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श्रीलंका संकट का सबक

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श्रीलंका संकट का सबक
भारत के दक्षिणी पड़ोसी श्रीलंका में जो संकट आया है उससे भारत को भी सबक लेने की जरूरत है। क्योंकि वह किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए टेम्पलेट की तरह है, जिससे पता चलता है कि क्या क्या किया जाए तो एक अच्छा खासा फलता-फूलता देश बरबाद हो सकता है। ध्यान रहे श्रीलंका एक जीवंत लोकतांत्रिक देश है और उसका आधुनिक लोकतंत्र भारत से कम से कम दो दशक पुराना है। पर्यटन पर आधारित उसकी अर्थव्यवस्था भी कुछ समय पहले तक ठीक-ठाक चल रही थी। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव, नई बनी सरकार की नीतियों और कोरोना की महामारी ने देश को इस हालत में ला दिया कि प्रधानमंत्री को इस्तीफा देने के बाद घर छोड़ कर भागना पड़ा है। ध्यान रहे महिंदा राजपक्षे कोई साधारण प्रधानमंत्री नहीं हैं। वे श्रीलंका के लोगों के महानायक हैं। उन्होंने अलग तमिल राज्य के लिए लड़ रहे लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम को जिस बर्बरता से खत्म किया उससे एक प्रखर राष्ट्रवादी और बेहद मजबूत नेता की उनकी छवि बनी है। नाराज लोगों ने उस महानायक प्रधानमंत्री का पैतृक घर जला दिया और प्रधानमंत्री को परिवार को साथ भागना पड़ा! इससे जाहिर होता है कि एक समुदाय के खिलाफ बर्बर कार्रवाई और मनमाने फैसलों से बनी महानायक की छवि एक वक्ती परिघटना होती है, जो किसी मामूली सी बात से भी भंग हो सकती है। महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक संकट ने महिंदा राजपक्षे की महानायक की छवि को बुरी तरह से खंडित कर दिया। यह कमाल है कि भारत में इस पूरी परिघटना को इस नजरिए से नहीं देखा जा रहा है। भारत में एक अलग ही नैरेटिव चल रहा है। भारत में प्रतिबद्ध मीडिया और सोशल मीडिया के प्रचार से यह लोकप्रिय धारणा बनाई जा रही है कि जिस जिस देश ने चीन का नमक खाया उसका बंटाधार हो गया। इस नैरेटिव को श्रीलंका और पाकिस्तान के उदाहरणों से मजबूत किया जा रहा है। एक छोटा समूह है, जो यह बता रहा है कि गलत आर्थिक नीतियों के कारण पाकिस्तान और श्रीलंका के प्रधानमंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा इसलिए भारत की सरकार को संभल जाना चाहिए तो दूसरी ओर यह विशाल नैरेटिव है कि चीन की वजह से पाकिस्तान और श्रीलंका की दुर्दशा हुई है। श्रीलंका के प्रधानमंत्री के इस्तीफे को पाकिस्तान से जोड़ने और इसके लिए चीन को जिम्मेदार ठहराने का मकसद यह है कि वास्तविक कारणों से लोगों का ध्यान हटाया जाए। असलियत यह है कि सिर्फ चीन पर निर्भरता या उसके कर्जों की वजह से श्रीलंका आर्थिक संकट में नहीं फंसा। वह कई कारणों में से एक कारण है। मुख्य जिम्मेदार कारण एक मजबूत और महानायक प्रधानमंत्री और उसके परिवार की राजनीति है। श्रीलंका में 2019 के अंत में हुए संसदीय चुनाव में राजपक्षे परिवार की पार्टी ने अनेक लोक लुभावन घोषणाएं की थीं। टैक्स कटौती और ऑर्गेनिक खेती की घोषणा मुख्य है। इन्हें लागू करने में सरकार के खजाने पर बड़ा असर हुआ। उसके बाद दो साल कोरोना की मार रही है, जिसकी वजह से पर्यटन उद्योग पूरी तरह से ठप्प रहा। ऊपर से चीन और दूसरे देशों व वैश्विक वित्तीय संस्थाओं के कर्ज के भुगतान का संकट था। इन सबका मिला-जुला असर यह हुआ कि श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो गया और जरूरी वस्तुओं की कीमतें बेतहाशा बढ़ गईं। मनमाने आर्थिक फैसलों से खड़े हुए संकट के अलावा श्रीलंका की बरबादी का एक बड़ा कारण सामाजिक व राजनीतिक विभाजन है। महानायक प्रधानमंत्री की विभाजनकारी नीतियों की वजह से श्रीलंका का समाज धर्म के आधार पर बंटा हुआ है। सिंहली और बौद्ध बनाम अन्य का विवाद बहुत गहरे जड़ जमा चुका है। महिंदा राजपक्षे ने तमिल हिंदुओं का लगभग