उनकी याद कराने में असम के राज्यपाल श्रीनिवास कुमार सिन्हा का विशेष हाथ है। उन्होंने उनके सम्मान में विश्वविद्यालय में एक भाषण माला शुरु की थी। उन्होंने रक्षा मंत्रालय पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए नेशनल डिंफेस अकादमी के सबसे अच्छे कैडर को सर्वश्रेष्ठ कैडर का अवार्ड उनके नाम पर देना शुरु कराया था। जनरल एस के सिन्हा सेना से रिटायर होने के बाद असम के राज्यपाल बनाए गए थे। उन्हें इंदिरा गांधी ने सेना प्रमुख नहीं बनने दिया था।
हाल में अखबारों में लाचित बोड़फुकन की याद दिलाने वाले विज्ञापन देखे तो ध्यान आया कि असम में अगले साल चुनाव होने वाले हैं। यह हमारे देश की राजनीति का रिवाज हो गया है कि किसी की वीरता, उसकी महानता व देशभक्ति को तभी याद किया जाता है जब उस राज्य में चुनाव होने वाले होते हैं। लाचित बोड़फुकन को असमी लोगों की वीरता व बुद्धि कौशल का प्रतीक माना जाता है। अपनी बुद्धि कौशल व वीरता की वजह से उन्होंने सरायघाट की लड़ाई में औरंगजेब जैसे मुगल सम्राट की बहुत बड़ी सेना को, जो कि हजारों तुर्की घुड़सवारों व तोपों से लैस थी अपनी गोरिल्ला युद्ध के कारण वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया था। उनका अब हम 400 वां जन्मदिन मना रहे हैं।
लाचित बोड़फुकन उत्तर पूर्व, विशेष तौर पर असम के आहोम साम्राज्य के सेनापति याकि कमांडर चीफ थे। उन्होंने 1671 में बहुचर्चित सरायघाट युद्ध में औरंगजेब की सेना को पराजित किया था। आहोम साम्राज्य पहले भारत के असम इलाके में हुआ करता था। वे बहुत वीर योद्धा थे। लाचित बोड़फुकन का जन्म 24 नवंबर 1622 को हुआ था। इस इलाके में उन्हें उनकी वीरता के कारण सम्मान दिया जाता था। जिस तरह से औरंगजेब की सेना को उन्होने हराया तो उस कारण उन्हें उत्तरपूर्व भारत का शिवाजी भी कहा जाता है।
उन्हें इतना ज्यादा मान सम्मान दिया जाता है कि असम में 24 नवंबर को लाचित दिवस के रुप में मनाया जाता है। उन्हें वहां के समाज में बहुत सम्मान दिया जाता है। जब उल्फा ने कुछ दशक पहले अलग असम बनाने का आंदोलन शुरु किया था तब आंदोलन को सफल बनाने के लिए लाचित बोड़फुकन के नाम का जमकर इस्तेमाल किया।
उनकी याद कराने में असम के राज्यपाल श्रीनिवास कुमार सिन्हा का विशेष हाथ है। उन्होंने उनके सम्मान में विश्वविद्यालय में एक भाषण माला शुरु की थी। उन्होंने रक्षा मंत्रालय पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए नेशनल डिंफेस अकादमी के सबसे अच्छे कैडर को सर्वश्रेष्ठ कैडर का अवार्ड उनके नाम पर देना शुरु कराया था। जनरल एस के सिन्हा सेना से रिटायर होने के बाद असम के राज्यपाल बनाए गए थे। उन्हें इंदिरा गांधी ने सेना प्रमुख नहीं बनने दिया था और लेफ्टीनेंट जनरल पद से रिटायर होने के पहले उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने असम के राज्यपाल रहते गुवाहाटी में असम द्वार स्थापित करवाया और वहां 1671 की बहुचर्चित सरायघाट युद्ध को याद दिलाने के लिए एक स्मारक भी लगवाया।
सन 1671 में हुई इस लड़ाई में आहोम साम्राज्य के कमांडर इन चीफ लाचित बोड़फुकन ने आमेर के राजा रामसिंह की सेना को पराजित कर औरंगजेब के उत्तर-पूर्व पर राज करने के सपने को बिखेर दिया था। असम में उन्हें बहुत सम्मान से देखा जाता है। उल्फा ने अलग असम की मांग को लेकर 1980 में अपना पृथक असम आंदोलन चलाया तो उसे उचित ठहराने के लिए उसके नेता लाचित के नाम का इस्तेमाल करने लगे। वे कहते थे कि उनकी रगों में आज भी लाचित का खून दौड़ रहा है। मगर लंबे अरसे तक असम के बाहर पूरे देश में उन्हें उनकी भूमिका के कारण बहुत याद किया गया। इसलिए क्योंकि उन्होंने औरंगजेब जैसे मुगल बादशाह को हराया था।
पहली बार 2000 में उन्हें राष्ट्र ने तब याद किया जब नेशन डिफेंस अकादमी में उनकी प्रतिमा लगाई गई व असम सरकार ने हर साल सर्वश्रेष्ठ कैडर के अवार्ड देना शुरु किया उन्हें मुगल सम्राट के खिलाफ लड़ने वाले वीर हिंदू योद्धा के रूप में याद किया जाना शुरू हुआ। हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दिवंगत आहोम कमांडर जनरल को उनकी जन्म शताब्दि पर अपनी श्रद्धांजली दी। असम सरकार इस दिन को असम दिवस के रूप में मनाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें भारत का गौरव बताया। ध्यान रहे कि 15 अक्तूबर को अकबर के जन्म दिन व 20 नवंबर को टीपू सुल्तान के जन्मदिन पर मोदी ने इन लोगों को ही याद नहीं किया था।
बहरहाल असम में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले है। बिहार विधानसभा का चुनाव हार चुकी भाजपा अब असम में कोई भी जोखिम मोल लेना नहीं चाहती। ऐसे में असम के शिवाजी व राणा प्रताप कहे जाने वाले लाचित को याद करना स्वाभाविक हो जाता है। हालांकि शिवाजी की तरह लाचित ने हिंदू बादशाही को ध्यान में रखते हुए मुगलों से युद्ध नहीं किया था। न ही शिवाजी की तरह मुगल इलाकों पर हमले किए थे। असम के लोग लंबे समय से उनके इस दिन को याद न करने के कारण पूरे देश के साथ नाराजगी जताते आए हैं। सरायघाट का मुगलों के साथ हुए तमाम टकरावों में अहम भूमिका रही है। 1669 में औरंगजेब की मुगल सेना ने आमेर के राजा राम सिंह के नेतृत्व में असम पर हमला किया था। रामसिंह ने 4000 सैनिकों के साथ असम पर हमला बोला था।
बाद में इस हमले में औरंगजेब की सेना के सैनिक भी शामिल हो गए। इस सेना में बड़ी तादाद में राजपूत राजाओं की सेना भी शामिल हो गई। इनकी संख्या करीब 80000 थी। रामसिंह की सेना की बड़ी कमजोरी उनके पास नौसेना का युद्ध लड़ने का अनुभव नहीं होना था। वे अपने साथ 40 युद्ध नौकाएं लेकर आए थे पर उनके पास कुशल सैनिक नहीं थे। इससे पहले नवाब मुजज्म खान जिसे मीर जुमला भी कहा जाता है वहां हमला कर चुकी थी। तब उसके साथ बड़ी तादाद में तोपची व नौसैनिक भी आए थे। हालांकि रामसिंह की सेनाए बारिश के दौरान ललित के गुरिल्ला युद्ध का सामना नहीं कर सकी। रामसिंह के बादशाह का समर्थन तो था मगर औरंगजेब के तमाम दरबारी राजा इस हमले के पक्ष में नहीं थे। इसकी एक वजह यह भी थी कि ये हिंदू राजा नहीं चाहते थे कि किसी और हिंदू इलाके पर औरंगजेब हमला करे। पर राम सिंह को काले जादू व तंत्र मंत्र का शौक था। उसको लगता था कि उसके जादू के आगे असम का तंत्र मंत्र नकारा साबित होगा।
रामसिंह को बैलों का युद्ध बहुत पसंद था व असम के बिहू बिहू त्यौहार के दौरान बैलों का युद्ध भी आयोजित किया जाता था। युद्ध के दौरान रामसिंह ने असम के राजा को भड़काने के साथ एक तीर में यह संदेश लिखकर भेजा कि उसका कमांडर इन चीफ उनके साथ मिल गया है व उसने उन्हें हराने के लिए खरीद लिया है। पर राजा ने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया। तब रामसिंह ने उसे संधि प्रस्ताव भेजा पर राजा ने जवाब दिया कि वह एक बड़े राज्य का राजा है तो उसके साथ इस तरह की बात बादशाह ही कर सकता है। इसका कोई सिपहसलार नहीं।
तब रामसिंह ने लाचित को बीजों का एक डब्बा भेजा जिस पर लिखा था कि मुगल सैनिकों की संख्या बीजों की तरह अनंत है। जवाब में लाचित ने उसे रेत का डिब्बा भेज कर कहा कि आहोम सेना रेती की तरह है जिसमें कुचला नहीं जा सकता। रामसिंह की पैदल सेना असम की पैदल सैनिकों से डरती थी। एक मुगल इतिहासकार ने लिखा था कि एक असमी पैदल सैनिक 10 मुगल सैनिकों पर भारी पड़ता था जबकि एक मुगल सैनिक घुड़सवार सौ असमी सैनिकों पर हावी हो जाता था। मगर जब आहोम राजा ने लाचित की सलाह को न मानते हुए मुगलों से मैदान में लड़ने को कहा तब मुगलों ने एक दिन में ही करीब 10000 असमी सैनिकों को मार दिया। इस पर लाचित ने सरायघाट में मिट्टी के बांध बनवा कर वहां घुड़सवार सैनिक को उतरने नहीं दिया व अततः ललित ने उन्हें हरा दिया।