अगला लोकसभा चुनाव या उससे पहले होने वाले विधानसभा चुनावों का केंद्रीय मुद्दा क्या होगा? क्या भारतीय जनता पार्टी सुनियोजित तरीके से चुनावों को विचारधारा की लड़ाई की तरफ ले जा रही है? अभी त्रिपुरा में इस साल का पहला चुनाव है और अगले तीन महीने में कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इन दोनों राज्यों में भाजपा के प्रचार का जो केंद्रीय तत्व है उसे देख कर लग रहा है कि ये सामान्य चुनाव नहीं हैं। भाजपा चुनाव को अलग दिशा में ले जा रही है। त्रिपुरा में पांच साल राज करने के बाद भाजपा ने सड़क, बिजली और पानी जैसे पारंपरिक मुद्दों पर वोट नहीं मांगा है। शांति बहाली के नाम पर वोट मांगा गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद सीपीएम और कांग्रेस को ‘चंदा और दंगा’ वाली पार्टी करार दिया है।
इसी तरह कर्नाटक में पहले भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नलिन कुमार कतिल ने कहा कि इस बार का चुनाव विचारधारा के मुद्दे पर लड़ा जाएगा और बाद में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसी लाइन को दोहराया। उन्होंने कहा कि सावरकर और टीपू सुल्तान की विचारधारा के बीच लड़ाई होगी। कतिल और शाह दोनों ने कांग्रेस और जेडीएस को टीपू सुल्तान की विचारधारा वाली पार्टी करार दिया। हालांकि यह नहीं कहा कि भाजपा सावरकर की विचारधारा वाली पार्टी है, लेकिन यह कहने की जरूरत भी नहीं थी।
कर्नाटक चुनाव की घोषणा होने के बाद इसमें और स्पष्टता आएगी। अगर राज्य में तीन साल और केंद्र में नौ साल सरकार चलाने के बाद भाजपा सावरकर और टीपू सुल्तान की विचारधारा पर चुनाव लड़ती है। हिजाब और हलाल मीट के मुद्दे पर प्रचार करती है और मंदिर व हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगती है तो यह तय हो जाएगा कि आगे के चुनाव भी इन्हीं मुद्दों पर होंगे। ध्यान रहे मेघालय औ नगालैंड में इसी महीने चुनाव हैं लेकिन वहां चूंकि हिंदू आबादी कम है और दोनों ईसाई बहुल राज्य हैं इसलिए वहां विचारधारा का मुद्दा नहीं होगा। लेकिन कर्नाटक और उसके बाद तेलंगाना, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान इन पांच राज्यों में भाजपा विचारधारा के मुद्दे पर लड़ेगी। तेलंगाना में भी इसका प्रचार शुरू हो गया है। सत्तारूढ़ टीआरएस और दो विपक्षी पार्टियों कांग्रेस व एमआईएम को निजाम की विचारधारा वाली पार्टी बताया जा रहा है। इन तीन पार्टियों के बरक्स भाजपा अपने को हिंदुत्व की बात करने वाली पार्टी के तौर पर पेश कर रही है।
यह कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा के लिए विचारधारा का क्या मतलब है। कर्नाटक में भाजपा ने बार बार सावरकर का नाम लिया है। सबको पता है कि सावरकर की विचारधारा क्या थी। उनके लिए हिंदू धर्म का मुद्दा उतना महत्वपूर्ण नहीं था, जितना नस्ल का मामला था। उनके लिए राष्ट्रवाद का मतलब नस्ल, भाषा और भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ा था। नस्ल का मतलब हिंदू, भाषा का मतलब हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाएं और भौगोलिक क्षेत्र का मतलब अखंड भारत। अपनी इसी विचारधारा के तहत उन्होंने दो राष्ट्र का सिद्धांत दिया था और कहा था कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग अलग राष्ट्र हैं और एक साथ नहीं रह सकते हैं।
यह विचारधारा वोट का ध्रुवीकरण कराने वाली है। इसी को अपने तरीके से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था। जब उन्होंने 80 बनाम 20 फीसदी की लड़ाई की बात कही थी तो असल में वे इसी विचारधारा की बात कर रहे थे। सावरकर और टीपू की विचारधारा की लड़ाई यही 80 और 20 फीसदी के मुकाबले की विचारधारा है। त्रिपुरा में विधानसभा के चुनाव प्रचार का आगाज करते हुए अमित शाह ने ऐलान किया था कि एक जनवरी 2024 को अयोध्या में भव्य राममंदिर बन कर तैयार हो जाएगा। अयोध्या का राममंदिर विचारधारा के आधार पर चुनावी मुकाबले का ही एक पहलू है। अलग अलग राज्यों में इस तरह के अलग अलग प्रतीक खोजे जाएंगे और उनका इस्तेमाल होगा।