सफाया कर दिया है। प्रदेश के उत्तरी हिस्से में जाफना आदि का जो तमिल बहुल इलाका है वहां एलटीटीआई का सफाया करने के बाद महिंदा राजपक्षे ने अल्पसंख्यक हिंदू तमिलों को जो राजनीतिक भागीदारी देने का वादा किया था उसे पूरा नहीं किया। इस बीच ईसाइयों और मुस्लिमों के खिलाफ दुष्प्रचार और हमले आदि शुरू हो गए। हाल के दिनों में कई चर्चों पर हमला होने की खबर है। न्यूजीलैंड में एक ईसाई द्वारा मुसलमानों पर हमले का बदला लेने के लिए कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों ने श्रीलंका का चुनाव अनायास नहीं किया था। वहां पहले से इस तरह के हालात बन रहे थे। ऐसे हालात बनने के लिए जिम्मेदार महिंदा राजपक्षे खुद हैं, जो यह मानते और कहते रहे कि वे सिंहली और बौद्ध आबादी के दम पर भी चुनाव जीत सकते हैं। उनके इस बहुसंख्यकवाद ने श्रीलंका को गहरे संकट में धकेला। संकट शुरू होने और श्रीलंका के सभी अंतरराष्ट्रीय कर्जों मामलों में डिफॉल्टर हो जाने के बावजूद महिंदा राजपक्षे इस भ्रम में रहे कि वे श्रीलंकाई नागरिकों के महानायक हैं। इसलिए उन्होंने सरकार विरोधी प्रदर्शनों को गंभीरता से नहीं लिया। वे यह मानते रहे कि लोगों का विरोध प्रदर्शन विपक्षी पार्टियों की साजिश है। जरूरी चीजों की कमी और महंगाई से परेशान आम लोगों के विरोध प्रदर्शन के बारे में उनकी धारणा थी कि विपक्षी पार्टियां लोगों को गुमराह कर रही हैं और आंदोलन के लिए उकसा रही हैं। वे यह भी मानते रहे कि इस आर्थिक संकट के बावजूद वे महानायक हैं। उन्होंने इससे ध्यान भटकाने के लिए पिछले महीने यानी अप्रैल के मध्य में कहा था कि उन्होंने जिस तरह से एलटीटीई को खत्म किया था उसी तरह इस आर्थिक संकट को भी खत्म करेंगे। अपने महानायक होने के भ्रम में ही उन्होंने एक महीने के आंदोलन और विपक्ष के दबाव के बावजूद इस्तीफा नहीं दिया और जब इस्तीफा दिया तो शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों पर अपने समर्थकों से हमला करा दिया। इससे आम लोग भड़के और देश में गृहयुद्ध के हालात बन गए। प्रधानमंत्री को घर छोड़ कर भागना पड़ा और तब भी संकट समाप्त नहीं हुआ। क्योंकि कोरोना खत्म होने के बाद पर्यटकों और निवेशकों के श्रीलंका पहुंचने की उम्मीद थी, जो मौजूदा घरेलू हालात की वजह से खत्म हो गई है। अगर बारीकी से श्रीलंका संकट को देखें तो भारत के साथ कई समानताएं दिखेंगी। आठ साल पहले 2014-15 में श्रीलंका की अर्थव्यवस्था आठ फीसदी की उच्च दर से बढ़ रही थी। उस समय भारत की विकास दर भी इतनी ही थी। उसके बाद सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के कारण श्रीलंका की विकास दर घटती गई। क्या संयोग है कि भारत में भी उसी तरह विकास दर घटी। पिछले आठ साल में जीडीपी के अनुपात में श्रीलंका का कर्ज सौ फीसदी को पार कर गया तो भारत का भी कर्ज 67 फीसदी से बढ़ कर जीडीपी के मुकाबले 90 फीसदी को पार कर गया है। श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार पूरी तरह से खाली हो गया, जबकि पिछले छह महीने में भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में भी करीब 60 अरब डॉलर की कमी आई है, जो महंगे कच्चे तेल की वजह से और घटेगी। श्रीलंका की तरह ही भारत में भी महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है। जरूरी चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। लगातार तीन महीने से खुदरा महंगाई दर रिजर्व बैंक की ओर से तय की गई अधिकतम सीमा से ज्यादा है और थोक महंगाई दर करीब एक साल से दहाई में है। भारत में भी बहुसंख्यकवाद बढ़ रहा है और वोट की राजनीति के लिए समाज को जाति व धर्म के नाम पर बांटा जा रहा है। भारत में भी महानायक नेता के हाथ में कमान है और भारत में भी आंदोलनों को विपक्ष की साजिश बताया जाता है। इस तरह श्रीलंका के संकट का भारत के लिए बड़ा सबक है।
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