बेबाक विचार

सरकार के लिए क्या सबक है?

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सरकार के लिए क्या सबक है?
सरकार के लिए इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ा सबक यह है कि उसे लोकतांत्रिक व्यवस्था की भावना के अनुरूप आम सहमति के साथ काम करना चाहिए। सरकार के लिए पहला और सबसे बड़ा सबक यह है कि वह कानून बनाने से पहले उस पर संबंधित पक्षों की राय ले और अधिकतम सहमति बनाने का प्रयास करे। दूसरे, संबंधित मंत्रालय की स्थायी समितियों को इस पर विचार करने दे। तीसरे, संसद में कानूनों पर खुली और बेबाक बहस होने दे और अगर सहमति नहीं बनती है तो संसद की साझा प्रवर समिति को भेज कर असहमति दूर करने का प्रयास करे। पहले देश में ऐसा ही होता रहा है। kisan andolan farmers protest विवादित कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा से उठा गुबार अभी थमा नहीं है। किसान अब भी दिल्ली की सीमा पर और पंजाब-हरियाणा में अलग अलग जगहों पर धरने पर बैठे हैं। वे कानूनों की वापसी की संवैधानिक प्रक्रिया पूरी होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सरकार उनके धरना खत्म करके अपने घर लौटने की प्रतीक्षा कर रही है ताकि पिछले एक साल से चल रहा गतिरोध खत्म हो। किसानों ने हालांकि कुछ और मांगें सरकार के सामने रखी हैं, लेकिन कानूनों की वापसी का इतना बड़ा फैसला सरकार ने कर लिया है तो उम्मीद करनी चाहिए कि बाकी मांगें भी मान ली जाएंगी और किसान आंदोलन खत्म हो जाएगा। सो, उसके बाद का बड़ा सवाल यह है कि इस पूरे घटनाक्रम से सरकार को क्या सबक मिला है और क्या सरकार उस सबक को याद रखेगी? सोशल मीडिया में कहा जा रहा है और खूब पढ़े-लिखे, विद्वान व प्रतिबद्ध लोग भी अति उत्साह में कह रहे हैं कि सरकार को सबक मिल गया है कि किसानों से नहीं टकराना चाहिए। यह भी याद दिलाया जा रहा है कि इससे पहले भी किसानों ने ही नरेंद्र मोदी सरकार को मजबूर किया था वह भूमि अधिग्रहण कानून बदलने का अध्यादेश वापस ले। यानी किसानों ने मोदी सरकार को दो बार पीछे हटने के लिए मजबूर किया इसलिए उनको किसानों से नहीं टकराना चाहिए। ठीक है किसानों से नहीं टकराना चाहिए पर बाकी समूहों या देश के किसी भी नागरिक से भी सरकार को क्यों टकराना चाहिए? क्या जो किसान की तरह संगठित नहीं है, सरकार को पीछे हटाने की सामर्थ्य जिसके पास नहीं है, जो मजबूत वोट बैंक नहीं है क्या उसके साथ सरकार का टकराना और उसे दबा देना जायज है? इस तर्क से तो नागरिकता कानून में संशोधन यानी सीएए जायज हो जाएगा क्योंकि उस मसले पर हुआ आंदोलन खत्म हो गया और सरकार पीछे नहीं हटी! अगर सरकारें इस तर्क से काम करेंगी या लोकप्रिय विमर्श में इस तर्क को प्रमुखता दी जाएगी तो उससे आम नागरिक, हाशिए पर के समाज, पिछड़े, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय के लिए चुनौतियां बढ़ जाएंगी। सो, सरकार के लिए इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ा सबक यह है कि उसे लोकतांत्रिक व्यवस्था की भावना के अनुरूप आम सहमति के साथ काम करना चाहिए। वह जिन समूहों या समुदायों के लिए कानून बना रही है उनके साथ अनिवार्य रूप से विचार-विमर्श करना चाहिए। उसे सभी विपक्षी पार्टियों के साथ भी सहमति बनानी चाहिए या कम से कम सहमति बनाने का प्रयास करना चाहिए। सरकार को संसदीय प्रक्रिया के प्रति आदर भाव दिखाते हुए उसका पालन करना चाहिए। सरकार को सभी लोगों या अधिकतम लोगों के हितों का ध्यान रखते हुए कानून बनाना चाहिए। सबसे ऊपर सरकार की मंशा साफ और मकसद बहुत स्पष्ट होना चाहिए। कृषि कानूनों के मामले में इनमें से