बेबाक विचार

इंसान को जानवर बनाने के जतन!

Share
इंसान को जानवर बनाने के जतन!
सन 2020-21 का लम्हा इंसान को जानवर की मौत मार रहाहै। तभी जीने का तौर-तरीका बदल रहा है। ख्याल बना है इंसान बहुत जी लिया स्वछंदता व स्वतंत्रता से। वह अब पालतू बने। अपने फोन पर एप से या किसी और जरिए का पट्टा गले में बांधे ताकि बिग बॉस, चिड़ियाघर की कर्ताधर्ता सरकार की निगरानी रहे। क्यों? जवाब में वायरस अकेला कारण नहीं है। कई कारणों से ऐसे जतन हैं, जिनमें इंसान को बुद्धि और आजादी दोनों पर समझौता करने को कहा जा रहा है। प्रकृति और पृथ्वी को बचाने के लिए इंसान को नियंत्रित करने की सोच है तो नस्ली, धार्मिक, राष्ट्रवादी जिद्द में भी इंसान को बुद्धि-आजादीविहीन बनाने का रोडमैप है ताकि इंसान लॉजिक, सत्य, वैज्ञानिकता में न जीये, बल्कि वह सभ्यता विशेष का रोबो बने, जिहादी बने, लंगूर और मूर्ख बन राजा की आरती उतारे। घटनाओं और परिस्थितियों ने पिछले बीस सालों में पृथ्वी के सात अरब 60 करोड़ लोगों के दिल-दिमाग को या तो डराया है या उनकी बुद्धि को कुंद किया है और बड़ी संख्या में लोग झूठ, करिश्मे व तानाशाही के गुलाम बने है। अनहोनी बात जो इंसान को ऐसे बंधक, जानवर बनाने में विज्ञान-तकनीक का रोल है। सन् 2020-21 मेंप्रकृति ने वायरस से इंसान को कुत्ते की मौत का अनुभव कराया है तो तकनीक ने वे औजार बनाएं हैं, जिससे इंसान गले में पट्टा बांधे। वह कुत्ते की तरह अनचाहे-अनजाने पालतू बने। इसमें चीन मिसाल है तो रोल म़ॉडल भी। उसने कोरोना को खत्म करने के लिए लोगों को बाड़े में बंद करके जैसी सख्ती की वह कई देशों के लिए अनुकरणीय है। यह प्रोपेगेंडा, नैरेटिव है किदेशों को चीन की व्यवस्था अपनानी चाहिए। जाहिर है पृथ्वी पर ऐसे लोग, ऐसे नेता आज हैं, जो इंसान के जीने के तौर-तरीके बदलना चाहते हैं। चीन ने अपने को जैसे बनाया है उसमें इंसान के साथ क्या हुआ, इसका मतलब नहीं है मतलब चीन के बनने का है। चीन ने डेढ़ अरब लोगों की श्रमसंख्या का रोबो की तरह उपयोग करके अपना परचम फहराया है तो यहीं विकास का मॉडल है। यहीं दुनिया पर रूतबा बनाने का तरीका है औरसभ्यतागत संघर्ष को जीतने की कुंजी है। अपनी सफलता की थीसिस को चीनी हुक्मरान वैश्विक तौर पर दान-दक्षिणा से कैसे फैला रहे हैं इसका अनुभव वायरस के मौजूदा लम्हों में हर कोई कर रहा है। मानवता का दुर्भाग्य जो इसके काउंटर में अमेरिका-यूरोप की पश्चिमी सभ्यता को जो करना था वह इसलिए नहीं कर पाई है क्योंकि वह सभ्यता फिलहाल बिना लीडरशीप के है। डोनाल्ड ट्रंप की बेअक्ली व मूर्खताओं के चलते अमेरिका खुद क्योंकि वायरस से  बदहाल है तो वे दुनिया को यह समझाने की स्थिति में नहीं है कि इंसान की बुद्धि-आजादी के उद्यम में महामारियों का पहले भी इलाज निकला, आगे भी निकलेगा। बुद्धि-आजादी ने तीन सौ सालों में इंसान को यदि अंतरिक्ष में पहुंचाया है तो उसकी नकल से, उसकी चोरी से चीन बना है। गले में पट्टा बांधे लोग फैक्टरी के मजदूर, गुलाम रोबो, खिलाड़ी, सैनिक हो सकते हैं लेकिन नोबेल पुरस्कार विजेता ज्ञानी-विज्ञानी-खोजी मानव नहीं हो सकते! हां, चीन अपनी तारीफ के कसीदे में चाहे जो कहे, हकीकत है कि आधुनिक चीन मानवता का कलंक है। उसने इंसानी खून-पसीने, श्रम का जैसे शोषण किया है, इंसान के नाम पर जैसे बाड़े बनाए हैं वह कुल मिलाकर कम्युनिस्ट पार्टी और उसके राष्ट्रपति शी जिनफिंग का डेढ़ अरब लोगों का बना ‘लाइव एनिमल फार्म’ है। चीन पृथ्वी का वह ‘लाइव वाइल्ड मार्केट’ है, जिसमें जानवर की तरह इंसान पालतू हैं और मानवीय गरिमा से अनजान चमगादड़-कुत्ते-बिल्ली जैसे जीवों को खाते हुए वह जंगलीपना दिखलाते हैं कि चमगादड भी मौका पाते हैऔर वायरस घुसा इंसान को लाइव खाने का मौका पाते है। ऐसी जीव अस्तित्व में सरकार के तराजू में न इंसान की कीमत है और न जानवर की। पूरा चीन तानाशाही का वह दड़बा है, जिसमें बार-बार वायरस बनते हैं और दुनिया को एक्सपोर्ट होते हैं। लेकिन पृथ्वी का दुर्भाग्य जो सन् 2020-21 में चीन और शी जिनफिंग सचमुच पश्चिम की बुद्धि, उसके आजादी जनित विज्ञान व सूचना तकनीक से ही फन्ने खां हैं। बुद्धि और आजादी के अमेरिकी विकास से चीन बना लेकिन आज उसका दुनिया में प्रोपेगेंडा है कि चीनियों की तरह दड़बों में जीना सीखो! पालतू-नियंत्रित रह कर जीवन जीयो। सोचें, हम-आप याकि इंसान कहां जा रहा है, क्या कर रहा है, क्या सोच रहा है, क्या पढ़ रहा है, क्या देख रहा है जैसी शारीरिक-मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया कोयदि विज्ञान-तकनीक अपने डाटाबेस में जमा करता जाएं तो क्या फर्क बचेगा इंसान बनाम चिड़ियाघर के पालतू जानवरों में? सरकार उर्फ बिग बॉस क्या फिर इंसान को जानवर की तरह नियंत्रित नहीं करेंगा? जानवर जैसा उसका उपयोग नहीं करेगा? इसलिए 2020-21 के लम्हे के अनुभव में इंसान ने निजता, निज स्वतंत्रता, स्वतंत्र बुद्धि को वायरस के खौफ में यदि डाटाबेस में जमा कराना शुरू किया तो वह युग दूर नहीं है जब जंगल के जानवर इंसान से अधिक आजाद होंगे!उस नाते मानव विकास का उलटा चक्र शुरू होता लगता है। तकनीक इंसान की बुद्धि को बंधुआ बना रही है। उसे पालतू-गुलाम बना रही है। दुर्भाग्य जो पृथ्वी के सातअरब 60 करोड़ लोगों में इस बात का अहसास मुश्किल से दस-बीस प्रतिशत लोगों को होगा। याद रहे बीसवीं सदी ने इंसान को आजादी के ढ़ेरों पंख दिए थे। उपनिवेश की जगह स्वतंत्र देश बने। लोगों ने सोच-समझ-आजादी में अपने संविधान बनाए। बीसवीं सदी में जिद्द थी सबको स्वतंत्र होना है। ज्ञानवान होना है। ज्ञान-विज्ञान-विकास की आधुनिकता, वैज्ञानिकता से आगे बढ़ना है। तब सबकी चाहना, सबका सत्व-तत्व खुले आकाश की खुली आजादी में उड़ना था। तभी बेड़ियां टूटीं। बंधन टूटे। परंपरा-आस्था और पालतूपना खत्म हुआ। हां, साम्यवादी विचारधारा से लोगों पर जोर-जबरदस्ती, गुलामी के प्रयोग हुए लेकिन उसके पीछे भी इंसान को बेहतर बनाने, शोषण-असमानता से मुक्त करानेकी वैचारिक फितरत थी। लेकिन आज?