मैं हिंदू, शर्मसार-4: भारत के शिखर नेतृत्व ने 25 जुलाई 2022 को संसद भवन के सेंट्रल हॉल से दुनिया को जतलाया की भारत देश 21वीं सदी में भी जात की पहचान, गरीबी की दुहाई, क्षेत्र और धर्म की कबीलाई राजनीति में सांस लेता है। आजादी के 75वें अमृत वर्ष में भारत का वैश्विक नगाड़ा है कि देखो हमने आदिवासी द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाया। और जात विरोधी हमारे डॉ. वैदिक ने ‘नया इंडिया’ के ही कॉलम में तुर्रा मारा कि देखो विकसित कनाडा में पोप आदिवासियों से माफी मांग रहा है, जबकि हमने एक आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया। कोई पूछे कि जो दलित प्रतिनिधि रामनाथ कोविंद अभी राष्ट्रपति भवन के पिंजरे से बाहर निकले हैं, उनसे देश के भले की बात तो छोड़ें, दलित संघर्ष के तमाम झंझावातों में चिंता-मरहम का एक शब्द भी क्या मु्ह से कभी निकला? कार्यकाल में सरकार के किसी फैसले पर अपनी अंतरात्मा (पता नहीं वह है भी या नहीं) से कॉमा, फुलस्टॉप भी बदला?
आजाद भारत के इतिहास में कोविंद वे पहले राष्ट्रपति हैं, जिनकी मोदी सरकार ने वैश्विक शिष्टाचार की मायने वाली विदेश यात्राएं भी दिखावे की कराईं।। अफ्रीकी, कैरेबियन देशों, बांग्लादेश और शायद वैदिकजी ने भी उस ‘संत विंसेंट एंड द ग्रेनडीनेस’ नाम के देश को नहीं जाना होगा, जिसे मोदी सरकार ने दलित राष्ट्रपति को घुमवाया। कूटनीति-राष्ट्र की विदेश नीति की किसी वैश्विक राजधानी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री जयशंकर ने दलित राष्ट्रपति की यात्रा नहीं करवाई। न उनकी यात्राओं का वैसा प्रचार-प्रसार हुआ, जैसे प्रधानमंत्री की यात्रा का होता है। उन्हें अपनी समझ से प्रेस प्रमुख, पीए, निजी स्टाफ, सचिव रखने का भी मौका नहीं था। ऐसा व्यवहार प्रथम दलित राष्ट्रपति केआर नारायण के साथ नहीं था।
मैं भटक गया हूं। पर नोट रखें आदिवासी द्रौपदी मूर्मू के राष्ट्रपति बनने से इंच भर राष्ट्रपति भवन का रोल सरकार को मार्गदर्शन, प्रेरणा और जवाब तलब करने या सुझाव देने का नहीं बनेगा। वे भी कोविंद की तरह चंद अफ्रीकी व बेमतलब देशों की शोभा यात्रा करेंगी। व्हाइट हाउस में या वैश्विक राजधानियों में उनके नेतृत्व, उनकी बुद्धि प्रगट नहीं होने वाली है।
लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी के लिए राष्ट्रपति का दलित या आदिवासी या ब्राह्मण, राजपूत या मुसलमान होना क्योंकि जात-पांत में बंटे देश के वोटों के लिए उपयोगी है तो हम दुनिया को झांकी दिखाते हैं कि फलां जाति का गरीब, दलित, आदिवासी, पिछड़ा सत्ता की फलां-फलां कुर्सी पर बैठा है। इसलिए संसद भवन में अपने पहले भाषण में दौपद्री मूर्मू का यह सार सटीक है कि- देश के गरीब, दलित, पिछड़े तथा आदिवासी मुझमें अपना प्रतिबिंब देख रहे हैं…मैं जनजातीय समाज से हूं।
जाहिर है 75 वर्षों का सत्य है कि हिंदुओं ने अपनी वर्ण व्यवस्था, जात रचना को भारत राष्ट्र की नियति से स्थायी तौर पर और गुंथा है। संघ परिवार और नरेंद्र मोदी के राज की सर्वोच्च उपलब्धि (या विकृति) है जो जात व्यवस्था के पोर-पोर को खाद-पानी दे कर जातियों का वह नया जेनेटिक जंगल बनाया है, जिससे केवल और केवल बबूल, कांटे हैं। दरअसल हिंदुओं के धर्म, हिंदू राज व्यवस्था में राजा के लिए क्योंकि बुद्धि व काबलियत अनिवार्य नहीं मानी गई है। तलवारधारी क्षत्रिय और पिछड़े राजाओं के चाणक्य याकि ब्राह्मण जात शहर बाहर आश्रमों में, ऋषि-मुनियों के रूप में थी तो मध्यकाल हो या आधुनिक काल (अंग्रेजों की शिक्षा संगत में जरूर शुरुआत पढ़े-लिखे राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री पद के लिए जैसे डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. राधाकृष्ण, नेहरू खानदान का मौका बना) में हार्वर्ड-ऑक्सफोर्ड मतलब बुद्धि, ज्ञान-विज्ञान, प्रतिभा-काबलियत और आधुनिक संस्कारों वाला देश नेतृत्व हो, इसकी जरूरत और समझ पैदा हुई ही नहीं। तभी भारत के लोकतंत्र में नेतृत्व की परिभाषा का अर्थ है कि जो भीड़ की अलग-अलग जातों का प्रतिनिधि या थोक वोटों का नेता है वहीं भारत माता की गद्दी का स्वयंभू मालिक। भारत माता कितनी ही लूट जाएं, कितना ही धोखा खाएं, उनकी संतानों का कितना ही दमन और चीरहरण हो तथा भयाकुल व भूखी जिंदगी जीएं लेकिन भारत माता की छाती पर मूंग दलने का अधिकार जात विशेष के लट्ठदारों का है!
