बेबाक विचार

ममता न पहली नेता हैं न कोशिश नई है

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ममता न पहली नेता हैं न कोशिश नई है
ममता बनर्जी का हौसला विधानसभा चुनाव में मोदी-शाह के खिलाफ निर्णायक जीत से बढ़ा है। उन्होने चुनाव व्हीलचेयर पर बैठ कर लड़ा। उन्होंने पिछले 30 साल में लड़ाकू नेता वाली छवि बनाई है। संदेह नहीं है कि वे स्ट्रीट फाइटर हैं। ऊपर से उनके साथ प्रशांत किशोर जुड़ गए हैं, जिनके चुनाव प्रबंधन की सफलता का रिकार्ड अद्भुत है। सिर्फ एक उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस गठबंधन वाले प्रयोग को छोड़ दें तो वे उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक हर राज्य के चुनाव में सफल रहे हैं। इसे उनकी समझदारी भी कह सकते हैं कि वे हमेशा जीतने वाले घोड़े पर दांव लगाते हैं। सो, ममता और प्रशांत किशोर की जोड़ी दिल्ली जीतने के बंदोबस्त में लगी है। Read also भाजपा को कैसे हटाएंगे केंद्र से? लेकिन न ऐसी महत्वाकांक्षा पालने वाली ममता बनर्जी पहली नेता हैं और न यह कोशिश पहली है। याद करें पिछले लोकसभा चुनाव से पहले चंद्रबाबू नायडू ने कितनी मेहनत की थी। जब वे आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब उनके हवाई जहाज का इंजन भी ठंडा नहीं होता था। जिस जमाने में वे एनडीए के संयोजक थे और केंद्र में सरकार बनाने-बिगाड़ने की हैसियत रखते थे, तब ममता बनर्जी एनडीए का एक छोटा सा हिस्सा थीं। नायडू एनडीए के संयोजक थे और ममता उसी सरकार में मंत्री थीं। लेकिन आज चंद्रबाबू नायडू लुटे-पिटे से अपने राज्य में पड़े हैं। पिछले चुनाव से पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने भी कम मेहनत नहीं की थी। उन्होंने भी दिल्ली की खूब दौड़ लगाई और चेन्नई से लेकर कोलकाता तक उनका भी जहाज उड़ता रहा। वे भी इस मुगालते में थे कि वे विपक्षी पार्टियों का गठबंधन करा देंगे और नेता बन जाएंगे। Read also ममता के पत्ते बिछाना और….. ऐसे ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रयासों की कोई कैसे अनदेखी कर सकता है! उनकी महत्वाकांक्षा तो ममता बनर्जी से भी बड़ी थी। वे अपने पहले ही प्रयास में नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी चुनाव लड़ने चले गए थे और चार सौ से ज्यादा सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए थे। जब 15-20 सीटों को छोड़ कर सब पर उनके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई तब जाकर वे ठंडे हुए। लेकिन उसके बाद लगातार दो बार वे दिल्ली में जीते। ममता बनर्जी से पहले अगर किसी नेता ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह को निर्णायक मात दी तो वह अरविंद केजरीवाल हैं। उन्होंने भी अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है। ममता बनर्जी तो अभी सिर्फ त्रिपुरा और गोवा में जोर लगा रही हैं लेकिन केजरीवाल और उनकी पार्टी पंजाब से लेकर गोवा, उत्तराखंड, गुजरात तक पैर फैला रहे हैं। यह भी संयोग है कि प्रशांत किशोर उनके भी चुनाव रणनीतिकार रहे हैं। क्षेत्रीय पहचान वाले नेताओं में शरद पवार पहले नेता थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री बनने के लिए बिसात बिछाई थी। कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने स्वतंत्र रूप से इसका प्रयास किया। 1991 के लोकसभा चुनाव के अधबीच जब राजीव गांधी की हत्या हो गई तो देश के लगभग आधे हिस्से में चुनाव टल गए थे। उस समय शरद पवार ने अपने पत्ते बिछाए थे। तब बची हुई लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ रहे कांग्रेस के हर उम्मीदवार के पास नकद रुपए पहुंचाए गए थे, जिसके बारे में उन दिनों मीडिया में खबर आई थी यह शरद पवार का उद्यम था। चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनी लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए। गांधी-नेहरू परिवार के प्रति उनकी खुन्नस उसी समय से गहरी होनी शुरू हुई। Read also प्रशांत किशोर की चोटी, ब्राह्मण को आफरा! बहरहाल, देश में गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू होने के बाद अनेक प्रादेशिक नेताओं ने प्रधानमंत्री बनने के सपने देखे। लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव दोनों ने दिल्ली में बड़ा जोर लगाया। दोनों की लड़ाई में एचडी देवगौड़ा की किस्मत खुल गई, जिन्होंने कोई जोर नहीं लगाया था। कर्नाटक के जो नेता प्रधानमंत्री पद के दावेदार माने जाते थे वो रामकृष्ण हेगड़े थे। गठबंधन की राजनीति के दौर में वामपंथी नेता विपक्ष को एकजुट करते थे लेकिन जब उनके पास अपना प्रधानमंत्री बनाने का मौका था और ज्योति बसु के नाम पर लगभग सहमति थी तब वे पीछे हट गए। विंस्टन चर्चिल ने ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने के बाद कहा था कि वे जीवन भर इस क्षण की तैयारी और प्रतीक्षा कर रहे थे। भारत में कम ही नेता हुए जिन्होंने जीवन भर प्रधानमंत्री बनने की तैयारी और प्रतीक्षा की। उनमें चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी के नाम लिए जा सकते हैं।
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