ओह! शरद यादव नहीं रहे। मुझे तो उनसे मिलना था! कई बार सोचा लुटियन दिल्ली छोड़ कर शरदजी छतरपुर के नए घर शिफ्ट हुए हैं तो उनसे जा कर मिलना है। जीवन के उत्तरार्ध की उनकी शारीरिक-सियासी सेहत की खोज-खबर लेनी है। उनकी पत्नी रेखाजी और बेटे-बेटी से बातचीत करनी है। पर संयोग नहीं बना। तभी दिवगंत आत्मा को श्रद्धांजलि में यह ग्लानि दिल-दिमाग को छलनी कर दे रही है कि कैसे उनके सादे सहज-सरल परिवार को धैर्य बंधाऊं। कैसे शरदजी को याद करूं?
हां, शरदजी और उनका परिवार मेरी निज जिंदगी का इसलिए हिस्सा रहे हैं क्योंकि पूरे परिवार की सहजता, सरलता मेरे और मेरे परिवार के लिए मनभावक रही। मैंने अपनी 45 साल की पत्रकारिता में लुटियन दिल्ली के जितने नेताओं और उनके परिवारों को देखा है उसमें सत्ता पॉवर की चकाचौंध के बीच भी शरदजी और परिवार हमेशा सहज-सरल जीवन जीने वाला लगा। शरदजी ने लोगों को बनाया। पुराने लोगों को साथ रखा। जबकि मैंने शरदजी के साथी नेताओं को बदलते देखा है। घमंडी-अहंकारी-धोखेबाज होते देखा लेकिन ऐसे अनुभवों के जख्म दबाए होने के बावजूद शरदजी सहज थे। अहंकारी या बदले की राजनीति को पास फटकने नहीं दिया!
कोई माने या न माने, लेकिन प्रत्यक्ष अनुभव, राजनीतिक दांवपेचों में रियल घुसपैठ से जाना मेरा यह सत्य है कि भारत की 75 साला राजनीति में मंडल राजनीति का फैसला शरद यादव के कारण था। वे मंडल राजनीति के पितामह थे और त्रासद जो उन्हीं के साथ मंडल राजनीति के सभी पिछड़े नेताओं ने छल किया। उनसे दगाबाजी की।
शरद यादव का एक और ऐतिहासिक मतलब है। वे गैर कांग्रेसवाद की राजनीति के पहले नौजवान लोकसभा सांसद थे, जिनकी उपचुनाव जीत से कांग्रेस के पतन, जेपी आंदोलन, इंदिरा गांधी के सियासी पतन का सिलसिला शुरू हुआ। हां, छात्र राजनीति से 1974 के जबलपुर उपचुनाव में विपक्षा के साझा जनता उम्मीदवार के रूप में शरद यादव ने कांग्रेस के दिग्गज सेठ गोविंददास को जब चुनाव हराया था तो वह परिवर्तन की चिंगारी थी। गैर कांग्रेसवाद की राजनीति का बिगुल था। उसी के बाद तो फिर संपूर्ण क्रांति का आह्वान, इमरजेंसी और अंत में जनता पार्टी सरकार के बनने का घटनाक्रम था।
शरद यादव का दूसरा ऐतिहासिक रोल प्रधानमंत्री वीपी सिंह से मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने का था। इसलिए वे पिछड़ों का आरक्षण करवाने के पितामह थे। यह भी नोट रखें कि मुलायम सिंह और लालू यादव दोनों शरद यादव के कारण मुख्यमंत्री बने। दोनों का राजनीतिक करियर शरद यादव के कारण था। यह अलग बात है कि दोनों ने उनका अहसान बहुत जल्द सत्ता अहंकार में भूला दिया। सत्ता नेताओं को कैसे संस्कारहीन बनाती है, अहंकारी बनाती है इसके आजाद भारत में सर्वाधिक उदाहरण मंडल राजनीति के पिछड़े नेताओं के परस्पर धोखे के हैं।
मैं आरक्षण व मंडल राजनीति को हिंदुओं के गुलाम इतिहास की भूख का एक हिस्सा मानता हूं। मैंने शरद यादव की जात थीसिस को कभी नहीं माना। कई बार मुलायम, लालू और नीतीश कुमार आदि नेताओं से उनके हुए अनुभवों के हवाले मैं उन्हें कचोटता था। बावजूद इसके वे जातियों के लोहिया समाजवाद से इंच भर कभी टस से मस नहीं हुए। मुझे कई बार गिला हुआ कि मैंने मंडल आरक्षण लिवाने वाले वीपी सिंह और शरद यादव की राजनीति से क्या-क्या उम्मीदें (खासकर गैर कांग्रेसवाद, भ्रष्टाचार उन्मूलन) बनाई थी लेकिन हुआ क्या? और सबसे बड़ी बात जो दोनों के साथ उनके अपने लोगों ने क्या राजनीतिक धर्म निभाया?
