बेबाक विचार

कुछ भी नया नहीं हो रहा है

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कुछ भी नया नहीं हो रहा है
कोरोना वायरस की महामारी में जो कुछ हो रहा है उससे अनेक लोग हैरान हो रहे हैं, जैसे यह कुछ नया हो रहा है। इसमें कुछ भी नया नहीं हो रहा है। यह भारत की सनातन कथा है। हमेशा ऐसा ही होता रहा है। भारत में शासक कभी भी इतने दूरदर्शी नहीं हुए कि वे खतरे को समय रहते भांप लें और उससे निपटने के उपाय करें। चाहे बाहरी आक्रमण का मामला हो या बीमारी और महामारी का मामला हो, सब में भारत के शासकों की ऐसी ही प्रतिक्रिया रही है। जब तक खतरा एकदम सिर पर नहीं आ जाता है तब तक भारत के शासक न तो कोई तैयारी करते हैं और न कोई प्रतिक्रिया देते हैं। सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्म चैलानी ने इसे पानीपत सिंड्रोम का नाम दिया है। यानी खतरा जब तक पानीपत नहीं पहुंचेगा तब तक दिल्ली का शासक उस पर प्रतिक्रिया नहीं देगा। जैसे चीन ने भारत की जमीन कब्जा कर ली लेकिन जब तक दुनिया ने बताया नहीं या यह दिखा नहीं कि चीन भारत की सीमा में घुस कर बैठा है, तब तक भारत की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई थी। वैसे ही जब तक महामारी भारत में आकर एक दिन में तीन लाख से ज्यादा लोगों को संक्रमित नहीं करने लगी, तब तक प्रधानमंत्री ने चुनावी रैली रोकने और महामारी से निपटने की रणनीति बनाने की जरूरत नहीं समझी। सो, यह भारत का पुराना रोग है। यहां शासक हमेशा नींद में गाफिल होते हैं, सत्ता के मद में चूर होते हैं, उन्हें कोई चिंता नहीं होती। तभी जो लोग यह कह रहे हैं कि भारत का हेल्थ सिस्टम चरमरा गया या कोलैप्स्ड हो गया, उन पर तरस आता है। भारत में हेल्थ सिस्टम है कहां? वह तो पहले से ही कोलैप्स्ड है, इस महामारी ने उसको एक्सपोज कर दिया है। उस कोलैप्स्ड हेल्थ सिस्टम की पोल खोल दी है। दुनिया के जितने सभ्य देश हैं वे अपने नागरिकों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हैं और इसलिए स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाते हैं। भारत में नागरिकों का स्वास्थ्य किसी की प्राथमिकता में नहीं है। इसलिए केंद्र सरकार हो या राज्यों की सरकारें हों सबने नागरिकों को उनकी किस्मत पर छोड़ा है। सुनियोजित तरीके से देश की सरकारी स्वास्थ्य सुविधा को खत्म होने दिया गया ताकि उसके समानांतर निजी स्वास्थ्य व्यवस्था फल-फूल सके। भारत जैसे गरीब और विशाल आबादी वाले देश में यह मॉडल काम ही नहीं कर सकता है। कोरोना की महामारी ने इसे साबित कर दिया है। सरकारी और निजी दोनों चिकित्सा व्यवस्था महामारी की लहर आते ही धराशायी हो गई। पहली लहर में निजी अस्पतालों ने मरीजों को दोनों हाथों से लूटा। एकाध अपवाद होंगे वरना सभी अस्पतालों ने मरीजों की आर्थिक हैसियत देख कर उन्हें भरती किया और लाखों-लाख के बिल बनाए। सरकार की तरह सबने आपदा को अवसर बनाया। आपदा को अवसर बनाना भी भारत में कोई नई बात नहीं है। पहले बाढ़, सूखा आदि की आपदा को अधिकारी, बाबू अवसर बनाते थे। तभी पी साईनाथ ने किताब लिखी- एवरीबॉडी लब्स एक गुड ड्रॉट! तभी अदम गोंडवी ने लिखा महज तनख्वाह से निपटेंगे क्या नखरे लुगाई के, हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के। ये सूखे की निशानी उनके ड्राइंगरूम में देखो, जो टीवी का नया सेट है रखा ऊपर तिपाई के। मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं, पिछली बाढ़ के तोहफे हैं ये कंगन कलाई के। सो, पहले नेता, अधिकारी, बाबू, ठेकेदार, कारोबारी आदि बाढ़, सूखे को अवसर बनाते थे और इस बार कोरोना को बना लिया है। सब तरफ लूट मची है और इसमें भी कुछ नया नहीं है। महामारी के बीच नेता रैलियां करते रहे, यह भी कोई नई चीज नहीं है। पहली लहर में भी यही हुआ था। कोरोना महामारी के बीच मध्य प्रदेश की सरकार गिरी थी और राजस्थान में सरकार गिरते-गिरते रह गई थी। बिहार में भी विधानसभा का चुनाव हुआ था। सो, इस बार अगर पांच  राज्यों में चुनाव होता रहा, रैलियां होती रहीं, नेता रैलियों में गरजते रहे तो इसमें क्या नया है? यहां दशकों से तबाही पर, विनाश पर, लाशों पर राजनीति होती रही है। सांप्रदायिक दंगों पर राजनीति होती रही है तो सैनिकों की शहादत पर वोट मांगा जाता रहा है। इसलिए अगर आपदा के बीच वोट मांगा जा रहा है तो उसमें भी कुछ नया नहीं है। यह इस देश की नियति है, इस देश की तासीर है और हकीकत है। कोई इससे सबक नहीं लेने वाला है। आज जो सारे बेबस, लाचार मरीज हैं वे भी कल बदल जाएंगे। महामारी खत्म होते ही सब कुछ पुराने ढर्रे पर लौट जाएगा। न सरकार सबक लेगी और न आम आदमी।
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