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पूर्वोतर का मुख्यधारा से जुड़ाव

पूरा देश जिस समय होली का त्योहार मना रहे थे उस समय त्रिपुरा में माणिक साहा दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी शपथ समारोह में मौजूद थे। इससे एक दिन पहले मेघालय और नगालैंड में नई सरकार ने शपथ ली थी। प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री उन दोनों समारोहों में भी मौजूद रहे थे। मेघालय और नगालैंड में शपथ समारोह के बाद प्रधानमंत्री असम लौटे थे और गुवाहाटी में एक रोड शो किया था। बाद में वे राज्य सरकार की बैठक में भी शामिल हुए थे। इस तरह दो दिन यानी सात और आठ मार्च को प्रधानमंत्री ने पूर्वोत्तर के चार राज्यों का दौरा किया। वे मेघालय, नगालैंड, असम और त्रिपुरा में मौजूद रहे और अलग अलग कार्यक्रमों में हिस्सा लिया।

पहली नजर में यह एक प्रतीकात्मक सी बात लग रही है। लेकिन राजनीतिक और सामाजिक रूप से इसका बड़ा महत्व है। पिछले पांच साल में प्रधानमंत्री मोदी ने करीब 50 बार पूर्वोत्तर का दौरा किया है। एक आंकड़े के मुताबिक पिछले करीब नौ साल में वे जितनी बार पूर्वोत्तर गए हैं, उतनी बार अब तक के सारे प्रधानमंत्री मिला कर नहीं गए हैं। अगर बाकी बातों को छोड़ दें तो सिर्फ अपनी शारीरिक उपस्थिति से प्रधानमंत्री ने पूर्वोत्तर के राज्यों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास किया है। हालांकि यह जुड़ाव अब भी अधूरा है लेकिन उसका कारण राजनीतिक नहीं है। पहले राजनीतिक रूप से भी पूर्वोत्तर के राज्य अलग थलग थे। वहां की प्रादेशिक पार्टियां अपने हिसाब से राजनीति करती थीं और उनके चुनावी मुद्दे भी बिल्कुल स्थानीय होते थे। अब पूर्वोत्तर मुख्यधारा के राजनीतिक मुद्दों से संचालित हो रहा है। भाजपा ने पिछले नौ साल में राष्ट्रीय स्तर पर जो नैरेटिव बनाया है वहीं पूर्वोत्तर की राजनीति का भी नैरेटिव है।

इस नैरेटिव के दम पर ही भाजपा ने पूर्वोत्तर के आठ में से चार राज्यों में अपना मुख्यमंत्री बनाया है। असम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और मणिपुर में भाजपा की अपने दम पर सरकार है। उसके मुख्यमंत्री हैं। इसके अलावा तीन और राज्यों- मेघालय, नगालैंड और सिक्किम में भाजपा की सहयोगी पार्टियों की सरकार है। आमतौर पर यह कहा और माना जाता है कि पूर्वोत्तर की राजनीति केंद्र से ही गाइड होती है और जिसकी केंद्र में सरकार होती है उसी का पूर्वोत्तर में बोलबाला होता है। लेकिन यह एक किस्म का मिथक है। अटल बिहारी वाजपेयी के समय पूर्वोत्तर में भाजपा का आधार नहीं बन सका था, जबकि वे भी लगातार छह साल तक प्रधानमंत्री रहे थे। यह सही है कि कांग्रेस के केंद्र में मजबूत होने के समय पूर्वोत्तर में कांग्रेस का दबदबा था। लेकिन कांग्रेस और भाजपा की स्थिति में फर्क है। जब ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस की सरकार होती थी तब भी पूर्वोत्तर के राज्यों का मुख्यधारा की राजनीति से अलगाव था। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता वहां की राजनीति संचालित नहीं करते थे और न राष्ट्रीय नैरेटिव, मुद्दों से वहां की राजनीति संचालित होती थी। प्रदेश के नेता अपने हिसाब से काम करते थे। अब यह स्थिति बदल गई है। अब पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में हिंदी में राजनीतिक विमर्श होता है और देश के मुद्दों पर राजनीति होती है।

