राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने कोरोना वायरस की दूसरी लहर को लेकर एक छायावादी टिप्पणी में कहा है कि ‘पहली लहर जाने के बाद हम सब जरा गफलत में आ गए। क्या जनता, क्या शासन, क्या प्रशासन। डॉक्टर लोग इशारा दे रहे थे। फिर भी थोड़ी गफलत में आ गए। इसलिए ये संकट खड़ा हुआ’। सवाल है कि क्या ‘जनता, शासन और प्रशासन’ सबकी गफलतें एक बराबर हैं? या प्रशासन और उससे भी ऊपर शासन की गफलत को ज्यादा बड़ा और कुछ हद तक अक्षम्य माना जाना चाहिए? जनता के लिए तो हमारे नीतिश्लोकों में कहा गया है- महाजनो येन गतः स पंथा। इसका मतलब है कि महाजन यानी समाज के अग्रणी लोग जिस रास्ते से जाएं जनता को उसी रास्ते जाना चाहिए।
सो, जनता की लापरवाही या गफलत तो महाजन यानी अग्रणी लोगों को देख कर हुई। जब देश के प्रधानमंत्री ने कोरोना के खिलाफ जंग मे जीत का ऐलान कर दिया, जब प्रधानमंत्री और गृह मंत्री बड़ी बड़ी चुनावी रैलियां करने लगे, धर्मगुरुओं ने कुंभ की तैयारियां शुरू कर दीं, प्रशासन ने सिनेमा हॉल से लेकर होटल, रेस्तरां, बार सब कुछ खोल दिए तो फिर जनता की गफलत का क्या मतलब! जनता तो वही करेगी, जो महाजन करेंगे! सो, कोरोना की दूसरी लहर के लिए जनता को दोष देने और उसे जिम्मेदार ठहराने के प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी तरह के सार्वजनिक विमर्श से बचना चाहिए। जनता दोषी नहीं है, बल्कि जनता पीड़ित है, प्रभावित पक्ष है, उसे जिम्मेदार ठहराना मकतूल को ही कातिल ठहराने जैसा है।
अब रही बात प्रशासन और शासन को हुई गफलत की तो प्रशासन का काम तो सिर्फ आदेश का पालन करना है और इस बात के कोई सबूत पिछले सात साल के शासन में तो नहीं मिले हैं कि देश का शासन किसी की सलाह से चलता है। देश के प्रधानमंत्री अपने को सर्वज्ञ समझते हैं और किसी की सलाह लेना या उसे मानना उनको अपनी शान के खिलाफ लगता है। उनको ही नहीं, उनकी पार्टी के दूसरे लोगों को भी यह बात नागवार गुजरती है कि किसी की हिम्मत कैसे हुई उनको सलाह देने की! नोटबंदी से लेकर देशबंदी और अब वैक्सीनबंदी तक का फैसला उनका अपना है यानी शासन का है। शासन ने तय किया और ऐलान भी किया कि देश ने कोरोना की जंग जीत ली और दुनिया भर में प्रलय की भविष्यवाणी करने वाले विशेषज्ञों को गलत साबित कर दिया। सो, यह शासन की गफलत या लापरवाही या कह सकते हैं कि अहंकार की वजह से हुआ, जो देश आज इस स्थिति में है।
यह गफलत शासन की है, जो उसे कोरोना वायरस की पहली लहर काबू में आने में अपनी जीत दिखाई दी। यह गफलत शासन की है, जो उसे दूसरी लहर आती हुई नहीं दिखाई दी। यह गफलत शासन की है, जो उसने पहली लहर से कोई सबक नहीं लिया और कोई तैयारी नहीं की। यह गफलत शासन की है, जिसने आंखों पर पट्टी बांध ली और दुनिया में जो कुछ भी हो रहा था उसे देखने, स्वीकार करने से इनकार कर दिया। क्या जब कोरोना वायरस की दूसरी लहर के प्रकोप की वजह से ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने गणतंत्र दिवस की परेड में मुख्य अतिथि बन कर भारत आने से इनकार कर दिया तो शासन को यह नहीं दिखा कि ऐसा प्रकोप भारत में भी हो सकता है? अगर जनवरी के दूसरे हफ्ते में भी शासन को दिख गया होता कि दुनिया जिस दूसरी लहर से जूझ रही है, उससे भारत को भी जूझना पड़ सकता है तो क्या भारत इसका सामना करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार नहीं होता? लेकिन यहां उलटा हुआ। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री का दौरा रद्द होने के दो हफ्ते बाद 28 जनवरी को देश के प्रधानमंत्री ने विश्व आर्थिक मंच की दावोस बैठक को संबोधित करते हुए ऐलान किया कि भारत ने कोरोना के खिलाफ जंग जीत ली है और दुनिया भर के विशेषज्ञों की चिंताओं और भविष्यवाणियों को गलत साबित कर दिया है। जाहिर है यह गफलत शासन का प्रतिनिधित्व कर रहे एक व्यक्ति की है।
