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और 400 दिन, चुनाव के!

तैयारी में अपना क्षण-क्षण झोंको, लड़ो, जीतो! मगर जीते नहीं तो वापिस तैयारी, लड़ाई व जीत का दौर। वह खत्म तो तीसरा दौर… यही पिछले आठ सालों से हिंदू स्वंयसेवकों के क्षण-क्षण का टाइमपास है। गौर करें, दुनिया में खोजें कि ऐसा कोई दूसरा देश है, जहां के राजनीतिक कार्यकर्ता और नागरिक सब ‘कोल्हू के बैल’ की ऐसी नियति लिए हुए हों। पता नहीं भाजपा, आरएसएस, उसके तमाम संगठनों के कितने करोड़ कार्यकर्ता हैं लेकिन इन तमाम संगठनों की अब तक की उम्र के पिछले आठ-नौ वर्षों के अनुभवों पर गौर करें। सत्ता, पैसे और लाठी का चाहे जो सुख और वैभव मिला हो मगर हैं तो सब राजा नरेंद्र मोदी की पालकी उठाए कहार। उनके कोल्हू के बैल! सभी संगठनों, उनके तमाम उद्देश्यों, संकल्पों, एजेंडे याकि सावरकर-हेडगेवार के विचारों को नरेंद्र मोदी अपने सत्ता यज्ञ में क्या स्वाह नहीं कर दे रहे हैं?

क्या मैं गलत हूं? सोचें, ईमानदारी से सोचें कि क्या भारत सावरकर या गोलवलकर के विचारों का हिंदू राष्ट्र हुआ है? क्या भारत हिंदू राष्ट्र घोषित हुआ? क्या अखिल भारतीय गोहत्या पाबंदी कानून बना? क्या संसद ने समान नागरिक संहिता बनाई? क्या बांग्लादेशी-पाकिस्तानी देश से निकाले गए? क्या हिंदी बतौर राष्ट्र भाषा केंद्र सरकार के कामकाज की भाषा है? क्या मदरसा शिक्षा खत्म हुई? क्या शिक्षा, पाठ्यक्रम, इतिहास, संस्कृति, सभ्यता को लेकर कोई भी वह काम हुआ, जिसका संकल्प सावरकर के आइडिया ऑफ इंडिया में असंख्य हिंदुवादी दशकों से लिए हुए थे? क्या भारत वैसा राष्ट्रवादी हुआ, जिसकी कल्पना में हिंदुवादी लोग इजराइल, जापान और जर्मनी का हवाला देते थे? क्या भारत भ्रष्टाचार मुक्त हुआ? क्या काला धन खत्म हुआ? क्या भारत, उसकी आर्थिकी स्वदेशी हुई? भारत के 140 करोड़ लोगों में स्वावलंबियों, आत्मनिर्भर, रोजगार पाए लोगों की आबादी का अनुपात बढ़ा या उलटे राशन, खैरात, फ्री की रेवड़ियों पर जीने वाले भीखमंगे, बेरोजगारों की संख्या बेइंतहां बढ़ी? देश में गरीब-अमीर की असमानता बढ़ी या घटी?

मतलब हिंदुवादी आइडिया ऑफ इंडिया के एजेंडे में रियलिटी जांचें या बरबादी के कांग्रेसी शासन चरित्र से देश की मुक्ति के हिंदुवादी वायदों की किसी भी कसौटी में सोचें। फिर मोदीशाही से भारत की प्राप्ति का हिसाब लगाएं तो वह मिलेगा क्या, जिसे आठ सालों से खपते कोल्हू के बैलों की मेहनत से निकला तेल मानें? उलटे क्या यह साबित नहीं हुआ कि तिल में तेल ही नहीं जो कोल्हू से हिंदुओं को तेल मिले।

सही है राम मंदिर बन रहा है। अनुच्छेद 370 खत्म हुई। दुनिया के नेताओं में पगड़ीधारी हिंदू प्रधानमंत्री, भगवाधारी नेता चेहरे बैठ रहे हैं तो उससे क्या? क्या अमेरिका, यूरोप याकि दुनिया ने भारत का कायाकल्प कराने का ऐसा कोई भी प्लान बनाया है, जैसे उन्होंने जापान, यूरोप या चीन को बनाने के लिए बनाया था? क्या मंदिर बनने से रामजी अवतरित हो कर हिंदुओं को रोजी-रोटी देंगे? क्या अनुच्छेद 370 खत्म हो जाने से कश्मीर घाटी में हिंदुओं का लौटना, वहां बसना संभव हुआ? या जो हिंदू वहां थे वे ही और डर कर क्या भागते हुए नहीं हैं?

संभव है यह रियलिटी भक्तों, कोल्हू के बैलों के गले नहीं उतरे। आखिर उनकी नियति घूमते रहना है। मालिक प्रधानमंत्री का अमृत काल बनाए रखना है। इसलिए इस सप्ताह भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने तालियों के साथ नरेंद्र मोदी के इस आह्वान को गले उतारा कि चुनाव में अब 400 दिन बचे हैं और वे अपने जीवन का क्षण-क्षण भारत की विकास गाथा में लगाएं। सबसे अच्छा दौर आने वाला है, जिसे कोई रोक नहीं सकता। देश का सुनहरा दौर आ रहा है और हमें और मेहनत करनी चाहिए। अमृत काल (2047 तक के 25 साल के वक्त) को कर्तव्य काल में बदलने की जरूरत है।

तभी तो दुनिया मानती है कि शब्दों की जुगाली में, मुंगेरीलाल ख्यालों में हिंदुओं जैसी नस्ल दुनिया में दूसरी कोई नहीं।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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