हमारे सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार के बीच जजों की नियुक्ति पर जो खींचातानी चल रही थी, वह खुले-आम बाजार में आ गई है। सर्वोच्च न्यायालय के चयन-मंडल ने सरकार को जो नाम भेजे थे, उनमें से कुछ पर सरकार ने कई आपत्तियाँ की थीं। इन आपत्तियों को प्रायः गोपनीय माना जाता है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें जग-जाहिर कर दिया है। इस कदम से यह भी पता चलता है कि भारत में किसी भी उच्च पद पर नियुक्त होनेवाले जजों की नियुक्ति में कितनी सावधानी से काम लिया जाता है।
इस बार यह सावधानी जरा जरूरत से ज्यादा दिखाई पड़ी है, क्योंकि एक जज को इसलिए नियुक्त नहीं किया जा रहा है कि वह समलैंगिक है और दूसरे जज को इसलिए कि उसने ट्वीट पर कई बार सरकारी नीतियों का दो-टूक विरोध किया है। जहां तक दूसरे जज का सवाल है, सरकार की आपत्ति से सहमत होना ज़रा मुश्किल है। क्या सोमशेखर सुंदरेशन ने वे सरकार विरोधी ट्वीट जज रहते हुए किए थे? नहीं, बिल्कुल नहीं। वे जज थे ही नहीं। तब वे वकील थे और अब भी वकील हैं।
यदि एक वकील किसी भी मुद्दे पर खुलकर अपनी राय जाहिर नहीं करेगा तो कौन करेगा? भारतीय नागरिक के नाते उसे भी अभिव्यक्ति की पूरी आजादी है। हाँ, अब जज के नाते उन्हें अपनी अभिव्यक्ति पर संयम रखना होगा। सरकार का डर स्वाभाविक है लेकिन उनकी नियुक्ति के पहले उन्हें चेतावनी दी जा सकती है। उनकी नियुक्ति के विरोध से सरकार अपनी ही छवि खराब कर रही है। क्या इसका संदेश यह नहीं निकल रहा है कि सरकार सभी पदों पर ‘जी हुजूरों’ को चाहती है? दू
सरे जज पर यह आपत्ति है कि वह समलैंगिक है और उसका सहवासी एक स्विस नागरिक है। समलैंगिकता न्याय-प्रक्रिया में बाधक कैसे है, यह कोई बताए? दुनिया के कई राजा-महाराजा और प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति समलैंगिक रहे हैं। जहां तक उस जज के सहवासी का विदेशी होना है, कौन नहीं जानता कि भारत के एक प्रधानमंत्री, एक राष्ट्रपति, एक विदेश मंत्री और कई अन्य अत्यंत महत्वपूर्ण लोगों की पत्नियां या पति विदेशी रहे हैं। यह तो मैं अपनी व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर कह रहा हूं लेकिन यदि हम खोजने चलें तो ऐसे सैकड़ों मामले सामने आ सकते हैं।
यह ठीक है कि ऐसा होना कोई आदर्श स्थिति नहीं है लेकिन आज की दुनिया इतनी छोटी हो चुकी है कि इस तरह के मामले बढ़ते ही चले जाएंगे। भारतीय मूल के लोग आजकल दुनिया के लगभग दर्जन भर देशों में उनके सर्वोच्च पदों पर प्रतिष्ठित हैं या नहीं? बेहतर तो यही होगा कि चयन-मंडल (कालेजियम) का स्वरूप ही बदला जाए और अगर यह फिलहाल नहीं बदलता है तो सरकार और सर्वोच्च न्यायालय में चल रही मुठभेड़ तुरंत रूके। वरना, दोनों की सही कार्रवाइयों को भी जनता मुठभेड़ का चश्मा चढ़ाकर देखेगी।