सामाजिक स्तर पर जरूर मुख्यधारा के साथ पूर्वोत्तर के राज्यों का एकीकरण पूरा नहीं हो सका है। इसके लिए अतिरिक्त प्रयास की जरूरत है। और यह तभी होगा, जब पूर्वोत्तर के राज्यों की भाषा, खान-पान, पहनावे, रहन-सहन और रूप-रंग की विविधता को सहज रूप से स्वीकार किया जाएगा। दुर्भाग्य से वह स्वीकार्यता अभी नहीं बन पाई है। अब भी एक दूरी और अलगाव दिखता है। उसे दूर करने के लिए राजनीतिक दलों के साथ साथ सामाजिक समूहों को भी काम करने की जरूरत होगी। खेलों के जरिए पूर्वोत्तर के राज्य मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं। अगर हिंदी फिल्म उद्योग थोड़ी पहल करे और जिस तरह से हॉलीवुड में हर समाज व परिवेश के अभिनेताओं को मुख्य या अहम भूमिकाएं मिलती हैं उसी तरह से बॉलीवुड की फिल्मों में भी पूर्वोत्तर के लोगों को काम मिलना शुरू हो तो बहुत कुछ बदल सकता है। इस बार के चुनाव प्रचार के दौरान मेघालय भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अर्नेस्ट मावरी ने खुल कर कहा कि वे बीफ खाते हैं और उनकी पार्टी ने इसके लिए उनको मना नहीं किया है। अगर भाजपा इसी बहाने लोगों की खान-पान की रूचियों की विविधता को स्वीकार करती है तो इससे सामाजिक एकीकरण की राह आसान होगी। विश्व विख्यात मुक्केबाज मैरी कॉम पर फिल्म बनना, उनका राज्यसभा में मनोनयन, किरेन रिजीजू का कानून मंत्री बनना और नगालैंड प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष तेमजिंग इमना अलौंग की मुख्यधारा की मीडिया व सोशल मीडिया में लोकप्रियता, कुछ ऐसी बातें हैं, जिनसे सामाजिक दूरी घटने का अंदाजा होता है। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा हाल के दिनों के पूर्वोत्तर के संभवतः पहले नेता हैं, जिनकी राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका बनी है और जिनको लगभग पूरा देश जानने लगा है।

पूर्वोत्तर के राज्यों की एक बड़ी समस्या सुरक्षा और शांति की रही है। लगभग सभी राज्यों के बीच सीमा विवाद हैं। कहीं वृहत्तर नगालिम की मांग है तो कहीं वृहत्तर त्रिपुरा की मांग है। असम से लेकर नगालैंड तक अलगाववाद के हिंसक आंदोलन रहे हैं। कई अलगाववादी और चरमपंथी संगठन अब भी सक्रिय हैं लेकिन पिछले आठ-नौ साल में सीमा विवाद सुलझाने के गंभीर प्रयास हुए हैं और अलगाववादी संगठनों के साथ भी अर्थपूर्ण शांति वार्ता हुई है। अलगाववादी संगठनों को मुख्यधारा में लाने के प्रयास हुए हैं। इन सब प्रयासों का सौ फीसदी सकारात्मक नतीजा अभी नहीं निकला है लेकिन इस दिशा में सरकार की गंभीरता प्रमाणित हुई है। ध्यान रहे भाजपा पहले भी केंद्र में सरकार में रही है लेकिन इससे पहले कभी भाजपा नेताओं ने पूर्वोत्तर की समस्याओं को समझने और उसे सुलझाने का गंभीर प्रयास नहीं किया था।

पूर्वोत्तर के राज्यों में बदलाव का एक संकेत बुनियादी ढांचे के विकास में भी दिख रहा है। कुछ समय पहले तक यह धारणा थी कि पूर्वोत्तर और जम्मू कश्मीर में केंद्र से जाने वाला फंड विकास कार्यों में खर्च नहीं होता है। अब यह धारणा बदली है। पूर्वोत्तर में नई सड़कें बन रही हैं। सड़क के रास्ते दूर-दराज के सीमावर्ती इलाकों को भी जोड़ा जा रहा है। नए हवाईअड्डे बन रहे हैं। क्रिकेट और दूसरे खेलों के स्टेडियम बन रहे हैं। सामाजिक विकास की योजनाएं चल रही हैं। इसमें संदेह नहीं है कि पूर्वोत्तर के राज्य विकास की होड़ में अब भी पिछड़े हैं और सामाजिक विकास के किसी सूचकांक में पूर्वोत्तर के राज्य शीर्ष राज्यों में शामिल नहीं हैं लेकिन अब आर्थिक विकास और सामाजिक-राजनीतिक एकीकरण का प्रयास पहले से ज्यादा गंभीरता से हो रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि कई राज्यों में नए नेता उभरे हैं। त्रिपुरा, सिक्किम, मेघालय, असम, अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों में नई पीढ़ी के नेता कमान संभाल रहे हैं। उनकी अपनी सोच भी पारंपरिक नेताओं से अलग है। सो, कुल मिला कर यह अच्छा संकेत है कि अब तक देश की मुख्यधारा की राजनीति, आर्थिकी और सामाजिकी से अलग थलग रहा क्षेत्र हर स्तर पर जुड़ रहा है। चीन की चुनौती को देखते हुए भी यह जुड़ाव बहुत राहत का संकेत है।

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