ऐसा दुनिया के उन सभ्य, लोकतांत्रिक देशों में नहीं है, जहां प्रवासी हिंदू बसे हुए हैं। भारत की तरह वहां ऋषि सुनक से कंजरवेटिव पार्टी का यह रत्ती भर आइडिया नहीं है कि उन्हें नेता बनाया तो उनसे भारतीयों के वोट मिलेंगे। या यह कि उनको प्रधानमंत्री बनाने से दुनिया में ब्रिटेन के लोकतंत्र की वाह होगी, या समावेशी समाज होने का वैश्विक नगाड़ा बजेगा। उन्हें कुर्सी पर बैठा देंगे और हम राज चलाएंगे।
नहीं, कंजरवेटिव पार्टी के सांसदों ने ऋषि सुनक को पसंद किया है तो बतौर शरणार्थी उनके परिवार के ब्रिटेन आने, मां द्वारा छोटी-मोटी नौकरियों से ऋषि सुनक के लालन-पोषण की दारूण कथा से नहीं, बल्कि वजह उनकी बुद्धि और काबलियत है। ऐसी ही कसौटी पर अमेरिका में कमला हैरिस चुनी गईं। आयरलैंड में प्रधानमंत्री रहे लियो एरिक वरडकर (मराठी मूल), कनाडा में रक्षा मंत्री अनीता आनंद, ब्रिटेन में गुजराती गृह मंत्री प्रीति पटेल आदि का अवसर उनकी काबलियत से था। इन सभ्य लोकतांत्रिक देशों में कोई भी नेता, प्रधानमंत्री या उप राष्ट्रपति बनने के बाद वैसा नैरेटिव नहीं बनवाता, जो हम भारत में सुनते हैं। जैसे नरेंद्र मोदी ने अपनी पहचान में पिछड़े होने, चाय बेचने वाले गरीब के जुमलों तथा धर्म-जात, क्षेत्र आदि के टोटके अपनाए वैसा किसी भी सभ्य लोकतांत्रिक देशों में नहीं होता।
सवाल है मौजूदा भारत की सच्चाई प्रवासी हिंदुओं के लिए परेशानी वाली बात है या फायदे की? मेरा मानना है परेशानी वाली। कमला हैरिस का उदाहरण लें। उनके उप राष्ट्रपति बनने से पहले भारत में हिंदुओं में, ब्राह्मणों में जोश था कि अमेरिका में अपनी उप राष्ट्रपति हो गई। तभी उन्होंने मोदी, भारत की छाया से दूरी बनाते हुए कहा- मैं काले समुदाय की दक्षिण एशियाई हूं। ऋषि सुनक भी भारतीय स्टाइल जैसा कोई सियासी पैंतरा चलते हुए नहीं हैं। दो दिन पहले पहली बार उनका मय पत्नी, बच्चियों के साथ माग्ररेट थैचर के कस्बे में मीडिया फोटो ले पाया। वे विचार, विचारधारा, रीति-नीति, मौजूदा संकटों (आर्थिक, शरणार्थी समस्या, चीन की चुनौती) पर अपने आइडिया के साथ प्रतिद्वंद्वी लिज ट्रस से शास्त्रार्थ कर रहे हैं। अपनी योग्यता के हवाले और उसके आधार पर मुकाबला कर रहे हैं।
लेकिन जैसा मैंने कल लिखा कंजरवेटिव पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं में भारतीय मूल के उम्मीदवार के ऊपर मोदी के भारत का साया है। मुझे खटका है समावेशी देश इस चिंता में उसे खारिज करेगा कि एक हिंदू को सत्ता सौंपना सुरक्षित होगा या नहीं? वे तब कंजरवेटिव पार्टी का क्या कर डालेंगे? वे पार्टी परंपरा, लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुसार व्यवहार करेंगे या जैसे भारत का लोकतंत्र चल रहा है वैसे फैसले लेंगे? वे आर्थिकी संभाल सकते हैं या भारत की नोटबंदी, जीएसटी, किसान बिल, विदेश नीति के जैसे ढर्रे वाले भारतीय होंगे?
ऋषि सुनक के लिए संकट यह है कि ब्रितानी समाज अपने मीडिया से बहुत जागरूक तथा समझदार है। दुनिया की खबर रखता है। ऋषि सुनक की काबलियत बोलती हुई है लेकिन समाज के गोरे हों या मुस्लिम वे पिछले आठ सालों से भारत की मोदी सरकार की खबरों को जानते-समझते आ रहे हैं। हो सकता है मेरा यह सोचना मेरे पूर्वाग्रह से हो लेकिन यदि डॉ. मनमोहन सिंह के वक्त ब्रिटेन में ऋषि सुनक बनाम लिज ट्रस का मुकाबला हो रहा होता तो कंजरवेटिव पार्टी के गोरे-अश्वेत तथा मुस्लिम आदि सभी ऋषि सुनक को सौ टका समावेशी मान कर मजे से प्रधानमंत्री बना देते।