बहरहाल, शरद यादव का रोल भाजपा को सत्ता में बैठवाने का भी रहा। डॉ. राममनोहर लोहिया के चेहरों (चाहे तो प्रसोपा वालों को भी शामिल करें) में मधु लिमये और जॉर्ज फर्नांडीज ने संघ से एलर्जी में कभी चाहे जो स्टैंड लिया हो लेकिन यह भी हकीकत है कि जनता पार्टी, जनता दल, जन मोर्चा की वीपी सिंह सरकार, संयुक्त मोर्चे से लेकर फिर अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में जॉर्ज फर्नांडीज और शरद यादव दो ऐसे चेहरे थे, जिनकी अगुवाई में, जिनके द्वारा लगातार एक के बाद एक चरण में स्वीकार्यता बनाए जाने से भाजपा सत्ता के शीर्ष पर पहुंची। शरद यादव, जनता पार्टी के गठन के वक्त युवा समाजवादी थे। तब मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीज का राजनीतिक रूतबा भारी-भरकम था। इससे इतर सूझबूझ से शरद यादव ने चौधरी चरण सिंह, देवीलाल याकि लोकदल की धारा से अपना जुड़ाव बना उन्होंने जॉर्ज के मिशन में काम किया तो अपना स्वतंत्र सियासी वजूद भी बनाया। और ये दोनों समाजवादी भाजपा की वाजपेयी सरकार के आधार स्तंभ थे। संसद के सेंट्रल हॉल में वीर सावरकर की तस्वीर लगाए जाने के पक्षधर तो वाजपेयी-आडवाणी में श्रम-विमानन-खाद्य जैसे मंत्रालय संभालते हुए।
मैं शरद यादव की राजनीति का ताउम्र ऑर्ब्जवर रहा। ‘जनसत्ता’ में अनेकों बार उन पर ‘गपशप’ लिखी। मगर वे मेरा नेचर-मेरी जाति-मेरे विचार जानते थे और सबके बावजूद सहज भरोसे का अपनापन लिए हुए। यों भी उन दिनों राजनीति पढ़ने-लिखने वालों की थी। नेता और पत्रकार एक दूसरे से समझते थे। सत्य में जीते थे। तभी जमीनी नेताओं के साथ गपशप, उठना-बैठना सब भरपूर था। गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति का हर उबाल मेरे लिए शरद यादव, रामविलास पासवान नीतीश कुमार, केसी त्यागी, गोविंदाचार्य, वाजपेयी, आडवाणी आदि के साथ चुनावी दौरों, राजनीतिक कवरेज के मौके लिए हुए होता था।
उस लुटियन दिल्ली को खत्म हुए बरसों हो गए हैं। भारत की राजनीति में अब न लुटियन दिल्ली है और न संस्कारवान नई दिल्ली। अब दिल्ली कृपण है, अहंकारी है, संकीर्ण है। इस हकीकत के बावजूद यह खबर मुझे व्यथित कर गई थी कि सात दफा लोकसभा और तीन बार राज्यसभा सांसद रहे शरद यादव का लुटियन दिल्ली मकान खाली करवाया जा रहा है। इस पर न मंडलवादी नेताओं की सुध लेने की खबर मिली और न उन लोगों की संवेदना भभकी, जिनका मुख्यधारा की राजनीति से अछूतपना कभी समाजवादी शरद यादव ने खत्म कराया था।