बेबाक विचार

सबका सार मार्केटिंग

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सबका सार मार्केटिंग
मुझे विश्वास नहीं हुआ कि भागवत कथा की फीस पच्चीस-पचास हजार रुपए से लेकर लाख, पांच लाख, दस लाख तक। सुंदरकांड पाठ की मंडली भी दस-बीस हजार रुपए लेते हुए। भागवत कथा के ताम-झाम, भोजन आदि की व्यवस्थाएं किसी फिल्मी या संगीत कलाकार के शो से भी अधिक मंहगी हो सकती हैं बशर्ते पंडितजी का नाम मुंबई, दिल्ली या भक्त सेठों की नेटवर्किंग लिए हुए हो। कथा-सत्संग-संगत के हिंदू प्रायोजनों में पंजाबी डेरों जैसा मामला नहीं है, बल्कि व्यक्ति विशेष के निज ब्रांड से कथा वाचन का है। समाज के सेठ, संगठन और लोग दिखावे की होड़ में हैं तो उसमें मार्केटिंग हर स्तर पर है। कोई माने या न माने लेकिन वक्त यह अनुभव कराता हुआ हे कि यथा राजा तथा प्रजा और यथा प्रजा तथा राजा की केमिस्ट्री में हिंदू समाज का दिखावा और प्रायोजन फैलते हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी मार्केटिंग का जादू है जो आम हिंदू दिमाग भी हर क्षेत्र में अपने नेता के अंदाज में व्यवहार करता हुआ है। मेरा मानना है कि भारत की आम, मध्यवर्गी जनता की जरूरत के धर्म, चिकित्सा, शिक्षा और खानपान ऐसे चार क्षेत्र हैं, जो पिछले आठ वर्षों में लगातार फले-फूले हैं और इनका फूलना ज्ञान, क्वालिटी, अध्यात्म, सत्य सर्विस, सेवा से नहीं है, बल्कि वैसी ही मार्केटिंग, दिखावे, हल्ले, प्रोपेगेंडा और जैसे भी कमाई के प्राथमिक मिशन में है जिसके रोल मॉडल राजनीति से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। आम हिंदू की राजनीति, धर्म, मेडिकल, शिक्षा और खानपान के पांचों धंधों में मार्केटिंग का आठ वर्षों में जैसा जो विस्तार हुआ है उसका सचमुच गंभीरता से गहन अध्ययन होना चाहिए। शहर-कस्बों-देहात की जमीनी हकीकत है कि प्राइवेट अस्पताल हो या प्राइवेट कॉलेज-विश्वविद्यालय, खासकर तकनीकी शिक्षा संस्थान सभी की रणनीति के किस्से-कहानियों की बेसिक बात है कि संस्थाओं ने एजेंट छोड़े हुए हैं। मतदाताओं के बीच भाजपा के पन्ना प्रमुखों की तरह लोगों के बीच छात्रों-मरीजों के दाखिले करवाने के एजेंट चर्चाएं बनवाते हैं। अपनी संस्था की ऐसी झांकियां बनाते हैं कि अच्छे-अच्छे झांसे में आ जाएं। दस दिन पहले मेरे पंडितजी का देहांत हुआ। वे अपने गांव में बीमार हुए। वे दिल्ली में स्थापित थे तो मेरे हिसाब से उन्हें दिल्ली में ही इलाज करवाना चाहिए था। लेकिन गांव में थे, जिले में एजेंटों,  मार्केटिंग के जादू से एक अस्पताल का नाम था तो परिवार वालों ने लोकल, कथित तौर पर नंबर एक अस्पताल में भर्ती कराया। डॉक्टरों ने बीमारी हार्ट की मानी और इलाज शुरू। जबकि उन्हें निमोनिया था। लेकिन उस पर ध्यान कम और हार्ट की महंगी बीमारी में अस्पताल का बनता बिल। स्थिति विकट हुई तो उन्हें दिल्ली लाया गया। दिल्ली के हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने देखा तो सिर पीटते हुए कहा निमोनिया का इलाज क्यों नहीं हुआ। कुल मिलाकर बारह-पंद्रह दिन में अस्पताल-डॉक्टरों के सानिध्य में बुजुर्ग शरीर के अंग एक के बाद एक गड़बड़ाते गए। बुजुर्ग पंडितजी को दिल्ली के अस्पताल में जब सुध आई तो उन्होंने हाथ से लिख परिजनों से कहा मुझे ले चलो... लेकिन मार्केटिंग की ऊंची दुकान में जब फंसना होता है तो फिर बच कर निकलना भला कैसे संभव! फिर भले कोई भी क्षेत्र क्यों न हो। मेरे पंडितजी बुखार के लक्षण से पहले जिंदगी स्वस्थता से जीते हुए थे। दूध-फलाहार और आस्था-विश्वास की ठोस स्वस्थता में! और बुखार, हार्ट समस्या, निमोनिया, मल्टी ऑरगन फेल के क्रम में उनके शरीर ने कैसे प्राण छोड़े, इस पर जब सोचता हूं तो ध्यान आता है कि दिमाग ही जब जड़ हो रहा है तो समाज-देश के सभी अंग भविष्य में किस अवस्था में होंगे।
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