यह शासन की या उसके प्रतिनिधि चेहरे की गफलत है, जिसने देश को आज ऐसी स्थिति में ला दिया है कि हर दिन लाखों लोग संक्रमित हो रहे हैं और हजारों की मौत हो रही है और इस महामारी के बीच पूरा देश वैक्सीन के इंतजार में टकटकी लगाए हुए है। 18 साल से ऊपर के करोड़ों युवाओं ने रजिस्ट्रेशन करा लिया है लेकिन उन्हें वैक्सीनेशन के लिए स्लॉट का इंतजार है। ऐसा इसलिए है क्योंकि देश में वैक्सीन नहीं है। पहले यह अक्षम्य गलती हुई कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश के शासक ने अपनी प्रजा के लिए वैक्सीन का बंदोबस्त करने की नहीं सोची। जिस समय दुनिया के देश वैक्सीन के रिसर्च में पैसा लगा रहे थे और एडवांस ऑर्डर बुक कर रहे थे उस समय भारत में कोरोना की पहली लहर की आपदा को अवसर बना कर कृषि और श्रम सुधार हो रहे थे। दूसरी अक्षम्य गलती यह हुई कि घरेलू निर्माताओं की बनाई वैक्सीन की करोड़ों डोज देश से बाहर जाने दिया गया। हर छोटी-छोटी बात पर राष्ट्रवाद का राग गाने वाली सरकार ने वैक्सीन के मामले में राष्ट्रवाद छोड़ दिया और वैश्विक भाईचारे को अपना लिया।
जब तक इन गफलतों का अहसास होता तब तक देर हो चुकी थी। तब तक देश संकट के भंवर में फंस चुका था। ऐसे में आगे बढ़ कर गलती स्वीकार करने, देश के लोगों को सच बताने और सबको भरोसे में लेकर आगे बढ़ने की बजाय केंद्र सरकार ने वैक्सीनेशन नीति बदल दी और बहुत होशियारी से राज्यों के ऊपर जिम्मेदारी डाल दी। कुछ ही महीने पहले केंद्र ने राज्यों को वैक्सीन खरीदने से रोक दिया था और अब कहा जा रहा है कि राज्य अपने लिए वैक्सीन खरीदें। यह एक सड़क छाप होशियारी है, जिससे केंद्र सरकार समझ रही है कि उसकी जिम्मेदारी खत्म हो गई और अब लोग राज्यों को ही जिम्मेदार मानेंगे। कहने की जरूरत नहीं है कि वैक्सीनेशन नीति में बदलाव शासन की छवि बचाने के लिए किया गया, जिसने करोड़ों लोगों का जीवन खतरे में डाला है।
शासन की नीतियों और संसद से मंजूर राशि के खर्च का हिसाब किताब रखने के लिए संसद की लोक लेखा समिति यानी पीएसी होती है, जिसका अध्यक्ष लोकसभा में विपक्ष के नेता को बनाया जाता है। इसके अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी चाहते हैं कि पीएसी की बैठक बुलाई जाए ताकि वैक्सीनेशन नीति की समीक्षा की जा सके। आखिर संसद में देश के हर नागरिक को वैक्सीन लगाने के लिए 35 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। फिर केंद्र सरकार क्यों राज्यों से कह रही है कि वे अपने पैसे से वैक्सीन खरीदें? ईमानदारी से वैक्सीन नीति की समीक्षा हो तो जवाबदेही तय हो कि किसकी गफलत से देश आज इस स्थिति में है। लेकिन लगता नहीं है कि सरकार ऐसा होने देगी। वैसे भी पिछले कई सालों से संसदीय समितियों की गरिमा खत्म कर दी गई है। उसे पार्टी लाइन पर बांट दिया गया है और जिन समितियों के अध्यक्ष विपक्षी पार्टियों के नेता हैं उन समितियों में बहुमत के दम पर सत्तापक्ष के सांसद अपनी मनमानी करते हैं। पीएसी की बैठक में भी ऐसा ही हो रहा है इसके बावजूद सरकार बैठक नहीं होने दे रही है ताकि वैक्सीनेशन नीति में बदलाव का सच सामने न आए।
बहरहाल, मूल बात यह है कि सारी गफलतें एक बराबर नहीं होती हैं। जनता, शासन और प्रशासन को एक ही पलड़े में रख कर नहीं तौला जा सकता है। लेकिन अफसोस की बात है कि सरकार की छवि बचाने की चिंता में लोगों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। उनको ही उनकी दुश्वारियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। कम से कम समझदार लोगों को ऐसा झांसा देने या ऐसे झांसे में आने से बचना चाहिए।