पिछले साल जब देश के पहले लोकपाल के अध्यक्ष के रूप में न्यायमूर्ति पीसी घोष ने काम संभाला था तो यह उम्मीद बंधी थी कि देश में भ्रष्टाचार से निपटने की दिशा में कुछ तो काम शुरू हुआ है। भले भ्रष्टाचार से निपटने में यह संस्था अभी बहुत कुछ कर पाने की स्थित में न हो, लेकिन इसका गठन हो जाना ही एक बड़ी उपलब्धि रही, क्योंकि लोकपाल नियुक्त करने को लेकर लंबे समय तक जिस तरह की बैठकें चलीं, मतभेदों के चलते सहमति नहीं बन पाई, सरकार के रुख से नाराज कुछ सदस्य बैठकों में नहीं जा रहे थे, उससे लग रहा था कि लोकपाल का गठन हो भी पाएगा या नहीं। जब लोकपाल के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति का मामला निपट गया तो लोकपाल के दफ्तर की समस्या आई और शुरू में तय हुआ कि यह दफ्तर दिल्ली के एक पांच सितारा होटल से चलेगा। ऐसे में हर किसी के मन में यह सवाल तो उठेगा ही कि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए हम जिस तंत्र की लंबे समय से सख्त जरूरत महसूस कर रहे हैं, उसे खड़ा करने में ही अगर इतना वक्त लग जाएगा तो संस्था काम क्या और कैसे करेगी।
लोकपाल के गठन के साल भर बाद सरकार ने अब स्पष्ट नियम जारी कर दिए हैं। इनमें यह साफ कर दिया गया है कि कैसे जांच होगी, क्या होगा, कितने दिन में रिपोर्ट आएगी, कौन कार्रवाई करेगा.. आदि। जाहिर है लोकपाल को अब उन सारी शक्तियों से संपन्न किया जा रहा है जिसकी उसको आवश्यकता थी। बड़े नेताओं, मंत्रियों और अधिकारियों के अलावा प्रधानमंत्री भी अब लोकपाल के दायरे में हैं। पर लोकपाल को सरकार ने जिस तरह की शक्तियों से युक्त बनाया है, उससे कहीं न कहीं यह भी लगता है कि यह संस्था अपनी कसौटी पर खरी भी उतर पाएगी या नहीं। ताजा नियमों के मुताबिक अगर मौजूदा या किसी पूर्व प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज कराई जाती है तो शुरुआती स्तर पर लोकपाल की अध्यक्षता वाली बेंच ही उस पर यह फैसला करेगी कि इस शिकायत की जांच होनी भी चाहिए या नहीं। और अगर बेंच ऐसी किसी शिकायत को खारिज कर देती है तो इसके कारणों और बैठक का ब्योरा किसी भी रूप में सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। मंत्रियों और सांसदों के खिलाफ शिकायत के मामले में बेंच के दो तिहाई सदस्य ही शुरुआती स्तर मामले को आगे बढ़ाने का फैसला करेंगे। अगर नौकरशाहों के खिलाफ मामला आता है तो लोकपाल बेंच पहले इसकी जांच कराएगी और फिर जांच रिपोर्ट के आधार पर इस दिशा में आगे बढ़ेगी।
लोकपाल की चुनौती
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