कुछ भी नहीं किया गया था। न किसान संगठनों के साथ सलाह-मशविरा करके सहमति बनाई गई थी, न विपक्ष को भरोसे में लिया गया था और न संसदीय प्रक्रिया का ठीक तरीके से पालन हुआ था। kisan andolan farmers protest Read also किसानों को भरोसा क्यों नहीं हो रहा? पता नहीं क्यों सरकार ने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 की वापसी वाले कानून से सबक नहीं लिया? मजबूरी में ही सही लेकिन उस कानून पर संसद में सहमति बन गई थी। ज्यादातर या लगभग सभी पार्टियों ने या तो उस मसले पर सरकार का समर्थन किया था या खामोश रही थीं। यहीं कारण है कि एक बहुत छोटे से समूह को छोड़ कर किसी ने उस कानून का विरोध नहीं किया। कह सकते हैं कि वह हमेशा से पूरे देश के लिए एक भावनात्मक मुद्दा था और आम लोगों के जीवन पर उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा था इसलिए वह कानून सहज स्वीकार्य हो गया। कृषि कानून उससे अलग थे फिर उनको सहज रूप से स्वीकार्य क्यों नहीं बनाया जा सकता था? अगर इन कानूनों को लेकर सरकार की मंशा साफ थी तो उसने कानूनों के मसौदे पर जताई जा रही आपत्तियों पर ध्यान क्यों नहीं दिया और संसद में इस पर बहस क्यों नहीं होने दी? सरकार ने राज्यसभा में इन कानूनों को विपक्ष की वोटिंग की मांग ठुकरा कर जोर-जबरदस्ती पास कराया था। सो, सरकार के लिए पहला और सबसे बड़ा सबक यह है कि वह कानून बनाने से पहले उस पर संबंधित पक्षों की राय ले और अधिकतम सहमति बनाने का प्रयास करे। दूसरे, संबंधित मंत्रालय की स्थायी समितियों को इस पर विचार करने दे। तीसरे, संसद में कानूनों पर खुली और बेबाक बहस होने दे और अगर सहमति नहीं बनती है तो संसद की साझा प्रवर समिति को भेज कर असहमति दूर करने का प्रयास करे। पहले देश में ऐसा ही होता रहा है। लेकिन दुर्भाग्य से 17वीं यानी मौजूदा लोकसभा में 10-12 फीसदी बिल पर ही संसद में चर्चा हो रही है और बाकी सारे बिल सरकार बिना चर्चा के और अपने प्रचंड बहुमत के दम पर पास करा रही है। इसके बाद सरकार के लिए एक सबक यह भी है कि उसकी और सत्तारूढ़ दल की ट्रोल सेना विपक्ष को तो बदनाम कर सकती है लेकिन नागरिक समाज को बदनाम करना उसके लिए भी मुश्किल है। किसान आंदोलन ने आईटी सेल, ट्रोल सेना और प्रतिबद्ध मीडिया तीनों की सीमाएं उजागर कर दी है। इन तीनों के साझा प्रयास से भी किसान आंदोलन को बदनाम नहीं किया जा सका और न आम लोगों के मन में उनके प्रति एक सीमा से ज्यादा नफरत पैदा की जा सकी। सरकार के लिए एक सबक यह भी है कि उसे लचीला होना चाहिए। किसानों के मामले में आखिरकार सरकार झुकी लेकिन उसने इसमें एक साल से ज्यादा समय लगा दिया और इस दौरान सात सौ किसानों की मृत्यु हो गई। हजारों किसानों ने हजार किस्म की मुश्किलें बरदाश्त कीं और हजारों करोड़ रुपए का नुकसान अलग हुआ। आंदोलन की वजह से सड़कें जाम रहीं, जिसका खामियाजा आम लोगों को भी भुगतना पड़ा। सरकार के लिए एक सबक यह है कि उसे लोकतंत्र में जन आंदोलन को ताकत को समझना और स्वीकार करना चाहिए। उसे समझना चाहिए कि संसद में बहुमत होना सब कुछ नहीं होता है। सरकार को असहमति की आवाजों को सबसे पहले सुनना चाहिए। अगर मनमोहन सिंह की सरकार ने जंतर-मंतर पर धरना देने की जनवरी 2011 की अन्ना हजारे की चेतावनी की अनसुनी नहीं की होती या उनकी चिट्ठियों को गंभीरता से लिया होता तो शायद उनकी सरकार की भी वह दुर्दशा नहीं होती, जो हुई। उसी तरह नरेंद्र मोदी ने कृषि कानूनों पर असहमति की आवाजों को समय रहते सुना होता तो इतनी फजीहत नहीं होती। (kisan andolan farmers protest)
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