पूरी व्यूह रचान शाह की ही थी। यानी अब वहां भी उनकी छवि में सेंध लगेगी।