अब सवाल है कि इसके मुकाबले विपक्ष के पास क्या है? क्या विपक्ष विचारधारा की इस लड़ाई में कोई वैकल्पिक विचारधारा पेश करके चुनाव लड़ेगा या चुनाव के पारंपरिक मुद्दों पर उसका फोकस रहेगा? ऐसा नहीं है कि विपक्ष को अंदाजा नहीं है कि भाजपा क्या कर रही है और चुनाव को किस दिशा में ले जा रही है। उसको अंदाजा है और तभी राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ा यात्रा में बार बार वैकल्पिक दृष्टि की बात कही। वे देश जोड़ने और मोहब्बत की विचारधारा का प्रचार कर रहे हैं तो हिंदी पट्टी के दो बड़े राज्यों- बिहार और उत्तर प्रदेश की मंडलवादी पार्टियां हिंदुत्व की विचारधारा के बरक्स जाति की विचारधारा पेश कर रही हैं। जाति जनगणना और रामचरित मानस का विरोध इस राजनीति का प्रस्थान बिंदु बना है। वे चुनाव को अपने पहचाने और आजमाए हुए क्षेत्र में ले जाना चाहती हैं। इसलिए अगड़ा बनाम पिछड़ा, सवर्ण बनाम शूद्र का राजनीतिक, सामाजिक विमर्श खड़ा किया जा रहा है। इसका असर हिंदी भाषी कुछ और प्रदेशों पर पड़ सकता है। मुद्दों के लिहाज से एक तीसरा पहलू भाषायी भिन्नता वाले राज्यों का है। दक्षिण भारत के पांच राज्यों से लेकर पूरब में पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, असम और पश्चिम में महाराष्ट्र, गुजरात तक भाषायी अस्मिता बहुत अहम है। इन राज्यों की पार्टियां धर्म और जाति के मुकाबले भाषायी अस्मिता को मुद्दा बनाएंगी।
अंत में पारंपरिक चुनावी मुद्दे आते हैं, जिनमें कुछ नए तत्व जुड़ गए हैं। पहले बिजली, सड़क, पानी यानी बीएसपी का मुद्दा होता था। अब मोटे तौर पर ये मुद्दे हल हो गए हैं। पीने के स्वच्छ पानी को छोड़ कर सड़क और बिजली तो लगभग हर जगह पहुंच गई है। इसके साथ साथ इंटरनेट भी सब जगह पहुंच गया है। तभी पार्टियों को इसमें कुछ नई चीजें जोड़ने की जरूरत महसूस हुई हैं। उन नई चीजों में सबसे मुख्य है पुरानी पेंशन योजना। सोचें, कितनी हैरानी की बात है कि जिस समय देश में सड़क, बिजली और पानी की राजनीति हो रही थी और उसे ही विकास कहा जा रहा था उस समय पुरानी पेंशन योजना को समाप्त कर दिया गया था और अब जब बिजली, सड़क और पानी की समस्या का समाधान हुआ है तो पुरानी पेंशन योजना की वापसी हो रही है! कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों ने राज्यों में इसे आजमाया है और उनको सफलता मिली है। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत में पुरानी पेंशन योजना लागू करने के वादे का बड़ा हाथ था।
इसके साथ ही इसमें मुफ्त की रेवड़ी का मामला भी है। पार्टियां चुनाव जीतने के लिए खुले दिल से खजाना लुटाने की घोषणा कर रही हैं। बिजली और पानी फ्री में देने का वादा किया जा रहा है, महिलाओं को बसों में फ्री यात्रा की सुविधा दी जा रही है, कॉलेज जाने वाली लड़कियों को मुफ्त में स्कूटी दी जा रही है, मुफ्त में रसोई गैस के सिलिंडर दिए जा रहे हैं तो कहीं महिलाओं को एक या दो हजार रुपए हर महीने देने की घोषणा हो रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे मुफ्त की रेवड़ी बताते हुए इसे समाप्त करने की अपील की थी लेकिन विपक्ष इस एजेंडे को आजमा कर सफल हो रहा है। सो, भाजपा भी राज्यों में इस तरह की योजनाओं की घोषणा कर रही है। इसके बावजूद आगे होने वाले चुनावों में विचारधारा बनाम पुरानी पेंशन योजना व मुफ्त की रेवड़ी का मुकाबला होगा।