तब और अब का फर्क? आज इंसान को तकनीकी तानेबाने में बांध बुद्धिविहीन, आजादीविहीन बनाने का जतन है। फोन-सूचना तकनीक ने अफीम का वह नशा बनाया है कि व्यक्ति को पता ही नहीं पड़ता है, अहसास ही नहीं होता है कि उसकी बुद्धि कुंद हो रही है और वह अपनी निजता, स्वतंत्रता में सोचना-विचारना गंवा रहा है। भारत को ही लें। भारत के एक अरब 38 करोड़ लोगों को कहां यह अहसास है कि फेसबुक, गूगल, व्हाट्सअप से लेकर चीन की कंपनियां कैसे उन्हें पालतू बना चुकी हैं?ये कैसे उनके जीवन को नियंत्रित कर रही हैं या भारत के हुक्मरान इनके जरिए उन्हें कैसे पालतू, बुद्धिविहीन बना दे रहे हैं? अपना मानना है यदि बुद्धि मंद, कुंद, बहकावे, झूठ और मूर्खताओं में बह जाए तो वह इंसान के परतंत्र होने का, जानवर बनने का प्रारंभ है। इंसान बुद्धिहीन हुआ तो वह समझ नहीं पाएगा कि पिंजरे में रहने और उड़ते रहने में क्या फर्क है। बहाना कोई हो मतलब वायरस का हो, धर्म, देशभक्ति या करिश्मे का हो, इंसान ने अपनी निजता, निज स्वतंत्रता, अपनी खुद्दारी, अपनी निर्भीकता, अपनी बुद्धि को छोड़ उसको सरेंडर कर दिया तो मानव के मानव होने का, इंसान के इंसान होने का, गणों से बने गणतंत्र का फिर मतलब नहीं बचेगा। इसलिए सन् 2020-21 के क्षण और इस क्षण में चिंता, विचार, भावना, प्रोपेंगेंडा आदि जो है वह इंसान बनाम जानवर की प्रवृत्तियों की रस्साकसी है। गनीमत है जो यूरोप, स्कैंडनेवियाई देशों और अमेरिका के लोकतांत्रिक खंभे साबूत बचे हुए हैं। स्वीडन, जर्मनी और फ्रांस ने दो टूक अंदाज में व्यक्ति की आजादी, निजता, निज स्वतंत्रता पर समझौता न करने का फैसला लिया है। पृथ्वी के सातअरब 60 करोड़ लोगों में यूरोपीय संघ, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया ने वायरस से निपटने के लिए फोन-एप-सूचना तकनीक को उपयोग करते हुए भी वे पैरामीटर बनाए हैं, जिसमें निजता, निज स्वतंत्रता का हनन न हो। उधर अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की तानाशाही-मूर्खताओं के बावजूद वहां के लोकतंत्र से मीडिया, संस्थाओं और जन भावनाओं की आजादी में जो विचार मंथन है उससे उम्मीद है कि इंसान का इंसान बना रहना शायद संभव बना रहे। फिर भले इसके लिए वैश्विक गांव आगे सभ्यताओं के संघर्ष का साक्षी बने! हां, सन 2020-21 के क्षण में पृथ्वी के सात अरब 60 करोड़ लोगों को देव बनाम असुर के संघर्ष की और ले जाने वाली प्रवृत्तियां भी हैं। संघर्ष के संकेत कई हैं। इस पर कल। (जारी)
Published

और पढ़ें